देवदासी किसी प्रथा का नाम है या किसी उपाधि का? कौन थी देव दासियाँ?
भारत की सांस्कृतिक विरासत में देव दासियों का क्या योगदान था?
क्या आप देव दासियों की कला के सन्दर्भ में जानना चाहेंगे?
इतने अध्यायों को पढ़ने के पश्चात आपको यह तो समझ आ ही गया होगा कि सनातन धर्म को मलिन करने के लिए विदेशी आक्रान्ताओं द्वारा अनेकों प्रयास किए गए, विभिन्न प्रकार के हथकंडे अपनाए गए, हमारी सांस्कृतिक विरासत को नष्ट किया, हमारी परंपराओं को गलत तरीके से दर्शाया गया। पिछले अध्यायों में पढ़ी गईं प्रथाओं की तरह ही "देवदासी" को भी गलत ढंग से प्रस्तुत किया।
हो सकता है हमें दासी शब्द सुनने में अजीब लगे क्योंकि ये भाव हमारे मन में बचपन से ही दिए जाते हैं कि दास अर्थात काम करने वाले नौकर-चाकर। परंतु दास का अर्थ होता है किसी भी व्यक्ति या वस्तु के प्रति समर्पित कोई व्यक्ति। अर्थात जो तन-मन से किसी भी वस्तु या किसी भी व्यक्ति के साथ जुड़ा हो,
उसकी भावनाएं उस व्यक्ति के प्रति समर्पित हों। ठीक उसी प्रकार देवदासी भी थीं जो भगवान के प्रति समर्पित थीं। देवदासी अर्थात भगवान के प्रति समर्पित कोई महिला।
आपने बहुत से पुरुषों का नाम देवदास सुना होगा परंतु इसका अर्थ क्या होता है? देवदास का अर्थ होता है भगवान का दास, अर्थात भगवान का सेवक, या जिसकी श्रद्धा भगवान में हो, जो तन-मन से भगवान के प्रति समर्पित हो। वैसे ही एक उपाधि का नाम देवदासी भी था जो महिलाओं को दी जाती थी, उन महिलाओं को जो स्वयं को स्वयं की इच्छा से भगवान को समर्पित कर देती थीं।
जिस प्रकार कोई पुरुष सन्यास ले कर ईश्वर की खोज में निकलता है और अपना तन मन ईश्वर को समर्पित करता है ठीक उसी प्रकार कोई स्त्री अगर भगवान के प्रति समर्पित होती है तो इसमें गलत क्या है?
अब आप कहेंगे कि बचपन से ही ईश्वर की खोज में क्यों निकलना? तो मेरा जवाब यह होगा कि ईश्वर की खोज के लिए कोई समय नहीं होता वह चाहे आप बचपन में करें या बुढ़ापे में। ऐसे अनेकों उदाहरण रहे हैं जहां ऋषि मुनि अपने बचपन से ही तपस्या में लगे रहते थे उन्होंने गृहस्थ जीवन का त्याग कर ईश्वर की खोज में घोर तपस्या की।
तो क्या इसका अर्थ यह हुआ कि भगवान उनका शोषण कर रहा है। वामपंथी विचारधारा तो यही समझती है!
जिस प्रकार ऋषि मुनि बचपन से ही तपस्या करते थे ठीक उसी प्रकार स्त्रियां भी स्वयं की इच्छा से भगवान को समर्पित हो जाती थी और इन्हीं को देवदासी कहा जाता था।
ऐसा स्त्री और पुरुष दोनों करते थे। जो घोर तपस्या नहीं कर पाते थे वह मंदिर में रहकर ही अपना जीवन यापन करते थे और उनको उसी के हिसाब से विभिन्न उपाधियाँ दे दी जाती थीं। उन्हीं उपाधि में से एक थी “देवदासी”।
परंतु तथाकथित वामपंथी समाज सुधारकों द्वारा इसे अनुचित समझा गया। इसे उन ईसाई मिशनरियों द्वारा अनुचित समझाया गया जिनकी चर्च में कार्यरत महिलाओं के साथ दुराचार की घटनाएं सामने आती रहती हैं।
इन लोगों द्वारा हमारा इतिहास इतना नष्ट किया गया कि आज हमें उसे सही साबित करने के लिए सबूत देने पड़ते हैं, इसे हमारी मजबूरी भी कह सकते हैं।
और बहुत सारे लोग तो आज इन सबूतों पर विश्वास भी नहीं करेंगे। परंतु यह हमारा कर्तव्य है कि हम सच्चाई को सामने लाएं भले ही किसी को उस पर विश्वास हो या ना हो!
तो जानते हैं कि वास्तविक रूप में देवदासी कौन थीं।
कौन थीं देव दासियाँ?
