2. पीठ के बल लेटना
पीठ के बल सोने से देह में स्थित कुंडलिनी शक्ति का वहन असंतुलित होता है, अर्थात कभी रुकता है, तो कभी गति बढ भी जाता है ।
अ. पीठ पर (उत्तान) लेटने से मूलाधार चक्र पर दबाव आकर शरीर में वासना से संबंधित अधोगामी प्रवाहित वायु कार्यमान होने से मांत्रिकों के लिए पाताल से बडी मात्रा में आक्रमण करना संभव होना : उत्तान मुद्रा में सोने से देह की कोशिकाओं की चेतना अप्रकट और निद्रित अवस्था में चली जाती है एवं देह अधिकाधिक मात्रा में पाताल से संलग्न रहने से देह की कोशिकाएं पाताल से आनेवाले कष्टदायी स्पंदनों को लौटाने में अयशस्वी सिद्ध होते हैं । सीधे लेटने से मूलाधार चक्र पर दबाव पडता है तथा शरीर में वासना से संबंधित अधोगामी प्रवाहित वायु कार्यमान होती हैं । फलस्वरूप मांत्रिकों के लिए पाताल से बडी मात्रा में आक्रमण करना संभव होता है । अधोगामी वायुओं के प्रवाह के कारण शरीर के उपप्राणों के प्रवाह को गति प्राप्त होती है तथा जीव की देह में काली शक्ति का प्रक्षेपण करना मांत्रिकों के लिए सहज संभव होता है । ऐसे में उनके द्वारा आक्रमणों की मात्रा बढती है ।
आ. ५५ प्रतिशत से अल्प आध्यात्मिक स्तर के जीव को पीठ के बल (सीधे) सोने से पाताल के कष्टदायी स्पंदनों से पीडा की आशंका होना : व्यक्ति का आध्यात्मिक स्तर ५५ प्रतिशत से अल्प हो, तो व्यक्ति में भाव की अपेक्षा भावनाओं की मात्रा अधिक होती है । इन भावनाओं के उतार-चढाव के अनुसार व्यक्ति की दार्इं एवं बार्इं नाडियों में विद्यमान ऊर्जात्मक प्रवाहों का संतुलन अनियमित होता है । इस कारण पीठ के बल सोने के पश्चात संपूर्ण देह में एकसमान पद्धति से शक्तिसंचय नहीं होता । यही कारण है कि इस जीव को पाताल के कष्टदायी स्पंदनों से कष्ट की आशंका रहती है । दो नाडियों में विद्यमान प्रवाहों की अनियमितता देह में रज-तमात्मक तरंगों का संक्रमण कर सकती है । अतः यथासंभव जब तक साधना द्वारा अव्यक्त भाव के स्तर पर नाडियों में विद्यमान ऊर्जात्मक प्रवाहों के वहन को नियंत्रित नहीं कर सकते, तब तक (भूमि से संलग्नता दर्शाकर) पीठ के बल सोना हानिकारक है । ऐसे में सतर्क रहकर विविध आध्यात्मिक उपायों की सहायता से पीठ पर सोना सुखदायक हो सकता है ।
इ. पीठ पर सोने से ५५ प्रतिशत से अधिक आध्यात्मिक स्तर के जीव की सुषुम्ना नाडी कार्यरत होना : पीठ पर सोने से ५५ प्रतिशत से अधिक आध्यात्मिक स्तर के जीव की सुषुम्ना नाडी कार्यरत होती है । ५५ प्रतिशत से अधिक स्तर हो, तब अव्यक्त भाव के स्तर पर देह के रज-तमात्मक वहन पर आवश्यकतानुसार उचित नियंत्रण रहता है; क्योंकि अव्यक्त भाव में आत्मिक ऊर्जा के स्तर पर कार्य करने की मात्रा बढती है । आत्मिक ऊर्जा सूर्य एवं चंद्र अथवा दोनों नाडियों के स्रोत में एकात्मकता साधकर उनमें उचित संतुलन बनाए रखती है । फलस्वरूप जीव की देह में आत्मबल वृद्धिंगत होता है । ऐसे में व्यक्ति द्वारा पीठ के बल सोने से उचित एवं समान पद्धति से षट्चक्रों पर दबाव पडता है एवं सभी चक्र जागृत होते हैं । ये जागृत चक्र सुषुम्ना नाडी के प्रवाह को जागृत कर उसका उचित नियमन करते हैं ।
र्इ. पीठके बल सोनेसे देहमें स्थित कुंडलिनी शक्तिका वहन असंतुलित होता है, अर्थात कभी रुकता है, तो कभी गति बढ भी जाता है ।’