राम जी के हाथों बाली का वध किया जाता है। यह समाचार सुनकर बाली की पत्नी तारा करुण विलाप करते हुए आती है।
बाल बिखरे हुए हैं ,देह की सुध नहीं है।
नाना विधि विलाप करि तारा।
छूटे केश न देह सभांरा।।
भगवान श्री राम जी उन्हें प्रकृति के नियम जीवन मरण यश अपयश ज्ञान भक्ति की बातें करके उन्हें सांत्वना देते हैं।
तारा बिकल देखि रघुराया।
दीन्ह ग्यान हरि लीन्ही माया।।
भगवान के द्वारा ज्ञान प्राप्त होने पर तारा रानी भगवान के चरणों में गिर गई ।और भक्ति का वरदान मांग लिया।
उपजा ज्ञान चरन तब लागी।
लीन्हेसि परम भगति वर मागी।।
बाली के पुत्र अंगद के द्वारा वाली की अंत्येष्टि की जाती है। इसके पश्चात भगवान श्री राम जी, लक्ष्मण जी और हनुमान जी को सुग्रीव जी के साथ किष्किन्धापुर नगर में उनके राज्याभिषेक के लिए भेजते हैं। सब लोग आज्ञा पाकर जाते हैं।
रघुपति चरन नाइ करि माथा।
चले सकल प्रेरित रघुनाथा।।
एक अद्भुत बात यह रही कि श्री राम जी ने हनुमान जी और लक्ष्मण जी को बुलाकर कुछ समझाया। किंतु क्या समझाया। यह बात सुग्रीव जी को भी नहीं मालूम थी। क्योंकि श्री राम जी को अपना अयोध्या के राजतिलक का स्मरण हो आया ।उन्हें मालूम था कि राज्याभिषेक से पहले घोषणा करना ठीक नहीं है। इसीलिए रामजी ने सब की उपस्थिति में पहले से यह घोषणा नहीं की। केवल हनुमान जी और लक्ष्मण जी को समझा कर भेजा। और जब सुग्रीव जी को राजा बनाया गया। तब बाली के पुत्र अंगद को युवराज का पद दिया गया।
लछिमन तुरत बोलाए,
पुरजन बिप्र समाज,
राजु दीन्ह सुग्रीव कंह,
अंगद कंह जुबराज।।
राम जी ने लक्ष्मण जी और हनुमान जी को बुलाकर यही समझाया था । कि युवराज पद अंगद को देना है।अंगद जी को स्वयं यह नहीं मालूम था कि मुझे युवराज का पद दिया जाएगा।
श्री राम जी जानते हैं पहले यदि घोषणा कर दी जाएगी तो हो सकता है अंगद को युवराज बनाने पर किसी को आपत्ति हो जाए। जैसे की राजा दशरथ जी द्वारा राम जी के राजतिलक की घोषणा पहले कर दी और विरोध खड़ा हो गया। इसलिए भगवान ने पहले घोषणा नहीं की।
भगवान श्रीरामजी ने सुग्रीव जी
तुरंत बुलवाकर राजनैतिक क्षिक्षा दी।
पुनि सुग्रीवहि लीन्ह बोलाई
बहु प्रकार नृपनीति सिखाई।।
भगवान ने सुग्रीव जी को समझाया, मैं चौदह वर्ष तक नगर में नहीं जाऊंगा। वर्षा ऋतु आ गई है ।मैं यहीं पर्वत पर रहूंगा।
रहिहऊं निकट सैल पर छाई।।
तुम अंगद सहित राज्य करो और मेरे कार्य का स्मरण रखना।
अंगद सहित करहु तुम्ह राजू।
संतत हृदय धरेहु मम काजू।।
ऐसा कह कर भगवान प्रवर्रषण पर्वत पर रहने लगे ।
