बरसों पहले नंदन और कादम्बिनी बन्द हो गई! पराग, चन्दामामा, चंपक, चाचा चौधरी, लोटपोट, सारिका, धर्मयुग, दिनमान, साप्ताहिक हिन्दुस्तान जाने कब से बन्द हो गए! अमरचित्र कथाओं और पंचतंत्र का वह सत्यगाथा युग जाता रहा!
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बन्द तो न जाने क्या क्या हुआ। ओमप्रकाश शर्मा, वेदप्रकाश कम्बोज, कर्नल रंजीत, गुलशन नंदा का सानी भी कोई पैदा नहीं हुआ। अब न कभी मैथिलीशरण गुप्त आएंगे, न सोहनलाल द्विवेदी, न महादेवी न सुभद्राकुमारी चौहान। न सुमित्रनंदन पंत न दिनकर और न जयशंकर प्रसाद। न धर्मवीर भारती न मनोहर श्याम जोशी। न राजेन्द्र माथुर न कन्हैयालाल नंदन। न शैल चतुर्वेदी न काका हाथरसी। न विमल दा न आचार्य चतुरसेन न प्रेमचंद न अमृतलाल नागर। न अक्षय कुमार जैन, न चंदूलाल चंद्राकर, न शिवानी और न सर्वेश्वर दयाल सक्सेना। नीरज, आदित्य, हुल्लड़, वेदव्यास, निर्धन, निर्भय आदि भी कहाँ आ पाएंगे।
कितने नाम गिनाएं जो नहीं आएंगे। यकीन न हो तो पिछले कुछ दशकों को याद कर लीजिए। कौन नया आया? कोई भी नहीं आया। सृजन का वह दौर ही थम सा गया।
गीताप्रेस गोरखपुर चलाने वाले स्वामी रामसुखदास, जयदयाल गोयनका और हनुमान प्रसाद पोद्दार कभी आएंगे क्या? जी नहीं, जो गया सो गया, जो जमाना बीता, सो बीता। वह रात गई और वह बात गई।
हिंदुस्तान प्रकाशन संस्थान अभी तीन साल पहले तक भी कादम्बिनी और नंदन को चला रहा था, यह भी आश्चर्य ही कहा जाएगा। पाठक वर्ग है कहाँ? सब डिजिटल और जेब में है। प्रतिलिपि डाउन लोड कर लीजिए किसी भी जोनर का कोई भी उपन्यास पढ़ लीजिये। बच्चों के ज्ञानवर्धन के लिए अब हिंदी की जरूरत माँ बाप को नहीं। डिजिटल प्लेटफॉर्म पर सब कुछ उपलब्ध है। युवाओं के लिए, महिलाओं के लिए, अधेड़ों और बुजुर्गों के लिए अपार सामग्री। किसी भी स्वाद का साहित्य, सामान की तरह ऑन शाप। चाहें तो पढ़ें चाहें डाउनलोड करें। स्कूली और उच्चशिक्षा की अपार सामग्री मौजूद।
बात साफ है। किताबों ने छपना बन्द नहीं किया, हमीं ने पढ़ना छोड़ा। जाने माने लेखक परोसते रहे, हमने खरीदना छोड़ दिया। उनकी लिखी किताबें बुक स्टॉल्स से उठकर पब्लिकेशन हाउसेज में वापस जाती रही, हमें दर्द न हुआ। अनेक लेखकों ने, जो कि बरसों से हमारा मनोरंजन और ज्ञानवर्धन कर रहे थे, लिखना छोड़कर क्लर्की कर ली या दुकानदार बन गए।
पढ़ना हमने छोड़ा, यद्यपि इसमें पूरा दोष हमारा नहीं, जमाने का था। फिर भी पठन पाठन और चिंतन की सतत धारा थम गई। प्रवाह रुक गया। एक एक कर साहित्य प्रकाशन संस्थानों का रुझान साहित्य से हटकर शिक्षण संस्थाओं की पाठ्यपुस्तकें छापने की तरफ होता गया। परिणाम यह कि महानगरों को छोड़कर देश के अन्य सैकड़ों प्रकाशन संस्थान बन्द हो गए।
किताबें जाती रही कम्प्यूटर आते रहे। आते आते जेबों में सिमट आये। इतना ही क्यूँ, बच्चों की पढ़ाई का आधार भी बदल गया। अब तो ऑनलाइन स्टडी का जमाना आ गया है। रीडिंग भी ऑनलाइन, होमवर्क भी ऑनलाइन। इमला भी ऑनलाइन गणित भी ऑनलाइन। एक्जाम भी ऑनलाइन रिजल्ट भी ऑनलाइन। एडमिशन भी ऑनलाइन फीस भी ऑनलाइन। इंटरव्यू भी ऑनलाइन सैलरी भी ऑनलाइन। भिंडी भी ऑनलाइन कार भी ऑनलाइन। बैंकिंग भी ऑनलाइन मार्केटिंग भी ऑनलाइन।
तो फिर दर्द कैसा। बन्द हो जाने दीजिए कादम्बिनी, नंदन और कॉमिक्स। बन्द हो जाने दीजिए गीता प्रेस और सस्ता साहित्य। बन्द होने दीजिए सस्ती पाकेट बुक्स। और अब तो लोगों ने अख़बार तक खरीदने के बजाय नेट पर पढ़ने शुरू कर दिए हैं। मतलब अब बिलगेट्स, गूगल, जुकरबर्ग और व्हाट्सएप को कमाने दीजिये। संचार कम्पनियों के सस्ते डेटा का सुख भोगिये। घर घर अनलिमिटेड वाई फाई के जमाने में पत्रिकाओं का अफसोस क्या करें। जमाने ने जो बोया है उसी की तो कटाई करनी है।