जाति शब्द आया कहाँ से और यह जाति व्यवस्था किसने बनाई और आखिर क्यों?
हम सब जानते हैं कि भारत में अलग-अलग जगहों से लुटेरे आते रहे हैं, जिनमें पुर्तगाली भी शामिल थे। जब वे भारत आए तो उन्होंने देखा कि भारत में तो बहुत विभिन्नताएं हैं। यहाँ के व्यक्ति अलग-अलग कार्य करते हैं। कोई पूजा-पाठ करता है, कोई धनार्जन का कार्य करता है, कोई राष्ट्र की रक्षा के लिए खड़ा है तो कोई दूसरों की सहायता करता है। इतनी व्यवस्थाएं देखकर उनका सर चकरा गया! चकराना भी चाहिए। क्योंकि जहाँ से वह आए थे वहाँ लूटपाट के अलावा और कोई कार्य था ही नहीं, तो इतना आश्चर्यचकित होना कोई ज्यादा बड़ी बात नहीं है!
इन्हीं विविधताओं का अध्ययन करने के लिए पुर्तगाल के यात्रियों ने जिसमें वास्को डी गामा शामिल था, भारतीय समाज को विभिन्न जातियों और प्रजातियों में विभाजित किया। और यही व्यवस्था आज तक चली आ रही है। इन्होंने जितनी जातियाँ भारत में बतायी हैं, उनमें से एक भी भारतीय धर्म ग्रंथो में नहीं मिलती है।
अंग्रेजों ने हमारे समाज के बारे में जानने के लिए हमारे समाज को विभाजित कर अध्ययन किया था और हम भी अपने समाज को जानने के लिए अंग्रेजों के उसी अध्ययन पर निर्भर हैं,
जबकि हमें अपने धर्म ग्रंथों को पढ़ना चाहिए था।
1931 में की गई जातीय जन गणना के अनुसार पिछड़े वर्ग की जातियों की संख्या और जनसंख्या- 1955 में काका कालेकर कमीशन ने अपनी जो रिपोर्ट जमा की थी, उसमें ओबीसी में 2,399 जातियों को शामिल किया था, जिनमें से 837 अति पिछड़ी जातियाँ थीं। वहीं मंडल कमीशन ने 3,743 जातियों को पिछड़ा वर्ग में शामिल किया। लेकिन क्या इतनी जातियाँ हमारे ग्रंथों में मिलती हैं?
जितने भी विदेशी भारत आए उन सब का एक ही उद्देश्य था, भारतीय संस्कृति को नष्ट करना जिसके लिए उन्होंने विभिन्न प्रकार के तरीके अपनाए। भारतीय संस्कृति को सबसे ज्यादा नष्ट करने में ईसाई मिशनरियों का योगदान रहा।
ईसाइयों द्वारा आर्थिक सहायता देकर लोगों का धर्म परिवर्तित कराया जाता था,
क्योंकि अंग्रेजों के शासन काल में भारतीय लोग पूरी तरह से दुर्बल हो चुके थे, खाने को खाना नहीं, पहनने को कपड़े नहीं, रहने को घर नहीं!
ऐसी स्थिति में उनके पास धर्म परिवर्तित करने के अलावा कोई दूसरा विकल्प नहीं था। क्योंकि जब कोई व्यक्ति आर्थिक रूप से कमजोर होता है तो वह किसी भी प्रकार का कार्य करने को तैयार हो जाता है,
बशर्ते उसे कुछ आर्थिक सहायता मिले। और अंग्रेजों ने तो भारत से लूटा हुआ धन, भारत के लोगों का ही धर्म परिवर्तन कराने में लगा दिया। और हमें बताया गया कि अंग्रेज ना होते तो भारत बेहाल होता! पता नहीं कौन मूर्ख यह कहता है, और कौन मूर्ख यह मानता है!
धन के साथ-साथ भारतीय संस्कृति और वैदिक काल से चली आ रही व्यवस्था को भी गलत ढंग से प्रस्तुत किया। जिस से आर्थिक रूप से कमजोर लोगों के मन में और अधिक हीन भावना डाली जा सके।
और ऐसा हुआ भी!
भारत का समाज धीरे-धीरे बंटता चला गया क्योंकि अंग्रेजों का सीधा प्रहार सनातन संस्कृति के ग्रंथ थे जिनपर संपूर्ण आर्यावर्त विश्वास करता था।
अंग्रेजों द्वारा बहुत सारी ऐतिहासिक घटनाएं गलत ढंग से पेश की गईं। आइए जानते हैं!
महाभारत काल में एक बहुत अच्छे धनुर्धर हुए थे जिन्होंने द्रोणाचार्य की प्रतिमा को गुरु मानकर धनुर्विद्या सीखी। उनका नाम था एकलव्य!
अब देखिए इस प्रसंग को बहुत ही अच्छे तरीके से जात-पात में कैसे बाँटा गया। कहा गया कि एकलव्य भील पुत्र था जिसके कारण द्रोणाचार्य ने उन्हें शिक्षा नहीं दी थी क्योंकि द्रोणाचार्य राजकुल के गुरु थे जिसके कारण उन्होंने एक भील पुत्र को शिक्षा देने से इनकार कर दिया। यहाँ बताया गया कि एकलव्य के पिता हिरण्यधनु, एक निषाद थे जो निचली जाति के थे। क्योंकि वह निचली जाति के थे इसलिए द्रोणाचार्य जी ने उन्हें शिक्षा देने से इनकार कर दिया।। पर क्या यह सच है?
नहीं!
अब जिसने महाभारत पढ़ी होगी वह अच्छे से जानता होगा कि सच्चाई क्या है,
परंतु जो अपने धर्म ग्रंथ नहीं पढ़ना चाहते उनका क्या?
और आज के समय में ऐसे लोगों की संख्या अधिक है जो अपने ग्रंथों पर विश्वास नहीं करते,
क्योंकि वे उन्हें पिछड़े समाज की निशानी समझते हैं, कमाल की सोच पैदा कर दी है इन वामपंथियों द्वारा!
CONTINUE.....
जय श्री राम
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