देवी स्वयंप्रभा जी की शक्ति से, सभी वानर सेना समुद्र के किनारे आकर खड़ी हो गई ।अब सबके सामने यह संकट था कि अब इसके आगे का मार्ग कैसे तय किया जाए? आगे तो विशाल समुद्र है।जल ही जल है। उस जंगल में बिना जल के मर रहे थे।और अब लगता है, यहां जल के कारण मरना पड़ेगा।अंगद जी कहने लगे। अब तो आगे का कोई मार्ग हमें सूझता दिखाई नहीं दे रहा है ।समय वीतता, जा रहा है ।एक महीने की अवधि पूर्ण होने में अब ज्यादा समय शेष नहीं है। बिना सीता जी के समाचार लिए हुए यदि वापस जाते है। तो सुग्रीव जी हमें मार देंगे।
इहां न सुधि सीता को पाई।
उहां गएं मारिहि कपिराई।।
और यदि समुद्र पार करते हैं तो समुद्र के जीव जंतु ही हमारे प्राण ले लेंगे। दोनों ही स्थिति में मृत्यु निश्चित है।
दुहुं प्रकार भइ मृत्यु हमारी।।
अब तो एक ही रास्ता बचा है । कि यहीं समुद्र किनारे अनशन लगाकर देह का त्याग कर दिया जाए। जब वानरों की यह वार्ता समुद्र के किनारे जटायु के भाई गिद्ध सम्पाती ने सुनी
तो मन में बड़ा प्रसन्न हुआ। चलो परमात्मा ने आज बहुत दिनों के बाद घर बैठे ही आहार भेज दिया है।
बहुत दिनों से भूखा हूं।यह बंदर भालू यहीं बैठकर अपनी देह का त्याग करेंगे ।तो मुझे कहीं जाना नहीं पड़ेगा। आराम से मेरा भोजन इन्हीं से प्राप्त हो जाएगा।
कबहुं न मिलि भरि उदर अहारा।
आजु दीन्ह बिधि एकहिं बारा।।
संपाती की यह बातें सुनकर अंगद जी ने कहा।
धन्य जटायु सम कोउ नाहीं।
एक वह गिदधराज जटायु था। जिसने राम जी के कार्य के लिए सीता जी की रक्षा के लिए अपने प्राण त्याग दिए और भगवान के धाम को गया।
राम काज कारन तनु त्यागी।
हरि पुर गयऊ परम बडभागी।।
और एक यह गिद्ध है, जो सीता जी की खोज में जा रहे वानरों से ही अपनी भूख मिटाना चाहता है ।संपाती ने जब वानरों के मुंह से जटायु जी का नाम सुना तो बड़ा दुःखी होता हुआ उनके समीप आकर कहने लगा। आप सब कौन हो? और जटायु को कैसे जानते हो? जटायु तो मेरा भाई था ।क्या वह इस संसार में नहीं है? वानरों ने जटायु जी की कहानी संपाती गिद्ध को सुनाई।
कथा सकल तिन्ह ताहि सुनाई।।
अपने भाई कि इस तरह की मुक्ति सुनकर सम्पाती ने रामजी की महिमा का गुणगान किया।
सुनि संपाती बंधु कै करनी।
रघुपति महिमा बहुबिधि बरनी।।
गीध संपाती ने कहा भाइयों। मैं तुम्हें किसी प्रकार की क्षति नहीं पहुंचाऊगा। बल्कि मैं तुम्हारी सहायता करूंगा। जटायु मेरा ही भाई था ।हम दोनों भाइयों में बड़ा प्रेम था।
युवावस्था में एक समय हमने उड़ान भरी थी सूर्यदेव के निकट जाने की।
हम द्वौ बंधु प्रथम तरुनाई।
गगन गए रबि निकट उड़ाई।।
हम दोनों उड़ते हुए सूर्य देव के निकट पहुंचने वाले थे। सूर्यदेव की तपन को मेरा भाई जटायु सहन नहीं कर पाया। वह वापस आ गया। किंतु मैं अभिमान के वशीभूत होकर ऊपर की ओर गया।
तब मेरे सूर्य की तपन से पंख जल गए। और मैं वहीं से नीचे की ओर गिरा ।
जरे पंख अति तेज अपारा।
परेउं भूमि करि घोर चिकारा।।
चंद्रमा नाम के एक ऋषि को मुझ पर दया आई उन्होंने मुझे गोद में उठा लिया। मुझे आश्रय दिया ।मेरा उपचार किया।
और मुझे बहुत प्रकार से ज्ञान समझाया।
बहु प्रकार तेंहि ज्ञान सुनावा।
