हमने बांग्लादेश में एक हिंदू को मारकर जला दिए जाने की घटना पर पोस्ट डाली। उस पर कुछ लोग कमेंट में बोले—“बांग्लादेश के हिंदुओं से हमारा क्या लेना-देना, भारत में ही बहुत लोग हैं, उन्हीं पर ध्यान दो।”हैरानी की बात यह है कि यही लोग कुछ समय पहले गाज़ा के लिए भारत की सड़कों पर उतरकर प्रदर्शन कर रहे थे। तब न देश की सीमा याद आई, न यह सवाल उठा कि “हमारा क्या लेना-देना?”
जब मुद्दा पसंद का हो, तो इंसानियत जाग जाती है।और जब पीड़ित हिंदू हों, वो भी पड़ोसी देश में, तब दूरी का बहाना बना लिया जाता है।इंसानियत धर्म, देश और पसंद से तय होने लगे, तो उसे इंसानियत नहीं कहा जा सकता। अगर गाज़ा के बच्चों के लिए आवाज़ उठाना सही है, तो बांग्लादेश में मारे गए हिंदुओं के लिए बोलना भी उतना ही जरूरी है। दर्द अगर चुनकर देखा जाए, तो वो संवेदना नहीं, पाखंड बन जाता है।
Disclaimer: यह पोस्ट किसी धर्म, समुदाय या देश के खिलाफ नफरत फैलाने के लिए नहीं, बल्कि दोहरे मापदंड पर सवाल उठाने के उद्देश्य से लिखी गई है।

