. #शुभ_रात्रि
रामतापनीयोपनिषद में सीता को जगद की आनन्द दायिनी, सृष्टि, के उत्पत्ति, स्थिति तथा संहार की अधिष्ठात्री कहा गया है
श्रीराम सांनिध्यवशां-ज्जगदानन्ददायिनी। उत्पत्ति स्थिति संहारकारिणीं सर्वदेहिनम् //-3/3)
वाल्मीकि रामायण के अनुसार वह राम से सात वर्ष छोटी थी।
ममभत्र्ता महातेजा वयसापंचविंशक:। अष्टादशा हि वर्षाणि मम जन्मति गण्यते॥ 3/47/10-1)
सीता की जयंती वैशाख शुक्ल नवमी को मनायी जाती है किंतु भारत के कुछ भाग में इसे फाल्गुन कृष्ण अष्टमी को मनाते हैं, रामायण के अनुसार वह वैशाख में अवतरित हुईं किन्तु 'निर्णय सिन्धु' के कल्पतरु ग्रंथानुसार फाल्गुन कृष्ण अष्टमी को अत: दोनों ही तिथियां उनकी जयंती हेतु मान्य हैं :
मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम तथा माता जानकी के अनन्य भक्त तुलसीदास जी न रामचरितमानस के बालकांड के प्रारंभिक श्लोक में सीता जी ब्रह्म की तीन क्रियाओं उद्भव, स्थिति, संहार— की संचालिका तथा आद्याशक्ति कहकर उनकी वंदना की है : '
उद्भव स्थिति संहारकारिणीं हारिणीम्। सर्वश्रेयस्करीं सीतां नतोऽहं रामबल्लभाम्॥ (1-1-5)
इस तरह सीता न केवल ब्रह्म की इन तीन क्रियाओं की कारण रूपा ही हैं अपितु वह तो जीव की इनके क्लेशों से रक्षा भी करती हैं।
उद्भव स्थिति, संहार (प्रलय) की स्थितियां ऐसी हैं जो प्रत्यक्ष रूप में किसी अंश तक सुरक्षात्मक होकर भी पीड़ा, क्लेश-कष्ट की हेतु भी हैं। जन्म लेना (उद्भव, उत्पत्ति) कष्टकारक है कितनी अनजानी पीड़ा भोग कर मां के गर्भ में नौ माह रहकर जीव जन्मता है एवं उस कष्ट की कल्पना भी पीड़ा दायक है।
इसी प्रकार स्थिति (पल्लवन) अर्थात जीव का संपूर्ण जीवन भी क्लेश कारक है जिसमें वह जरा, व्याधि सहित अनेक विकारों— काम, क्रोध, मोह, लोभ, मद, मत्सर, माया, अहंकार आदि से ग्रस्त रहकर छटपटाता है। भले ही उसे जीवन सुखद प्रतीत हो किन्तु वह सुख की अपेक्षा दु:ख पीड़ा ही कहीं अधिक भोगता है। अत्तिम गति, संहार (मृत्यु) की कल्पना भी भयावह होती है जिसकी स्मृति मात्र से ही जीव कांपने लगता है। मृत्यु धु्रव सत्य है किन्तु कोई इसे सहज स्वीकारना नहीं चाहता। इन्हीं कष्टपूर्ण कारणों से जीवन का चरम लक्ष्य मोक्ष या मुक्ति को माना गया है।
रामचरितमानस में सीता के इन तीनों रूपों के दर्शन होते हैं। बालकांड में उनके उद्भव रूप के दर्शन मिलते हैं, उनके विवाह तक संपूर्ण आकर्षण, सारी क्रियाएं सीता में समाविष्ट हैं जहां उनका ऐश्वर्य रूप प्रदर्शित होता है। अयोध्या कांड से अरण्यकांड तक वह स्थितिकारिणी, करुणा की मूर्ति, क्षमा स्वरूपा हैं यहां तक कि जब जयंत उनके पांव पर चोट पहुंचाता है फिर भी वह उन्हें क्षमा कर देती हैं। लंकाकांड में आकर वह संहारकारिणी रूप में प्रकट होती हैं। यहां वह कालरात्रि बन जाती हैं तथा उचित अवसर आने पर रावण के संपूर्ण वंश के संहार की कारण बनती हैं।
