गायत्री यज्ञोपवीत क्या है?
यज्ञोपवीत को "ब्रह्मसूत्र " भी कहा जा सकता है। सूत्र डोरे को भी कहते हैं और उस संक्षिप्त शब्द-रचना को जिसका अर्थ बहुत विस्तृत होता है। व्याकरण, दर्शन, धर्म, कर्मकाण्ड आदि के अनेकों ग्रन्थ हैं।ब्रह्मसूत्र में यद्यपि अक्षर नहीं हैं, तो भी संकेतों से बहुत कुछ बताया गया है। मूर्तियाँ, चिह्न, चित्र, अवशेष आदि के आधार पर बड़ी-बड़ी महत्त्वपूर्ण जानकारियाँ प्राप्त होती हैं। यद्यपि इनमें अक्षर नहीं होते, तो भी बहुत कुछ प्रकट हो जाता है ।
गायत्री को गुरु मन्त्र कहा जाता है। यज्ञोपवीत धारण करते समय जो वेदारंभ कराया जाता है, वह गायत्री से कराया जाता है। प्रत्येक द्विज को गायत्री जानना उसी प्रकार अनिवार्य है, जैसे कि यज्ञोपवीत धारण करना । यह गायत्री यज्ञोपवीत का जोड़ा ऐसा ही है, जैसा लक्ष्मी-नारायण,सीताराम, राधेश्याम, प्रकृति- ब्रह्म, गौरीशंकर, नर-मादा का जोड़ा है। दोनों की सम्मिलित व्यवस्था का नाम ही गृहस्थ है, वैसे ही गायत्री - उपवीत का सम्मिलन ही द्विजत्व है । उपवीत सूत्र है, तो गायत्री उसकी व्याख्या है। दोनों की आत्मा एक-दूसरे के साथ जुड़ी हुई है ।
यज्ञोपवीत में तीन तार हैं, गायत्री में तीन चरण हैं। 'तत्सवितुर्वरेण्यं' प्रथम चरण, 'भर्गोदेवस्य धीमहि' द्वितीय चरण, 'धियो यो नः प्रचोदयात्' तृतीय चरण है।
उपवीत में तीन प्रकार की ग्रन्थियाँ और एक ब्रह्म ग्रन्थि होती हैं। गायत्री में तीन व्याहृतियाँ (भूः भुवः स्वः) और एक प्रणव (ॐ) है ।
गायत्री के आरम्भ में ओंकार और भूः भुवः स्वः का जो तात्पर्य है, उसी ओर यज्ञोपवीत की तीन ग्रन्थियाँ संकेत करती हैं। उन्हें समझने वाला जान सकता है कि यह चार गाँठें मनुष्य जाति के लिये क्या-क्या संदेश देती हैं।
इस महाविज्ञान को सरलतापूर्वक हृदयंगम करने के कारण इसे चार भागों में विभक्त कर सकते हैं। 1 -प्रणव तथा त्रो व्याहृतियाँ अर्थात् यज्ञोपवीत की चारों ग्रन्थियाँ 2 – गायत्री का प्रथम चरण अर्थात् यज्ञोपवीत की प्रथम लड़ती, 3 – द्वितीय चरण द्वितीय लड़ती 4 – तृतीय चरण अर्थात् तृतीय लड़ती। आइए अब इन पर विचार करें।
१.प्रणव का संदेश यह है — “परमात्मा सर्वत्र समस्त प्राणियों में समाया हुआ है, इसलिये लोक सेवा के लिये निष्काम भाव से कर्म करना चाहिये और अपने मन को स्थिर तथा शान्त रखना चाहिए। "
२.भूः का तत्त्वज्ञान यह है - "शरीर अस्थायी औजार मात्र है, इसलिये उस पर अत्यधिक आसक्त न होकर आत्मबल बढ़ाने का श्रेष्ठ मार्ग का,सत्कर्मों का आश्रय ग्रहण करना चाहिये।
३. भुवः का तात्पर्य है — “पापों के विरुद्ध रहने वाला मनुष्य देवत्व को प्राप्त करता है। जो पवित्र आदर्शों और साधनों को अपनाता है, वही बुद्धिमान् है। "
४.स्व: की प्रतिध्वनि यह है — “विवेक द्वारा शुद्ध बुद्धि से सत्य जानने, संयम और त्याग की नीति का आचरण करने के लिये अपने को तथा दूसरों को प्रेरणा देनी चाहिये।
यह चतुर्मुख नीति यज्ञोपवीतधारी की होती है।इन सबका सारांश यह है कि उचित मार्ग से अपनी शक्तियों को बढ़ाओ और अन्तःकरण को उदार रखते हुए अपनी शक्तियों का अधिकांश भाग जनहित के लिये लगाये रहो
🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩
प्रशासक समिति धर्म जागरण किट :
https://www.prashasaksamiti.com/p/vission.html