जिस सनातन में सदैव संतोष करना सिखाया जाता है,
उस सनातन धर्म में मान्यता रखने वाले लोभी कैसे हो सकते हैं?
जिस सनातन धर्म में स्त्री का सम्मान सर्वोपरि है, उस सनातन में स्त्री को लोभ के चक्कर में प्रताड़ित कैसे किया जा सकता है?
और अगर यह लोभ है,
तो वह लोभ आया कहाँ से?
यह हमें सोचना चाहिए।
हमें सोचना चाहिए कि जिस सनातन संस्कृति में “सर्वे भवन्तु सुखिनः” कहा गया,
अर्थात ऐसा कार्य करना चाहिए जिससे सभी सुखी रहें, उस सनातन संस्कृति में कुछ धनराशि के लालच में किसी स्त्री को प्रताड़ित कैसे किया जा सकता है।
जिस सनातन संस्कृति में कहा गया कि “वसुधैव कुटुंबकम” अर्थात समस्त विश्व एक परिवार है उस सनातन संस्कृति के परिवार का एक अंग किसी दूसरे अंग को कष्ट कैसे दे सकता है। जिस सनातन संस्कृति में पत्नी को “अर्धांगिनी” कहा गया, उस सनातन संस्कृति में उसका पति उसे धनराशि के लालच में कष्ट कैसे दे सकता है।
जिस सनातन संस्कृति में लोभ को नर्क का द्वार बताया गया है अर्थात सनातन संस्कृति में लोभ करना एक अपराध है, उस सनातन संस्कृति के मानने वाले किसी से धन का लालच क्यों रखेंगे?
गीता में कहा गया है कि: -
त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मन:।
काम: क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत् ।।
(अध्याय 16,
श्लोक 21)
अर्थात: काम, क्रोध तथा लोभ- ये तीन प्रकार के नरक के द्वार आत्मा का नाश करने वाले अर्थात् उसको अधोगति में ले जाने वाले हैं। अतएव इन तीनों को त्याग देना चाहिए।
अंग्रेजों द्वारा बनाई गई इस व्यवस्था में, हमारे दिमाग में हमारी ही संस्कृति के बारे में,
हमारी ही परंपराओं के बारे में इतना गलत भर दिया गया कि आज अगर हमें कोई सच बताए भी, तो हमें उस पर विश्वास नहीं होगा! ऐसा इसीलिए कि, बहुत ही सोच विचार करके मैकाले ने हमारी शिक्षा पद्धति में वह सारी चीजें डाल दी जो सनातन को बदनाम करती थीं और अंग्रेजों की महानता का बखान करती थीं।
टीवी, सिनेमा,
मनोरंजन, शिक्षा आदि माध्यमों से धीरे-धीरे हमारे मन मस्तिष्क में यह बात बैठा दी गई कि सनातन धर्म में बहुत कुरीतियाँ थीं।
और कहीं ना कहीं गलती हमारी भी रही है कि हमने उन लोगों की बातों पर विश्वास किया जिन्होंने हम पर शासन किया था,
जिन्होंने हमारा शोषण किया था, जिन्होंने भारत को लूटा था। उन लोगों की बातों पर हमें विश्वास नहीं करना चाहिए था जिन लोगों ने व्यापारी बनकर हमारा विश्वास तोड़ा था।
भारत के लोग उस इतिहास पर ज्यादा विश्वास रखते हैं जो अंग्रेजों ने लिखा है, यह जानते हुए भी कि उन्होंने हमारा इतिहास मिटाने की कोशिश की।
दहेज, जिसके बारे में कहा गया कि सनातन धर्म में वधू पक्ष के लोग वर पक्ष को कुछ धनराशि देते हैं और अगर वर पक्ष को वह धनराशि नहीं मिलती तो वे उस स्त्री के साथ में दुराचार करते हैं,
उसका शोषण करते हैं।
दहेज के लिए लालच, सनातन की देन नहीं
लेकिन क्या यही वास्तविकता है?