इसमें संदेह नहीं है कि ब्रह्मा, विष्णु, महेश क्रमश: उद्भव स्थिति एवं संहार के सूत्रधार हैं किन्तु वे मात्र इतनी क्षमता रखते हैं कि वे इस त्रिआयामी सृष्टि का स्वरूप प्रकट कर सकते हैं परंतु इस क्षमता को वह शक्ति से ही प्राप्त करते हैं। आदि शंकराचार्य ने इसको 'आनंद लहरी' में स्पष्ट किया है जहां वह कहते हैं कि शक्ति के अभाव में ब्रह्म भी शव की भांति निस्पंद, निष्क्रिय रहते हैं।
मां सीता की यह विशेष कृपा है कि वह इन तीनों कारकों की मूल शक्ति होने के साथ क्लेश हारिणी रूप में, श्रीराम की प्राणवल्लभा के रूप में अवतरित हुईं। उल्लेखनीय है कि मां जानकी यदि कष्टकरी उद्भव की हेतु हैं तो वह जीव को सहज बनाने को भी उद्यत रहती हैं, स्थितिकारिणी के रूप में वह जीवन को सुखमय बनाने को तत्पर रहती हैं, संहारकारक होकर भी वह इस वेदना को हरण करने की क्षमता वाली हैं, क्योंकि वह जगदजननी हैं, आद्या शक्ति हैं और मां होने के नाते वह पुत्र को कष्ट में नहीं देख सकती है
सीतोपनिषद में सीता मां को मूल प्रकृति, शाश्वत, सनातन, त्रिदेवों की भी देवी आद्याशक्ति कहा गया है जो सदैव विष्णु के सान्निध्य में रहती हैं :- '
मूल प्रकृति रूपत्वात् सा सीता प्रकृति: स्मृता। प्रणव प्रकृति रूपात्वात् सा सीता प्रकृति रुच्यते॥ सीता इति त्रिवर्णात्मां साक्षान्मायामया भवेत्। विष्णु: प्रपञ्च बीजं च माया, ई'कार उच्यते॥'
महारामायण में कुल 33 शक्तियों का उल्लेख है जिनमें सीता को आद्या शक्ति कहा गया है। 'सीता' शब्द गूढ़ार्थ समेटे हुए है। इसकी व्युत्पत्ति करने पर सीता शब्द के अनेक अर्थ, जो विशिष्ट महत्व वाले हैं, किए गए हैं। व्युत्पत्ति के आधार पर सीता— जगत की उत्पत्तिकर्ता (सूयते), ऐश्वर्ययुक्त (सवति), संहारकर्ता (स्यति), सद्प्रेरक (सुवति) वशकारिणी (सिनोति) सर्वत्र गामिनी (श्यायते)— हैं, इसी तरह आर्ष ग्रंथों में सीता के अनेक नाम भी मिलते हैं:- मातुलृंगी (फलोत्पन्न), सीता (हल के फल से उत्पन्न), अग्नि गर्भा (अग्निवासिनी), रत्नावली (रत्न में वास करने वाली), धरणिजा/भूमिजा/भूमिसुता/भूसुता (पृथ्वी से उत्पन्न), अयोनिजा (अमानवीय उत्पत्ति), पद्मा (पद्मास सुता), मैथिली (मिथिलावासिनी), जानकी/वैदेही (जनक द्वारा पालित), रामबल्लभा (राम की पत्नी)। अध्यात्म रामायण, आनंद रामायण आदि में सीता समस्त कार्यों की संचालिका, आद्याशक्ति, मूल प्रकृति, जगतरक्षिका, सृष्टि की उद्पत्ति, पालक, संहार की अधिष्ठात्री, राम की सान्निध्य, योगमाया, सर्वशक्तिमान कही गयी हैं। इस तरह माता सीता नित्यवन्दनीय हैं और उपासक उनकी वंदना करते हुए कहता है— ''सीतोत्थतिगुणै: कान्तं सीयते तद्गुणैस्तु या। माधुर्यादि गुणै: पूर्णां तां सीतां प्रणाम्यहम्॥''
. *🚩जय सियाराम 🚩*