जिस ज्ञान की प्राप्ति के बाद मोह उत्पन्न न हो दुखों का शमन हो जाए तथा परब्रह्म अर्थात् स्वयं के स्वरूप की अनुभूति हो जाए ऐसा ज्ञान गुरु कृपा से ही प्राप्त हो सकता है।
आदिगुरु परमेश्वर शिव ने दक्षिणामूर्ति रूप में समस्त ऋषिमुनियों को शिवज्ञान प्रदान किया था, इसकी स्मृति में गुरु पूर्णिमा महापर्व मानाया जाता है। यह उन सभी गुरुजनों को समर्पित परंपरा है, जो कर्म योग आधारित व्यक्तित्व विकास और प्रबुद्ध करने, बहुत कम अथवा बिना किसी मौद्रिक शुल्क के अपनी बुद्धिमत्ता को साझा करने के लिए तैयार हों। यह पर्व आध्यात्मिक शिक्षकों के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने के रूप में मनाया जाता है। मान्यता है कि गुरु पूर्णिमा वाले दिन वेदव्यास का जन्म हुआ था, इसलिए इस दिन व्यासजी का पूजन किया जाता है। वेदव्यास भगवान विष्णु के अवतार माने जाते हैं:
व्यासाय विष्णुरूपाय व्यासरूपाय विष्णवे। नमो वै ब्रह्मनिधये वासिष्ठाय नमो नमः।।
अर्थात व्यास विष्णु के रूप हैं तथा विष्णु ही व्यास हैं, ऐसे वशिष्ठ-मुनि के वंशज को मैं नमन करता हूं। (वशिष्ठ के पुत्र शक्ति, शक्ति के पुत्र पराशर और पराशर के पुत्र व्यास)। जीवन में अनेक गुरु आते हैं। सर्वप्रथम गुरु माता, फिर पिता गुरु होते हैं। उसके बाद विद्यालय में विद्या गुरु प्राप्त होते हैं। अध्यात्म की ओर जाने पर दीक्षा गुरु जीवन में आते हैं। दत्तात्रेय ने जीवन में २४ गुरुओं से शिक्षा प्राप्त की। उन्होंने पेड़, पौधे, पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, सबको अपना गुरु बनाया। श्रीमद्भागवत के ११वें स्कंध में गुरु दत्तात्रेय के २४ गुरुओं का विस्तार से उल्लेख है। गुरु शब्द का संस्कृत में अर्थ होता है - अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाना। गुरु किसी व्यक्ति विशेष को नहीं कहते, अपितु गुरु तत्त्व है, गुरु ज्ञान है, ज्योतिपुंज है, जो संपूर्ण चराचर जगत में व्याप्त है :
अखंडमण्डलाकारं व्याप्तं येन चराचरम्। तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः।।
भागवत महापुराण में कहा गया है कि :
चिंतामणिर्लोकसुखं सुरद्रु: स्वर्गसम्पदम्। प्रयच्छति गुरु: प्रीतो वैकुण्ठं योगिदुर्लभम्।।
अर्थात किसी व्यक्ति को चिंतामणि मिल जाए तो स्वर्ग के सभी सुख मिल जाते हैं, पर यदि गुरु तत्व प्राप्त हो जाए तो उसे वैकुंठ प्राप्त हो जाता है, जो योगियों को भी दुर्लभ है। श्रीरामचरितमानस में कहा गया है :
गुरु बिन भव निधि तरइ न कोई। जौ बिरंचि संकर सम होई।।
अर्थात गुरु के बिना कोई भवसागर नहीं तर सकता, चाहे वह ब्रह्मा जी और शंकर जी के समान ही क्यों न हो। जिस ज्ञान की प्राप्ति के बाद मोह उत्पन्न न हो, दुखों का शमन हो जाए तथा परब्रह्म अर्थात स्वयं के स्वरूप की अनुभूति हो जाए, ऐसा ज्ञान गुरु कृपा से ही प्राप्त हो सकता है। इसीलिए कहा जाता है कि :
ध्यानमूलं गुरोर्मूर्ति: पूजामूलं गुरो: पदम्। मंत्रमूलं गुरोर्वाक्यं मोक्षमूलं गुरो: कृपा।।
चैतन्यं शाश्वतं शान्तं व्योमयतीतं निरञ्जनम्। नादबिन्दुकलातीतं तस्मै श्री गुरवे नमः।।
यद्यपि भगवान श्रीराम तथा भगवान श्रीकृष्ण पूर्णब्रह्म तथा 'गुरूणां गुरु:' हैं, तथापि जब वह धराधाम पर आए तो उन्होंने भी गुरु तत्व के रूप में विश्वामित्र, वशिष्ठ जी महर्षि सांदीपनि मुनि जैसे आदि ब्रह्मनिष्ठ संतों की शरण में जाकर मानव मात्र को सद्गुरुदेव भगवान की महिमा का संदेश प्रदान किया। तभी तो गुरु तत्व को ब्रह्म समान कहा गया है:
गुरुर्बृह्मा गुरुर्विष्णु: गुरुर्देवो महेश्वर:। गुरु: साक्षात् परब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः।।
चराचर जगत में दो प्रकार की विद्याएं हैं-परा विद्या और अपरा विद्या। इन्हें ही उपनिषदों में श्रेय तथा प्रेय के नाम से जानते हैं। जो परा-अपरा विद्या का ज्ञान कराकर शिष्य को मोक्ष प्राप्त करा दे, ऐसा महान गुरु दुर्लभ है। कहा भी गया है :
दुर्लभो विषयत्यागो दुर्लभं तत्त्वदर्शनम्। दुर्लभा सहजावस्था, सद्गुरो: करुणां बिना।।
यह दुर्लभ सहज अवस्था गुरु तत्व की कृपा के बिना नहीं मिलती। गुरुपूजा ही सार्वभौम महापूजा है, ऐसा गुरु गीता कहती है :
गुरूरेव जगत्सर्वं ब्रह्माविष्णुशिवात्मकम्। गुरो: परतरं नास्ति, तस्मात्संपूजयेद् गुरुम्।।
महान ऋषि कृष्ण द्वैपायन श्री वेदव्यास की स्मारिका रूपी इस आषाढ़ी पूर्णिमा पर ब्रह्मसूत्रादि का पारायण करने की परंपरा है। महर्षि वेदव्यास ने चारों वेदों का संपादन किया, अष्टादश पुराण, उपपुराणादि सहित लक्षश्लोकात्मक विश्व के महान ज्ञान से परिचित कराया। संपूर्ण विश्व मे जो भी पारमार्थिक ज्ञान राशि प्राप्त होती है, वह सभी भगवान व्यास द्वारा पूर्व में ग्रंथ स्वरूप में लिखित है। गुरु पूर्णिमा पर्व पर प्रकृति जल वर्षण से अपने अंदर नूतनत्व का आधान करना प्रारंभ करती है। इससे हम सभी को संदेश लेना चाहिए की सांसारिक प्रपंचों का त्याग कर इस महापर्व पर गुरु शरणागति प्राप्त कर अपने अंदर अध्यात्म साधना रूप नवीन गुरु द्वारा प्रदत्त मंत्र रूपी बीज को पल्लवित पुष्पित करना चाहिए।
. जय गुरुदेव