श्रीराम जी छोटे भाई लक्ष्मण जी से भक्ति वैराग्य राजनीति और ज्ञान की अनेक कथाएं कहते हैं।
कहत अनुज सन कथा अनेका।
भगति बिरति नृपनीति बिबेका।।
वर्षा ऋतु बीत चुकी थी।एक दिन राम जी ने लक्ष्मण जी से कहा।
वर्षा ऋतु बीत चुकी है शरद ऋतु आ गई है ।अभी तक सीता जी कि हमें खबर नहीं मिली है।
बरषा गत निर्मल रितु आई।
सुधि न तात सीता के पाई।।
हमारे मित्र सुग्रीव ने भी हमें भुला दिया है। हमारे कार्य का उन्हें स्मरण ही नहीं है। चार महीने में एक बार भी आकर हमारी खबर नहीं ली है।
सत्ता पाकर भोग विलास में डूब चुके हैं ।
सुग्रीवहिं सुधि मोरि बिसारी।
पावा राज कोश पुर नारी।।
भगवान को क्रोध आया। और लक्ष्मण जी से कहा मैंने जिस बाण से बाली को मारा है। वह बाण अभी भी मेरे तरकस में है ।कल मैं सुग्रीव को इसी वाण से मारूंगा।
जेंहि सायक मारा में बालि।
तेहिं सर हतौं मूढ़ कंह काली।।
रामजी की बातें सुनकर लक्ष्मण जी मुस्कुराने लगे।
रामजी ने कहा लक्ष्मण मुझे क्रोध आ रहा है ।और तुम हंस रहे हो। क्या बात है? लक्ष्मण जी ने कहा प्रभु। मुझे इस बात की खुशी है कि कम से कम तुम्हें क्रोध आया है। आपको क्रौध करना आता कहां है।मैं हंस इसलिए रहा हूं कि क्रोध आया अवश्य। किंतु आपको क्रोध करना आता नहीं है।रामजी ने कहा क्रोध करना क्यों नहीं आता है? मैं क्रोध ही तो कर रहा हूं। लक्ष्मण जी ने कहा। पर क्या आपको वास्तविक रूप में क्रोध आ रहा है? रामजी ने कहा हां लक्ष्मण क्रौध आ रहा है। लक्ष्मण जी बोले। क्रौध का रूप यह नहीं होता है ।आप सुग्रीव को मारने की बात कर रहे हो। आप को क्रोध आज आ रहा है ।और सुग्रीव को मारोगे कल। क्रौध में ऐसा नहीं होता है प्रभु ।अब आप मेरा क्रौध देखिए ।आज की बात को कल पर नहीं छोड़ना चाहिए ।मैं आज ही जाता हूं ।और सुग्रीव का काम खत्म कर देता हूं।
लछिमन क्रोधवंत प्रभु जाना।।
लक्ष्मण जी की बातें सुनकर राम जी डर गए। कहने लगे नहीं नहीं लक्ष्मण। ऐसा नहीं करना है। वह मेरा मित्र है।
मेरे कहने का अभिप्राय यह है। कि, यदि मनुष्य को क्रोध आता है तो उसे कल पर छोड़ देना चाहिए। और जहां प्रेम ज्ञान भक्ति भजन की बात आती है उसे आज ही कर लेना चाहिए। कल पर नहीं छोड़ना चाहिए। तुम जाओ, किंतु सुग्रीव जी को मारना नहीं। क्रोध तो उसी तरह करना जिस तरह मैं कर रहा हूं। किंतु उसे भय दिखाकर साथ में लेकर आ जाना।
भय देखाइ ले आवहु,
तात सखा सुग्रीव।।
इतना भी मत डराना कि वह भाग ही जाए। इसलिए तुम अपने साथ में लेकर आना।
उधर हनुमान जी जान रहे थे सुग्रीव जी ने भगवान के कार्य को भुला दिया है।
इहां पवनसुत हृदय बिचारा।
रामकाजू सुग्रीव बिसारा।।