प्राचीन काल में कन्या दान करने वाले माता पिता प्रेम वश कन्या को विवाह में कन्या की आवश्यकताओं की सामग्री प्रदान करते थे, जिससे कन्या को ससुराल में प्रवेश करते ही कुछ माँगना ना पड़े और ससुराल पक्ष के लोग भी उसकी पसंद नापसंद समझ पाएं।
कन्या के साथ में गौ, बछड़ा या उसकी कोई प्रिय सखी उसके साथ भेज दी जाती थी जिससे उसे नए घर में नए लोगों के बीच अपरिचित रहने का अधिक आभास ना हो।
साथ ही ससुराल वालों को भेंट स्वरूप कुछ वस्तुएं, ऐच्छिक रूप से कन्या पक्ष द्वारा भेंट की जाती थीं। इसमें स्वाभिमान, ममत्व और सहजता का शुद्ध भाव था ना की माँग कर नियमबद्धता से किसी का शोषण करने का भाव।
भारतवर्ष में सनातन धर्म में “दान प्रथा” अस्तित्व में थी न कि दहेज प्रथा। सनातन धर्म के किसी भी ग्रंथ में,
किसी भी पुस्तक में,
किसी भी उपनिषद में दहेज शब्द का प्रयोग नहीं मिलता।
जब यह शब्द ही सनातन सभ्यता में नहीं है तो मित्रों यह प्रथा कब और कैसे अस्तित्व में आई? कैसे लोग अपनी कन्या रत्न के साथ वरपक्ष द्वारा मुंह माँगी धन-संपत्ति देकर विदा करने लगे?
इसका भी हम विश्लेषण करने का प्रयास करते हैं!
बात मध्य युगीन काल की है जब विदेशी आक्रमणकारियों द्वारा दिन दहाड़े कन्याओं को उठा कर ले जाने की घटनाएं सामान्य हो रहीं थी।
महिलाओं, कन्याओं पर अत्याचार,
अनाचार कर उनका बलात्कार जैसी निंदनीय घटनाएँ प्रतिदिन हो रही थीं। तब लोगों ने इस अनर्थ से बचने के लिए,
अपने कुल की लाज बचाने के लिए कन्याओं को जैसे तैसे विदा कर देने का उपाय खोज निकाला।
इस के लिए लोगों ने कन्या की आयु तक का ध्यान करना छोड़ दिया इस कारण बाल विवाह भी होने लगे। और अवयस्क वर होने के कारण उसकी आजीविका, व्यापार व्यवसाय की व्यवस्था कर देने का भी वचन देने से लोग नहीं चूक रहे थे।
वे धन देकर कन्या को किसी भी तरह ससुराल पहुंचाकर,
कन्यादान के ऋण से शीघ्रातिशीघ्र मुक्त होना चाहते थे।
इसी विवशता का लाभ कुछ लोभी वर पक्षों ने लेना आरम्भ कर दिया और मुंह माँगी राशि,
धन, संपत्ति, जमीन आदि की मांग करने लगे। तत्कालीन विवशता का लाभ लेने की संधि साधुता की आदत आगे चल कर एक भयावह कुप्रथा बनकर रह गई।
आज विवशता नहीं रही,
सामाजिक व वैचारिक स्वतंत्रता आज सभी को प्राप्त है, सभी वर्ग सुरक्षित हैं फिर भी हम कन्यादान नहीं,
दहेज देकर कन्या को विदा करने में विश्वास रख रहे हैं। और वरपक्ष भी राजा दशरथ की भांति सर झुकाकर दान लेने में आस्था नहीं रख रहे, अपितु सर उठाकर मुंह खोलकर मूल्यवान वस्तुओं की मांग कर कन्या पक्ष का शोषण कर रहे हैं।
क्यों आज विवाह जैसी पवित्र बंधन को आदान-प्रदान व व्यापारिक संधि बना देने पर तुले हैं हम?
क्यों शोषण,
अत्याचार, अपमान, हत्या,
जैसे अमानवीय कृत्य कर सनातन धर्म को मलिन कर रहे हैं? क्यों हम अपने आराध्यों को पूजने के साथ-साथ उनके सत्कर्मों व गुणों का पालन नहीं कर पा रहे?
क्या लालच ने हमको इतना घेर लिया है कि आज हमें अपने धर्म के मलिन होने की भी चिंता नहीं है?
हमें अपनी इस विवशता को किनारे कर,
अपने धर्म की पहले सोच कर फिर से वही आचरण अपनाना होगा जो हमारे पूर्वजों ने अपनाया था।
अन्यथा सनातन धर्म पर हमेशा से प्रहार होते आए हैं और होते रहेंगे। यह तभी रुक सकेंगे जब हम अपनी आदत सुधार लेंगे। अपनी सभ्यता,
अपनी संस्कृति की रक्षा स्वयं करेंगे।
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