राम जी एक क्षत्रिय राजा थे, जो निहत्थे पर प्रहर नहीं करते थे, और वृद्ध पर तो कदापि नहीं। तो फिर वह एक वृद्ध का सिर कैसे काट सकते हैं। और अगर मारना था ही तो अपनी सेना को भी तो भेज सकते थे। वह स्वयं ही क्यों गए।
जब जन्म के हिसाब से मनुष्य के वर्ण तय नहीं होते तो उस व्यक्ति को शूद्र कैसे कहा जा सकता है। अगर वह पूजा कर रहा था तो इस हिसाब से वह ब्राह्मण हुआ,
क्योंकि वर्ण तो कर्म के आधार पर निश्चित होते थे। तो उसकी हत्या का कोई सवाल ही नहीं बनता।
वामपंथियों की ऐसी बहुत सारी बातें हैं जिनका सच्चाई से कोई लेना देना नहीं है। क्योंकि अगर सनातन संस्कृति में भगवान श्री राम को मर्यादा पुरुषोत्तम कहा गया है तो वह ऐसे ही नहीं कहा गया होगा, उसके पीछे कोई ना कोई कारण अवश्य होगा। जहाँ कहीं भी धर्म की बात आती है वहाँ भगवान श्री राम को अवश्य याद किया जाता है, उसके पीछे भी कोई ना कोई कारण अवश्य है जिसे समझने की जिम्मेदारी हम सब की बनती है। हमें समझना चाहिए!
ऐसे तर्कों से हम कह सकते हैं कि राम जी और भारतीय संस्कृति पर लगाया गया ये लांछन गलत है।
अगर हमें शंबूक वध के सही प्रसंग को जानना है तो हमें वाल्मीकि जी द्वारा लिखित आनंद रामायण और अद्भुत रामायण को अवश्य पढ़ना चाहिए, जहाँ हमें प्रत्येक प्रश्नों के उत्तर मिल जाएंगे। भगवान श्रीराम 11,000 वर्षों तक इस धरती पर रहे थे।
दशवर्षसहस्राणि दशवर्षशतानि च।
रामो राज्यमुपासित्वा ब्रह्मलोकं प्रयास्यति।।
(वाल्मीकि रामायण, बाल कांड, सर्ग 1, श्लोक 97)
अर्थात:- भगवान श्री राम जी ने 11,000 वर्षों तक शासन किया तत्पश्चात वह ब्रह्मलोक को चले गए।
जिस रामायण को हम पढ़ते हैं उस रामायण में वाल्मीकि जी ने भगवान श्री राम के 50 वर्षों तक की लीलाओं का वर्णन किया है। बाकी के 10,950 वर्षों की लीलाओं का वर्णन वाल्मीकि जी ने आनंद रामायण और अद्भुत रामायण में किया है। जिसे हमें पढ़ना चाहिए!
वामपंथियों द्वारा रामचरित मानस की एक और चौपाई पर खूब बवाल मचाया जाता है। वह है :-
ढोल गँवार सूद्र पशु नारी, सकल ताड़ना के अधिकारी।
यही तो अंग्रेजों और वामपंथियों द्वारा किया गया कि हमारे धार्मिक श्लोकों को आधा अधूरा दिखाया। और आधा अधूरा ज्ञान किसी विष के समान होता है। और यह विष हमारे समाज में ऊंच-नीच की भावना के रूप में घुल गया है।
लेकिन क्या गोस्वामी तुलसीदास जी ने इस चौपाई में कुछ गलत लिखा था क्या?