देहजनित अभिमान छुडावा।।
और उन्होंने कहा था एक दिन सीता जी की खोज करते हुए वानर सेना आएगी। तुम उन्हें श्री सीता जी का पता बताना। तब तुम्हारे पंख आ जाएंगे। और तुम उड पाओगे।
जमिहहिं पंख करसि जनि चिंता।
तिन्हहि देखाई देहसु तैं सीता।।
मुझे लगता है आज वह समय आ गया है।
मुनि कइ गिरा सत्य भइ आजू।।
मैं उड़ने में असमर्थ हूं। तुम लोग मेरी सहायता करो ।मुझे समुद्र के किनारे ले चलो। मैं अपने भाई को तिलांजलि देना चाहता हूं। फिर मैं तुम्हें सीता जी का पता बताऊंगा
मोहि ले जाहु सिंधुतट,
देऊं तिलांजलि ताहि,
बचन सहाइ करबि मैं,
पैहहु खोजहु जाहि।।
वानरों ने संपात्ति की बातें मान कर उसे समुद्र के किनारे लाए। संपाती ने अपने भाई जटायु को तिलांजलि दी।
अनुज क्रिया करि सागर तीरा।।
फ़िर संपाती ने अपनी दृष्टि से देखा की सीता जी लंका में अशोक वाटिका में स्थित है। उन्होंने वानरों से कहा मैं श्री सीता जी के दर्शन कर रहा हूं। हमारी दृष्टि अपार है। श्री सीता जी को मैं देख पा रहा हूं। किंतु तुम नहीं देख पाओगे।
मैं देखहुं तुम्ह नाहि।
गीधहि दृष्टि अपार।।
उनके समाचार लेने के लिए केवल वही वीर जा सकता है। जिसमें इस समुद्र को पार करने की क्षमता हो ।
जो नाघइ सत जोजन सागर।।
संपाती इस तरह कहकर चले गए। श्रापमुक्त होते ही उनके पंख आ गये थे।सब वानरों में अब विस्मय हुआ।वानरों के सामने प्रश्न था। कि समुद्र के पार कौन जाएगा? सब अपने अपने बल का वर्णन करने लगे। किंतु समुद्र पार करने में सबको ससंय है।
निज निज बल सब काहूं भाषा।
पार जाइ कर संसय राखा।।
कोई कहने लगा मैं १००कोस तक जा सकता हूं ।कोई कहता है मैं २०० कोस जा सकता हूं। जिसमें क्षमता नहीं थी वह भी कह रहा था कि मैं भी इतनी दूर जा सकता हूं। उसे मालूम था कि केवल कहना ही तो है। इसलिए कहने में क्यों पीछे रहें।बाकी तो सब हनुमान जी देख ही लेंगे।
समुद्र की लम्बाई १००योजन मतलब ४००कोस है। जामवंत जी कहने लगे। मैं बूढ़ा हो गया हूं नहीं तो मैं चला जाता। अंगद जी ने कहा मैं जा तो सकता हूं। किंतु आने में संसय हैं।
अंगद कहइ जाऊं मैं पारा।
जिय संसय कछु फिरती बारा।।
अंगद जी ने संसय इसलिए व्यक्त किया कि वह जानते हैं ।उनके गुरु जी ने श्राप दिया है कि, रावण के पुत्र अक्षय कुमार को तुमने मारा तो तुम्हारी मृत्यु हो जायेगी।यह श्राप उन्हें, गुरुकुल में मिला था । क्योंकि अक्षय कुमार और अंगद जी एक ही गुरु के शिष्य थे।अंगद जी शरारती थे।वह अक्षय कुमार को परेशान करते थे।मारते रहते थे ।इसलिए गुरु जी ने उन्हें श्राप दिया था। अंगद जी जानते थे कहीं वह अक्षय कुमार मुझे मिल गया और उससे भिड़ंत हो गई। कहीं उसे मारने में आ गया तो गुरु जी का श्राप लग जायेगा।
इसलिए आने में संसय की बात कर र है है। जामवंत जी ने कहा। नहीं नहीं। हम उसी को भेजेंगे जो समाचार लेकर वापस भी आ सके । और तुम सेना पति हो। हम तुम्हें नहीं भेज सकते। हनुमान जी चुपचाप इनकी बातें सुन रहे थे। कुछ बोल नहीं रहे हैं। जामवंत जी ने कहा हनुमान तुम क्यों चुप हो? तुम क्यों नहीं बोल रहे हो?
का चुप साधि रहेहु बलवाना।।
यह प्रसंग अगले पोस्ट में जय श्री राम।।🏹