गायत्री न्यास किसे कहते है?
न्यास कहते हैं धारण करने को । अंग-प्रत्यंगों से गायत्री की सतोगुणी शक्ति को धारण करने, स्थापित करने,ओत-प्रोत करने के लिये न्यास किया जाता है। गायत्री के प्रत्येक शब्द का, महत्त्वपूर्ण सम्बन्ध है । जैसे सितार के अमुक भाग में, अमुक आघात के साथ उँगली का आघात लगने से अमुक ध्वनि के स्वर निकलते हैं, उसी प्रकार शरीर- वीणा को सन्ध्या से अंगुलियों के सहारे दिव्य भाव से झंकृत किया जाता है ।
ऐसा माना जाता है कि स्वभावत: अपवित्र रहने वाले शरीर से दैवी सान्निध्य ठीक प्रकार से नहीं हो सकता, इसलिये उसके प्रमुख स्थानों में दैवी पवित्रता स्थापित करके उसमें इतनी मात्रा दैवी तत्त्वों की स्थापित कर ली जाती है कि वह दैवी साधना का अधिकारी बन जाए।
न्यास के लिये भिन्न-भिन्न उपासना विधियों में अलग-अलग विधान हैं कि किन उँगलियों को काम में लाया जाए।गायत्री की ब्रह्म सन्ध्या में अँगूठा और अनामिका उँगली का प्रयोग प्रयोजनीय ठहराया गया है। अँगूठा और अनामिका उँगली को मिलाकर विभिन्न अंगों का स्पर्श इस भावना से करना चाहिये कि मेरे यह अंग गायत्री शक्ति से पवित्र तथा बलवान् हो रहे हैं। अंग स्पर्श के समय निम्न प्रकार मन्त्रोच्चार करना चाहिये ।
ॐ भूर्भुवः स्वः - - मूर्धायै
तत्सवितुः — नेत्राभ्यां |
वरेण्यं– कर्णाभ्यां
भर्गो– सूचना
देवस्य कण्ठाय
धीमहि --- हृदयाय
धियो यो नः- नाभ्यै
प्रचोदयात्— हस्तपादाभ्यां
यह सात अंग शरीर ब्रह्माण्ड के सात लोक हैं अथवा यों कहिये कि आत्मारूपी सविता के सात वाहन अश्व हैं। शरीर सप्ताह के सात दिन हैं। यों साधारणत: दस इन्द्रियाँ मानी जाती हैं, पर गायत्री योग के अन्तर्गत सात इन्द्रियाँ मानी गयी हैं
१. मूर्धा, (मस्तिष्क, मन )
२. नेत्र,
३. कर्ण,
४. वाणी और रसना,
५. हृदय, अन्तःकरण,
६. नाभि, जननेन्द्रिय,
७. कर्मेन्द्रिय (हाथ-पैर)
इन सातों में अपवित्रता न रहे, इनके द्वारा कुमार्ग को न अपनाया जाए, अविवेकपूर्ण आचरण न हो, इस प्रतिरोध के लिये न्यास किया जाता है। इन सात अंगों में भगवती की सात शक्तियाँ निवास करती हैं।
संदर्भ : गायत्री और साधना (गुजराती बूक अनुवाद)