भारत में सेकुलर होने के लिए हम मुसलमानों को अपना मानक बनाते हैं। अपनी हर बात हम उनसे जोड़कर अपने आपको प्रमाणपत्र देते हैं कि देखो, हम सेकुलर हैं।
जैसे, भजन भी वही सुनेंगे जिसे किसी मुस्लिम ने गाया हो। राम के बारे में वही बोलेंगे जो किसी इकबाल ने बोला हो। कृष्ण हो या महादेव वही भजन शेयर करेंगे जो किसी मुस्लिम ने गाया हो।
मानो कोई मानसिक बीमारी जैसी हो जाती है। अपना अस्तित्व तलाशने के लिए भी इस्लामिक तरीकों का सहारा खोजते हैं। इसी मानसिक बीमारी को यहां सेकुलरिज्म कहा गया है।
असल में ये मनोरोग अब्राहमिक रिलीजन से आता है। अब्राहमिक रिलीजन चाहे इस्लाम हो या क्रिश्चियनिटी वह दूसरों के प्रमाणपत्र के सहारे चलता है। वह खुद अपने प्रतीकों को कैसे देखता सुनता है, उसका न तो कभी परीक्षण करता है और न किसी कसौटी पर कसता है। वह पूरी तरह से मान्यताओं पर चलता है। इसलिए उसे स्वयं भरोसा नहीं होता कि वह जिन बातों को मान रहा है उनका वास्तविक अस्तित्व है या नहीं।
इसलिए उसका पूरा प्रयास होता है कि दूसरे लोग उसकी मान्यताओं को अच्छा कहें। उसकी प्रशंसा करें, और उसे महान बतायें। ताकि उसका अपने ही मान्यताओं के ऊपर भरोसा टूट न जाए।
इसी की प्रतिक्रिया सेकुलरिज्म के रूप में पैदा होती है। भारत में जो अपने आप को सेकुलर कहते हैं असल में वो अब्राहामिक रिलीजन के तौर तरीकों को ही फॉलो करते हैं। दोनों का भारत की ज्ञान परंपरा से दूर दूर का कोई कोई संबंध नहीं है। हम तो अपना प्रमाण आप होते हैं। हमारे अपनी ज्ञान परंपरा इतनी समृद्ध है कि अपनी कसौटी पर कसकर ही हम किसी बात को मानते या निरस्त करते हैं। हमें किसी और के प्रमाणपत्र की कोई जरूरत नहीं है।
राम राम रहेगी
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