सबसे पहले तो यही बताना चाहूँगा कि देवदासी कोई प्रथा का नाम नहीं था,
देवदासी एक उपाधि का नाम है। भारतीय संस्कृति में देव दासियाँ, समाज में सम्मानित उन महिलाओं को कहा जाता था जिन्होंने अपना जीवन भगवान को समर्पित कर दिया था। और उन्हें यह सम्मान भी इसी कारण मिलता था। देवदासी अपना सारा जीवन प्रभु सेवा में ही लगा देती थीं। वह मंदिर में रहतीं, वहीं खाना खातीं,
प्रभु सेवा में सहायता करतीं, विभिन्न कलाएं सीखतीं, आरती के समय गायन-वादन तथा नृत्य करतीं आदि-आदि। ऐसे ही वे अनेकों कार्य करती थीं।
यहां तक कि अपने आस-पास के बच्चों को धार्मिक शिक्षा भी देती थीं। साथ ही उन बच्चों को अनेकों प्रकार की कलाएं भी सिखाती थीं। यहाँ इस बात का खंडन होता है कि महिलाओं को शिक्षा का अधिकार नहीं था जबकि यहाँ तो महिलाएं शिक्षा देती थीं।
कत्थक, भरत नाट्यम, कुचिपुड़ी,
मोहिनीअट्टम, ओडिसी आदि विभिन्न प्रकार की कलाओं की जननी भी इन्हीं देव दासियों को कहा जा सकता है क्योंकि इन्हीं के द्वारा यह अस्तित्व में आई थीं। राग, वाद्ययंत्र वादन,
चित्रकला आदि कलाएं भी देव दासियों के कारण जीवित रहीं। “लता मंगेशकर,
आशा भोंसले,
मदुरै शनमुखावडिवु शुभलक्ष्मी” जैसी प्रसिद्ध गायिकाएं, देव दासियों की ही देन हैं।
भारतीय परंपरा में कहा जाता है कि जो देश के लिए समर्पित होता है या फिर किसी भगवान के लिए समर्पित होता है और उस समर्पण भाव के लिए वह सब कुछ त्याग देता है, उसकी रक्षा, उसका सम्मान देश की जनता करती है।
इसी भावना के कारण समाज के लोग देवदासियों की रक्षा तथा सम्मान करते थे। सम्मान के तौर पर उन्हें समाज में होने वाले प्रत्येक अनुष्ठान में बुलाया जाता था और उनका आदर सत्कार किया जाता था। उनका आशीर्वाद लिया जाता था।
जिस समाज में लोग देवदासियों का सम्मान करते थे, उनका आशीर्वाद लेते थे, उस समाज के लोग उनका शोषण कैसे कर सकते हैं। परंतु अंग्रेजों द्वारा इन्हें गलत निगाहों से देखा गया।
अब हम जानने की कोशिश करते हैं कि देवदासी का जीवन कैसा होता था,
उसे अपनी दिनचर्या में क्या-क्या कार्य करने होते थे?
जब कोई लड़की भगवान को समर्पित होती थी तो उसे सुबह ब्रह्म मुहूर्त में जल्दी जागना पड़ता था। उसे मंदिर की साफ-सफाई कर,
स्नान कर मंदिर में भगवान की पूजा के लिए उपस्थित होना पड़ता है।
परंतु इसमें ऐसा गलत क्या था?
मंदिरों में भगवान की पूजा करने के लिए तो लोग तरसते थे,
जिसे उन स्त्रियों ने अपने समर्पण से हासिल किया।
मंदिर में पूजा पाठ करने के बाद देवदासी,
अपने से बड़े पुजारी द्वारा अनेकों प्रकार की कलाएं सीखती थीं। जिसमें नृत्य कला,
संगीत कला,
शास्त्र अध्ययन,
वेद पाठ,
आदि कलाएं शामिल थीं।
वे प्रत्येक मंगलवार और शुक्रवार को अपने से बड़े संतों के साथ भजन कीर्तन करते हुए गाँव-गाँव घूमती थीं। और जब गाँव वाले उन्हें कुछ दान-दक्षिणा देते थे,
तो वे उसे भेंट स्वरूप स्वीकार कर लेती थीं।
परंतु इसमें गलत क्या है? आज अंग्रेज भी सनातन धर्म स्वीकार कर भगवान की भक्ति में लीन होकर सड़कों पर घूमते हैं,
मैंने वृन्दावन में ऐसे अनेकों अंग्रेज देखे हैं जो घर-घर जाकर दान-दक्षिणा लेते हैं। दरअसल दान-दक्षिणा लेने के पीछे का महत्व हमें नहीं पता इसीलिए हमनें इसे गलत ठहरा दिया है। दान लेने से अपने भीतर का अहंकार नष्ट होता है,
हमें हर परिस्थिति में जीने की आदत पड़ती है। और इस गूढ़ महत्व को समझना हर किसी के बस की बात नहीं, खासकर ये वामपंथियों की पहुँच से तो बाहर ही है!
