क्या काबा में रखा काला पत्थर एक शिवलिंग है?
एक विश्लेषण
शिवोपासना न केवल भारतवर्ष में अपितु भारतेतर देशों में अति प्राचीन काल से प्रचलित रही है। दुनिया के कोने-कोने में विद्यमान शिवलिंग इस बात के उदाहरण हैं।
इस्लाम में सर्वाधिक पूजनीय स्थल ‘काबा’ भी इस्लाम से पहले समय का शिवमन्दिर ही है जिसकी घनाकार इमारत के ईशान कोण (उत्तर-पूर्व)में शिवलिंग ही स्थापित है जिसे अरबी में ‘अल्-हज़र-अल्-अस्वद’और फ़ारसी में ‘संग-ए-अस्वद’ अथवा ‘काला पत्थर’ कहा जाता है।
‘संग’ का अर्थ है पत्थर और ‘अस्वद’ का अर्थ है अश्वेत (काला)। उल्लेखनीय है कि वैदिक परम्परानुसार शिव की स्थापना ईशान कोण में ही की जाती है। यदि मुसलमान अपने सबसे पूजनीय काले पत्थर का हिंदुत्व से कोई सम्बन्ध नहीं मानते हैं, तो इसे काबा के ईशान कोण में ही क्यों स्थापित किया गया? क्योंकि इस्लाम में तो प्रत्येक वैदिक मान्यता का विपरीत ही किया जाता है। उल्लेखनीय है कि काबा के ईशान कोण में स्थापित शिवलिंग पर 'ॐ' की आकृति भी स्पष्ट उत्कीर्ण है। यदि यह शिवलिंग नहीं है, तो इसपर 'ॐ' क्यों उत्कीर्ण है?
‘अल्-हज़र-अल्-अस्वद’, ‘काबा’ नामक इमारत के अन्तर्गत है और काबा एक विशाल मस्जिद के अन्तर्गत जिसका आधिकारिक नाम ‘अल्-मस्जिद-अल्-हरम’ है। यह मस्जिद मक्का (महाकाय) नगर के बीचोंबीच स्थापित है।
परम्परानुसार और इस्लामी ग्रंथ भी यह स्वीकार करते हैं कि 'मक्का में 360 मन्दिर थे' और बीचोंबीच महान् शिवालय था जिसके अधिपति श्रीमक्केश्वर महादेव थे।
काबा की पूर्वी बाहरी दीवार के कोने में सतह से 1.5 मीटर ऊपर 30 सेमी. (12 इंच) व्यासवाला लाल-काले रंग का यह अति प्राचीन और महान् शिवलिंग चिना हुआ है। अज्ञानतावश सोशल मीडिया पर काले पत्थर के नाम पर बहुत से भिन्न चित्र प्रदर्शित किए जाते हैं।‘अल्-हज़र-अल्-अस्वद’ (काला पत्थर) को इस्लाम में पवित्रतम वस्तु माना जाता है। दुनियाभर के मुसलमान इसी पत्थर का दर्शन करने, जितनी बार हो सके, मक्का की यात्रा करते हैं। यही कारण है कि इस्लाम में शिवलिंग को उतना बुरा या अस्पृश्य नहीं मानते जितना अन्य मूर्तियों को मानते हैं।
क्योंकि शिव तो असुरों के लिए भी पूजनीय हैं। एक अवधारणा ये भी है कि काबा असुरों के गुरू शुक्राचार्य का ही मंदिर है क्योंकि शुक्राचार्य को वैदिक संस्कृत में 'काव्य' कहा जाता है और काव्य का अपभ्रंश काबा हुआ है।
भविष्यमहापुराण (प्रतिसर्गपर्व, 3.3.5-27) में इसी शिवलिंग का उल्लेख आया है, जिसे राजा भोज ने पंचगव्य एवं गंगाजल से स्नान कराया था—
"नृपश्चैव महादेवं मरुस्थलनिवासिनम्। गंगाजलैश्च संस्नाप्य पंचगव्यसमन्वितैः"॥6॥
सुप्रसिद्ध यूरोपीय-लेखिका फै़नी पार्क्स (1794-1875) ने लिखा है : ‘हिंदुओं का दावा है कि काबा की दीवार में फँसा पवित्र मक्का के मन्दिर का काला पत्थर महादेव ही है। मुहम्मद ने वहाँ उसकी स्थापना तिरस्कारवश की।
काशीनाथ शास्त्री ने उल्लेख किया है— ‘मुसलमानों के तीर्थ मक्काशरीफ में भी ‘मक्केश्वर’ नामक शिवलिंग का होना शिवलीला ही कहनी पड़ेगी। वहाँ के ज़मज़म नामक कुएँ में भी एक शिवलिंग है, जिसकी पूजा खजूर की पत्तियों से होती है।’(कल्याण शिवोपासनांक), जनवरी, 1993 ई., पृ. 374, प्रकाशक: गीताप्रेस, गोरखपुर) डॉ. ता.रा. उपासनी ने भी उल्लेख किया है कि मक्का में दो शिवलिंग हैं।’ (वही, पृ. 355)
अजर-अश्वेत शिवलिंग का एक बड़ा और चौकोर खण्ड हैदराबाद स्थित ‘मक्का मस्ज़िद’ में भी लगाया गया है।
वैदिक-परम्परा है कि जहाँ कहीं भी शिव-मन्दिर हो, वहाँ जलधारा का प्रबन्ध अवश्य होगा, ताकि भक्तों को शिवलिंग पर जलाभिषेक करने में कठिनाई न हो।शिव के शीर्ष पर भी गंगा का अंकन होता है। इन्हीं सब परम्पराओं के अनुसार मक्केश्वर शिवलिंग के समीप ‘ज़मज़म’ नामक एक वापी (कुआँ) है। इसके जल को ‘आब-ए-ज़मज़म’ कहा जाता है। फ़ारसी-शब्द ‘आब’ संस्कृत के ‘आप्’ से उद्भूत है, जिसका अर्थ जल होता है।
पचास-साठ वर्ष पूर्व यह किंवदन्ति चर्चित रही थी कि यदि कोई हिंदू अपने साथ थोड़ा गंगाजल ले जाकर ज़मज़म वापी में डाल दे (अथवा मक्केश्वर शिवलिंग का अभिषेक कर दे)तो वह स्थान पुनः शिव-मन्दिर का रूप धारण कर लेगा।
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