भारत माता के वीर सपूत महान स्वतंत्रता सेनानी चंद्रशेखर आजाद जन्म जयंती पर कोटि कोटि नमन
आज हम जिस स्वतंत्रत भारत में सांस ले रहे हैं वह असंख्य देशभक्तों की देशभक्ति और त्याग की वेदी से सजी हुई है। ये दुर्भाग्यपूर्ण है कि भारत आज जहाँ भ्रष्टाचारियों से भरा हुआ नजर आता है वहीं एक समय ऐसा भी था जब देश का बच्चा-बच्चा देशभक्ति के गाने गाता था। भारत में ऐसे अनगिनत देशभक्त ऐसे थे, जिन्होंने बहुत कम समय मे ही देश के लिए अतुलनीय त्याग और बलिदान देकर अपना नाम स्वर्णिम अक्षरों में में अंकित करवाया। इन्हीं महान देशभक्तों में से एक थे चन्द्रशेखर आजाद जिन्होंने अंग्रेज़ों के नाक में दम कर था। तो आइए संक्षेप में पढ़ते हैं स्वाधीनता संग्राम के वीर 'चन्द्रशेखर आज़ाद' के बारे में।
● चन्द्रशेखर आज़ाद कौन थे!
चन्द्रशेखर आजाद का जन्म 23 जुलाई,1906 को उत्तर प्रदेश के जिला उन्नाव के बदरका (अपभ्रंश भाबरा) नामक गाँव में ईमानदार और स्वाभिमानी प्रवृति के पंडित सीताराम तिवारी के घर श्रीमती जगरानी देवी की कोख से हुआ था। बचपन में उनका नाम चंद्रशेखर तिवारी था।
बालक चंद्रशेखर का प्रारम्भिक जीवन आदिवासी बाहुल्य क्षेत्र में स्थित भाबरा गाँव में बीता अतएव बचपन में आजाद ने भील बालकों के साथ खूब धनुष-बाण चलाये। इस प्रकार उन्होंने निशानेबाजी बचपन में ही सीख ली थी। उस समय की घटनाओं ने बालक चंद्रशेखर के मन पर गहरा प्रभाव डाला था, अब उनका मन देश को आज़ाद कराने के अहिंसात्मक उपायों से हटकर सशस्त्र क्रान्ति की ओर मुड़ गया। उस समय बनारस क्रान्तिकारियों का गढ़ हुआ करता था। इस बीच वह मन्मथनाथ गुप्त और प्रणवेश चटर्जी के सम्पर्क में आये और क्रान्तिकारी दल के सदस्य बन गये। क्रान्तिकारियों का वह दल "हिन्दुस्तान प्रजातन्त्र संघ" के नाम से जाना जाता था।
● ऐसे जुड़ गया नाम आज़ाद
1919 में हुए अमृतसर के जलियांवाला बाग नरसंहार ने देश के नवयुवकों को उद्वेलित कर दिया। चन्द्रशेखर भी उनमें से एक थे, जो कि उस समय पढाई कर रहे थे। जब सन् 1920 में असहयोग आन्दोलन का फरमान जारी किया तो वह आग युवाओं के जोश के कारण ज्वालामुखी बनकर फट पड़ी और तमाम अन्य छात्रों की भाँति चन्द्रशेखर भी सड़कों पर उतर आये। अपने विद्यालय के छात्रों के जत्थे के साथ इस आन्दोलन में भाग लेने पर वे पहली बार गिरफ़्तार हुए और उन्हें 15 बेतों की सज़ा मिली। "इस घटना का उल्लेख भारत के प्रथम प्रधानमंत्री ने अपने लेख में कायदे तोड़ने वाले लड़के के रूप में किया है।" उन्होंने लिखा है कि कायदे (कानून) तोड़ने के लिये एक छोटे से लड़के को जिसकी उम्र १४ या १५ साल की थी और जो अपने को आज़ाद कहता था, बेंत की सजा दी गयी। उसके कपड़े निकलवाये गए और बेंत की टिकटी से बाँध दिया गया। जैसे-जैसे बेंत उस पर पड़ते थे, उसकी चमड़ी उधेड़ डालते थे। लेकिन वह बालक हर चोट पर 'भारत माता की जय' चिल्लाता था। हर बेंत के साथ वह लड़का तब तक यही नारा लगाता रहा, जब तक वह बेहोश न हो गया। बाद में वही लड़का उत्तर भारत के क्रान्तिकारी कार्यों के दल का एक बड़ा नेता बना और चंद्रशेखर आजाद के नाम से जाना जाने लगा। इतिहासकार जी.सी.सेन लिखते हैं कि जब 14-15 वर्ष के बालक आज़ाद को जज के समक्ष पेश किया गया और उनसे उनका परिचय मांगा गया। तो उन्होंने बड़े गर्व से कहा - मेरा नाम 'आजाद' है, मेरे पिता का नाम 'स्वतंत्रता, और मेरा निवास स्थान जेल है। इस पर जज कुढ़ गया और उन्हें 15 कोड़ों की सजा दी गई।
● काकोरी कांड से जनक्रांति तक
