जब मर्यादाओं को भंग किया जाता है तभी विनाश की सृष्टि हम उत्पन्न करते हैं... और वही आज हम कर रहे हैं।
पति पत्नी का संभोग एक मर्यादित क्रिया होनी चाहिये न कि उच्छृंखल...
ऋषि कश्यप, संध्या में यज्ञ शाला में अग्निहोत्र कर रहे थे। उनकी पत्नी “दिति” यज्ञशाला में पहुँचकर ऋषि कश्यप से उसी समय काम क्रीड़ा करने को बोली।
कश्यप ऋषि ने समझाया कि यह संध्या काल है और यज्ञशाला का स्थान है अतः काम क्रीड़ा के लिये न तो उपयुक्त स्थान है और न ही समय अतः अभी थोड़ा संयम रखो।
दिति नहीं मानी और उसी यज्ञशाला में संध्या के समय जब शिव के गण विचरण कर रहे काम क्रीड़ा के लिये विवश कर दिया।
परिणाम क्या हुआ? हिरण्यकस्यपु और हिरण्याक्ष नामक दैत्यों का जनम...
आज जिस प्रकार हम उच्छृंखलता की ओर बढ़ रहे हैं और वह भी आधुनिकता के नाम पर तो अंततः हम स्वयम हिरण्यकस्यपु और हिरण्याक्ष जैसी संतानों को ही उत्पन्न करेंगे तथा और रसातल में जायेंगे।
सनातन हिन्दू धर्म के महान दृष्टिकोण को समझने के लिये एक कथा पढ़ें...
राम रावण का युद्ध समाप्त हो चुका था। सीता जी को पालकी, जिसमें पर्दे लगे हुये थे, में बैठाकर राजा विभीषण के सैनिक सीता जी को राम के पास ला रहे थे।
वानरों की भारी भीड़ सीता जी को देखने के लिये उत्सुक थी पर विभीषण के सैनिक उन्हें दूर हटा दे रहे थे।
श्री भगवान को पता चला…
उन्होंने कहा कि सीता को पालकी से और पालकी के पर्दे से बाहर निकालो...
सीता को पैदल आने दो और वानरों को सीता जी को देखने दो...
स्त्री हो या पुरुष उनको केवल एक पर्दे की आवश्यकता होती है “वह है आचरण का पर्दा”। यह है भगवान की वाणी। यही है सनातन का संदेश।
यदि आचरणहीन हो गये तो किसी कपड़े से शरीर को नहीं ढक सकते हो।
अतः मंदिरों तथा तीर्थयात्रा में जो उच्छृंखलता हो रही है उसे समाज रोके क्योंकि ऐसे उच्छृंखल केवल राक्षसों को पैदा करेंगे और समाज का नाश करेंगे।
नोटः इस पोस्ट में संयम और आचरण पर लिखा है अतः टिप्पणियाँ इसी संबंध में सीमित रहें।