विदेशी आक्रमणकारियों ने देव दासी को एक गलत तरीके से देखा। उन्होंने देव दासी को वैश्या के रूप में प्रस्तुत किया क्योंकि इससे पहले ब्रिटिशों ने कभी भी अपने यहाँ ऐसी व्यवस्था नहीं देखी थी। अब जिसके यहाँ जो होगा उसे वैसा ही तो दिखेगा!
ब्रिटिशों द्वारा अनेक कानून बनाकर इस व्यवस्था को अवैध घोषित कर दिया गया। अब देव दासियों को अपना पंजीकरण कराना पड़ता था। धीरे-धीरे देवदासी का वो सामाजिक महत्व कम होता चला गया, लोगों की निगाहों में उनका सम्मान खत्म हो गया,
क्योंकि अब लोग इन्हें वैश्या समझने लगे थे।
और फिर शुरू हुआ शोषण, देव दासियों का शोषण, अंग्रेजों द्वारा, मुगलों द्वारा!
अब देव दासियों को अपने आप को बेचने के लिए विवश होना पड़ा। ना चाहते हुए भी उन्हें ऐसा करना पड़ा क्योंकि अब उनके पास खाने पीने के लिए कुछ नहीं बचा था, पहनने के लिए कपड़े नहीं बचे थे,
समाज के लोग अब उनका पहले जैसा आदर नहीं करते थे, तो ऐसे में वो क्या करतीं।
वामपंथियों ने भी कोई कसर नहीं छोड़ी थी! इस मुद्दे को उन्होंने जातिवाद से भी जोड़ दिया और कहा कि सिर्फ निचली जात की महिलाएं ही क्यों देव दासी बनती हैं। पर इन मूर्खों को समझाने के लिए सबूत देने पड़ते हैं। और सबूत देने भी क्यों ना पड़ें, आखिर अंग्रेजों का साथ देने वाले भारतीय भी तो थे, जिन्होंने इतिहास को गलत रूप से दर्शाया,
सामाजिक मान्यताओं का दमन किया।
हमें एक बात ध्यान रखनी चाहिए कि हम जो इतिहास पड़ते हैं वो हमें जबरदस्ती पढ़ाया जाता है,
हमारा असली इतिहास तो किसी को पता ही नहीं होगा। इसे मजबूरी में पढ़ना पड़ता है क्योंकि अगर ना पढ़ें तो शायद हम परीक्षाओं में अनुत्तीर्ण हों जाएं। ऐसी मजबूरी भी इन्हीं अंग्रेजों की देन है!
और अगर आज की दृष्टि से देखें तो एक वैश्या वाले काम तो हमारा बॉलीवुड भी कर लेता है! पर इसपर तो हमनें सवाल नहीं उठाए। इसे तो हम अभिव्यक्ति की आजादी से जोड़ते हैं। तो फिर उन महिलाओं का क्या जो अपनी अभिव्यक्ति की आजादी के कारण स्वयं भगवान को समर्पित हो रहीं थीं। इन्हीं पर प्रश्न क्यों उठाया गया।
धर्म लोगों को बाँधता नहीं है,
लोगों को जीना सिखाता है, समर्पण सिखाता है। धर्म कभी किसी से जबरदस्ती कोई काम नहीं कराता और ना ही किसी को मजबूर करता है। पर इन वामपंथियों को कौन समझाये! ये वो लोग हैं जिन्होंने आज तक कोई धर्म ग्रंथ पढ़ नहीं पर सवाल प्रतियोगिता ग्रंथ पर उठाए हैं। और गलती हमारी रही की हम इनकी बातों में आते गए। और बातों में आए तो ऐसे आए की हमनें भी धर्म की आड़ में महिलाओं का शोषण करना शुरू कर दिया, देव दासियों का शोषण करने में मंदिर के पुजारी भी शामिल होंगे इसमें कोई दो राहें नहीं परंतु इसमें सनातन धर्म का क्या कसूर, इसमें भारतीय परंपराओं का क्या कसूर। अगर सच में धर्म ग्रंथ पढ़े होते तो ऐसा नहीं होता,
पर धर्म ग्रंथ पढ़ने ही कहाँ दिए गए अंग्रेजों द्वारा।
अंग्रेजों द्वारा भारतीय संस्कृति को नष्ट किया गया,
यह हम सब जानते हैं लेकिन फिर भी जब कहीं बात आती हैं उन कुप्रथाओं की जो सनातन धर्म में ना होते हुए भी थीं, क्योंकि उन्हें अंग्रेजों द्वारा बनाया गया था,
उन सब प्रथाओं पर हम विश्वास कैसे कर लेते हैं!
इस सोच को हमें बदलना होगा अन्यथा आज जो परम्परा हैं उन्हें भी गलत तरीके से पढ़ाया जाएगा और हम कुछ नहीं कर पाएंगे।