रामप्रसाद बिस्मिल के नेतृत्व में आजाद ने काकोरी षड्यंत्र (1925) में सक्रिय भाग लिया था। आजाद और उनके 10 क्रांतिकारियों ने काकोरी में ट्रेन लूटी जिसमें फिरंगियों का पैसा जा रहा था। सारे पैसे अंग्रेज सिपाहियों के कंधे पर गन तानकर लोहे के बक्से से निकाल लिया,और वहां से निकल लिए। जो पैसे आज़ाद और उनके साथियों ने लूटे थे वो बहुत थे और सबसे बड़ी बात अंग्रेजी हुकूमत के थे। इसके बाद अंग्रेज उन पैसों के लिए खून देने और लेने दोनों पर उतारू हो गए थे। जिन लोगों ने ट्रेन को लूटा था उनको गोरे सिपाहियों ने खोज-खोज कर मारना शुरू किया। अज़ाद के 5 सहयोगी उनकी पकड़ में आ गए औऱ गोरों ने उन्हें मौत के घाट उतार दिया। लेकिन आजाद भेस बदलने में माहिर थे अतः वो एक बार फिर से अंग्रेजों की आँखों में धूल झोंककर बच निकले। नंगे पैर विंध्या के जंगलों और पहाड़ों के दुष्कर रास्ते से होते हुए वो जा पहुंचे कानपुर। जहां उन्होंने एक नई क्रांति की शुरुआत की। उनके साथ इस क्रांति में शहीद भगत सिंह भी शामिल थे।
17 दिसंबर,1928 को चंद्रशेखर आजाद,भगत सिंह और राजगुरु ने शाम के समय लाहौर में पुलिस अधीक्षक के दफ्तर को घेर लिया और ज्यों ही जे.पी. साण्डर्स अपने अंगरक्षक के साथ मोटर साइकिल पर बैठकर निकले तो राजगुरु ने पहली गोली दाग दी, जो साण्डर्स के माथे पर लग गई वह मोटरसाइकिल से नीचे गिर पड़ा। फिर भगत सिंह ने आगे बढ़कर 4-6 गोलियां दाग कर उसे बिल्कुल ठंडा कर दिया। जब साण्डर्स के अंगरक्षक ने उनका पीछा किया, तो चंद्रशेखर आजाद ने अपनी गोली से उसे भी समाप्त कर दिया। इतना ना ही नहीं लाहौर में जगह-जगह परचे चिपका दिए गए, जिन पर लिखा था- लाला लाजपतराय की मृत्यु का बदला ले लिया गया है। चंद्रशेखर आजाद और उनके साथियों के द्वारा उठाए गए इस कदम को समस्त भारत के क्रांतिकारियों खूब सराहा गया। इसके बाद अनेकों युवा उनके संगठन से जुड़ते चले गए, जिसने देश में कुछ समय के लिए स्वतंत्रता आंदोलन को एक नई दिशा दे दी थी।
● चन्द्रशेखर आजाद का अंतिम क्षण
चंद्रशेखर आजाद ने देश की स्वतंत्रता के लिए भगत सिंह के साथ मिलकर अंग्रेजों को नाकों चने चबवा दिए थे। जैसा उनका नाम था वैसा ही था उनका काम। इतिहासकार कहते हैं कि चन्द्रशेखर ने अपने नाम के आगे आजाद लगाया था साथ ही ये प्रण भी लिया था कि वो आज़ाद ही जिएंगे और और मरते दम तक आजाद ही रहेंगे। 27 फरवरी 1931 के दिन इलाहाबाद के अल्फ्रेड बाग में उनके होने की सूचना मिलने पर ब्रिटिश पुलिस ने उन्हें और उनके सहकर्मियों को चारों तरफ से घेर लिया था। अपने साथियों सहित स्वयं का बचाव करते हुए आजाद ने कई पुलिसकर्मियों पर गोलियां चलाईं। लेकिन वो ज्यादा देर अंग्रेज़ों का सामना नहीं कर सके और जब तक उनकी पिस्तौल में अंतिम गोली बची तब तक वो स्वयं भी पूरी तरह से घायल हो चुके थे। बचने का कोई रास्ता न दिखा तो ब्रिटिशों के हाथ लगने से पहले ही आजाद ने बची हुई अन्तिम गोली खुद पर चला ली और मातृभूमि के लिए अपने प्राण न्योछावर कर दिए। चंद्रशेखर आजाद की उस पिस्तौल को आज भी इलाहाबाद म्यूजियम में देखा जा सकता है।
टिप्पणी : मुखबिरी के कारण ही अंग्रेजों को चंद्रशेखर आजाद के बारे में पता चल पाया। अगर अपनों ने मुखबिरी नहीं की होती तो सम्भवतः चंद्रशेखर आजाद उस दिन अंग्रेज़ों द्वारा घेर नहीं लिए गए होते। कुछ इतिहासकारों ने लिखा है कि भारत के प्रथम प्रधानमंत्री ने ही अंग्रेजों को अल्फ्रेड पार्क में चंद्रशेखर आजाद के छिपे होने की जानकारी दी थी। यहाँ तक कि चंद्रशेखर आजाद के भतीजे सुजीत आज़ाद ने भी मौत के पीछे प्रथम प्रधानमंत्री को जिम्मेदार ठहराया है। ये बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण है कि चंद्रशेखर आजाद के बारे में ज्यादा कुछ हमें बताया नहीं गया है, जबकि रेडीमेड स्वतंत्रता नायकों से इतिहास की किताबें भरी हुई हैं। लेकिन ये कहना गलत नहीं है कि शेर-ए-हिंदुस्तान, चंद्रशेखर आजाद सही मायनों स्वतंत्रता वीर थे जो अपने मृत्यु के इतने वर्षों बाद भी हमें प्रेरित करते हैं एवं हमारे अंदर देश के लिए मर मिटने का अलख जगाते हैं।
बलिदानी चन्द्रशेखर आजाद की कहानी पढ़कर मन में एक अलग सी भावना जाग उठती है और मुख से बस इतना ही निकलता है -
हम तो आजादवादी जन्म लेते हैं, लेकिन परिस्थिति हमें गाँधीवादी बना देती है।
भारत माता की जय
देश के अमर बलिदानियों की जय