इसलिए हनुमान जी ने साम दाम दण्ड भेद सब नीतियों के द्वारा सुग्रीव जी को समझाया।
सुग्रीव जी ने हनुमानजी से जब यह सारी ज्ञान उपदेश की बातें सुनी तो डर गए।
अरे भगवान की माया के कारण मैं तो यह सब भूल ही गया था।
सुनि सुग्रीव परम भय माना।।
अब तो सुग्रीव जी ने तुरंत हनुमान जी को आज्ञा दी कि अति शीघ्र सब वानरों को श्री सीता जी की खोज में भेजो।
इतने में ही लक्ष्मण जी किष्किंधा में पहुंच गए।
हनुमान जी को मालूम पड़ा। लक्ष्मण जी क्रोध आतुर होकर आ रहे हैं ।अब सुग्रीव जी की खैर नहीं है।
लक्ष्मण जी को देखकर सब वानर जिधर किधर भागे।
एहि अवसर लछिमन पुर आए।
क्रौध देखि जंह तंह कपि धाए।।
सुग्रीव जी को यह खबर मिलती है। वह भय के मारे कांपने लगते हैं। तारा रानी से कहते हैं ।तुम जाकर लक्ष्मण जी का क्रोध शांत करो ।क्योंकि राम जी ने ज्ञान का उपदेश तुम्हें भी दिया था। मेरा ज्ञान तो राज्य पाने के बाद चला गया। किंतु तुम्हारा ज्ञान तो अभी होगा। हनुमान जी तारा रानी को साथ में लेकर भगवान का सुयस लक्ष्मण जी को सुना कर लक्ष्मण जी के क्रोध को शांत करते हैं।
तारा सहित जाइ हनुमाना।
चरन बंदि प्रभु सुजस बखाना।।
हनुमान जी लक्ष्मण जी को महल में ले आते हैं।
करि विनती मंदिर ले आए।।
चरण पखारि पलंग बैठाए।।
हनुमान जी बड़े चतुर हैं। उन्होंने लक्ष्मण जी को सुग्रीव जी के पलंग पर बैठाया। हनुमान जी जानते हैं ।कि कहीं ऐसा न हो कि सुग्रीव जी फिर से रामजी के कार्य को भूलकर पलंग पर आराम करने लगे । इसलिए लक्ष्मण जी को पलंग पर बैठाया। लक्ष्मण जी हैं शेषवतार। जिसके पलंग पर नाग देवता बैठ जाए तो बताओ क्या वह फिर से उस पलंग पर सोने की भूल करेगा?
हनुमान जी ने पक्का काम कर दिया , ताकि सुग्रीव जी फिर से सोने का साहस ही न कर सकें।
सुग्रीव जी नम्र होकर लक्ष्मण जी से कहने लगे। भगवान की माया ही ऐसी है। भोग विलास में ऋषि मुनियों को भटका देती है ।मैं तो अज्ञानी जीव हूं इसमें मेरा क्या दोष है।
नाथ बिषय सम मद कछु नहीं।
मुनि मन मोह करइ छन माहीं।।
सुग्रीव जी के विनय युक्त वचन सुनकर लक्ष्मण जी ने उन्हें समझाया।
सुनत बिनीत बचन सुखु पावा।
लछिमन तेहि बहुबिधि समुझावा
हनुमान जी ने सारी कथा लक्ष्मण जी को सुनाई कि दूतों को दशों दिशाओं में भेज दिया है।आप निश्चिंत रहिए।
पवन तनय सब कथा सुनाई।
जेहि बिधि गए दूत समुदाई।।
फिर लक्ष्मण जी सुग्रीव जी को साथ में लेकर राम जी के पास आते हैं ।
हरषि चले सुग्रीव तब,
अंगदादि कपि साथ,
रामानुज आगे करि,
आए जंह रघुनाथ।।
यह प्रशंग अगली पोस्ट में जय श्री राम।।