पहले जानते हैं कि पूरी चौपाई क्या थी:-
प्रभु भल किन्ह मोहि सिख दीनी,
मरजादा पुनि तुम्हरी किन्ही।
ढोल गंवार सूद्र पशु नारी,
सकल ताड़ना के अधिकारी।।
(सुंदर कांड, रामचरित मानस)
ये कथन समुद्र देव ने श्री राम जी से कहे थे। जब तीन दिन बीतने के बाद भी विनम्रतापूर्वक समुद्र ने लंका जाने का रास्ता नहीं दिया तो राम जी ने क्रोधित होकर अपने बाण से समुद्री को सुखाना चाहा। तब समुद्र देव ने सामने आकर विनम्रतापूर्वक क्षमा मांगी और कहा कि अच्छा हुआ प्रभु आपने मुझ जड़ स्वभाव वाले को सीख दी अर्थात मुझे ज्ञान दिया, परंतु मेरा यह जड़ स्वभाव प्रकृति की ही देन है, अर्थात आपने ही मेरा यह स्वभाव बनाया है इसीलिए मैंने इसका पालन किया। परंतु समय-समय पर आपको मुझे यह सीख देते रहना चाहिए।
यहाँ तुलसीदास जी ने काव्यांश पूरा करने के लिए कुछ पंक्तियाँ जोड़ी और कहा कि, “क्योंकि ढोल, गँवार,
शूद्र, पशु और नारी यह सब ताड़ना के अधिकारी होते हैं”।
इस बात पर बवाल मचाने से पहले हिन्दी व्याकरण समझ लिया होता तो दिक्कत ना आती। हिन्दी व्याकरण में एक अलंकार होता है "श्लेष अलंकार", इस अलंकार के अंतर्गत काव्य रचनाओं में एक शब्द का प्रयोग अनेकों अर्थों में किया जाता है। इसी अलंकार का प्रयोग इन पंक्तियों में भी किया गया है।
यहाँ ताड़ना शब्द का प्रयोग विभिन्न अर्थों के साथ किया गया है। जिस ताड़ना शब्द का अर्थ वामपंथियों द्वारा बताया गया वह है सिर्फ "पीटना"। परंतु आप खुद सोचिए कि गोस्वामी तुलसीदास ऐसी बात कर सकते हैं?
नहीं ना!
ये तो अंग्रेजों की समाज को तोड़ने की चाल थी।
यहाँ ताड़ना शब्द के विभिन्न आशय हैं जैसे बजाना, देखना,
देख-भाल करना, शिक्षित करना। अर्थात ढोल को जब तक बजाओगे नहीं तब तक वह बजेगा नहीं। अगर कोई गँवार है अर्थात कोई अशिक्षित है तो उसे शिक्षा देनी चाहिए उसे पढ़ाना चाहिए। स्त्रियाँ समाज का महत्वपूर्ण अंग हैं इसीलिए स्त्रियों की देखभाल करनी चाहिए। पशुओं को भी देख-रेख में रखना चाहिए क्योंकि पहले पशु भी परिवार का हिस्सा होते थे इसीलिए उन पर भी बराबर ध्यान देना चाहिए। अब बात होती है शूद्रों की,
तो शूद्र कोई जाती नहीं है,
शूद्र का अर्थ होता है सहायता करने वाला। तो यहाँ तुलसीदास जी कहते हैं कि जिसने आपकी सहायता करी है उसका भी ध्यान रखो,
उसका सम्मान करो।
पर मैकाले की शिक्षा पद्धति ने सब कुछ बिगाड़ के रख दिया है। इसने समाज को ऊंच नीच में बांट दिया,
और लोगों के मन में इतना भेद भाव भर दिया कि आज वो कुछ सुनना नहीं चाहते हैं,
अगर उन्हें कुछ बताओ तो सबूत मांगते हैं। लेकिन सबूत लायें कहाँ से, वो तो बचे ही नहीं।
इस शिक्षा पद्धति ने हमारे मन में शुरू से ही यह बात डाल दी है कि भारत में जातिगत भेद भाव होता था, जिसकी वजह से तथाकथित निचली जाती के लोगों ने बौद्ध और सिक्ख धर्म अपना लिए। और इस बात का प्रचार कैसे किया गया देखिए। वामपंथियों द्वारा कहा गया कि,
"जिस सनातन धर्म में राम जी को मर्यादा पुरुषोत्तम कहा जाता है क्योंकि उन्होंने धर्म की रक्षा के लिए एक शूद्र को मारा था,
उस सनातन धर्म का पालन आप कैसे कर सकते हैं,
इस सनातन धर्म में आप सभी पर अत्याचार ही होते आए हैं,
और आज भी हो रहे हैं। इसीलिए आप अपना धर्म परिवर्तन कर लीजिए"।
लेकिन इन मूर्खों को कौन बताये की बौद्ध और सिक्ख मत सनातन धर्म से अलग नहीं हैं। और अगर अलग होते तो बौद्धों की जातक कथाओं में रामायण के पत्रों का जिक्र है? क्यों गुरु ग्रंथ साहिब में भी भगवान श्री राम को आदर्श माना जाता है?