आइए जो हमें समझ आया आपको भी समझते हैं। 8 नवम्बर 2016 को नोटबन्दी हुई, तो लगा बस काला धन खत्म करने की स्कीम है। लेकिन जब मुस्लिम लीग और सेक्युलर गिरोह ने “इटली रोना” शुरू किया तो जिज्ञासा जागी —आखिर ये है क्या... ?
नोट बंदी की खोदाई शुरू की तो समझ आया कि ये काले धन से कहीं बड़ी लड़ाई है। उसी समय अमेरिका में ट्रम्प उभर रहा था, जो टैरिफ की बात करता था, ग्लोबल सप्लाई चेन पर वार करना चाहता था।
फिर समझ आया कि वेस्ट एशिया में लड़ाई असल में डॉलर के वर्चस्व की लड़ाई है। यूरो, युआन, रूस और ब्रिक्स की चालें देखीं तो समझ आया कि अमेरिका की छटपटाहट असली है।
फिर इलुमिनाती, IMF, वर्ल्ड बैंक, सोने की भूमिका, पेट्रोडॉलर और भारत का गिरवी रखा सोना तक जाते-जाते समझ आया कि पूरी वैश्विक व्यवस्था का शिफ्ट हो रहा है
मोदी क्यों UPI लाया?
क्यों डिजिटल इंडिया, स्किल इंडिया, मेक इन इंडिया शुरू किया? क्यों 4G क्रांति लाई गई? क्यों DBT और GST जरूरी था?
अब समझ में आता है —
ये सब “डिजिटल टैरिफ वार” से पहले देश को खड़ा करने की तैयारी थी।
2014 में भारत की स्थिति भयानक थी —
फ्रेजाइल 5 में गिने जाने वाला देश, बैंकों के दिवालिया होने की नौबत, विदेशी कर्ज का बोझ, फर्जी आंकड़ों से जनता को गुमराह करने की नौबत आ गई थी।
मोदी को श्वेतपत्र लाने की सलाह दी गई थी,
लेकिन उन्होंने चुना सुधारों का रास्ता —
अघोषित दिवालिया से देश को उबारा गया।
2014 से 2019 तक का काल पूरी तरह इकोनॉमिक स्टैबिलिटी के लिए समर्पित रहा —
नोटबन्दी, GST, RERA, इंसोल्वेंसी, आधार, लीकेज रोकना, बेनामी संपत्ति पर वार, UPI, मोबाइल सस्ता, इंटरनेट क्रांति, फ्रीबिज को वेलफेयर स्कीम में तब्दील करना।
ये सब एक प्लान का हिस्सा था, न कि कोई जुगाड़।
विपक्ष को लगता था कि मोदी का आना तुक्का है। लेकिन 2019 में जब मोदी फिर आए तो विपक्ष सन्न रह गया।
फिर मोदी ने 370 हटाया, राम मंदिर का फैसला आया, CAA आया, NRC की तैयारी शुरू हो गई। लेकिन फिर CCP और ग्लोबल लॉबी एक्टिव हो गई —
दिल्ली दंगे, शाहीन बाग, कोरोना, अमेरिका में BLM — सब “प्रयोग” की तरह हुए।
ट्रम्प को हटाने का "प्रयोग" अमेरिका में सफल हुआ, वहीं भारत में भी “प्रयोग” शुरू हुआ —
ट्रम्प के दौरे से पहले दिल्ली दंगे, कोरोना का आतंक, वैक्सीन लॉबी, विदेशी मीडिया का प्रोपेगेंडा, किसान आंदोलन और सुप्रीम कोर्ट का "स्टे गेम"।
कृषि कानून को रोकना पड़ा, लेकिन साजिश समझ में आ चुकी थी — अब लड़ाई "इकोनॉमिक नेशनलिज्म" बनाम "ग्लोबल टूलकिट" की है।
इस बीच ट्रम्प को भी “सिस्टम” ने हरा दिया — सीआईए, USAID, सोरोस, क्लिंटन गिरोह सब एक्टिव थे।
ट्रम्प ने हार नहीं मानी लेकिन रबर स्टैम्प बनने से बच नहीं सके। मोदी ने भी देखा कि भारत में भी यही “सिस्टम” सक्रिय है —
रवीश कुमार, वामपंथी NDTV से लेकर अर्बन नक्सल और टूलकिट गैंग तक।
अब मोदी ने तीसरी बार आने की रणनीति तैयार की। वक्फ बोर्ड, अवैध मदरसे, तमिलनाडु-केरल जैसे भाषा व क्षेत्रवाद पर खेलने वालों पर वार शुरू हुआ।
जनगणना, NRC, डिलिमिटेशन, वक्फ कानून संशोधन —
ये सब 2026 तक की योजना का हिस्सा है।
उधर अमेरिका में ट्रम्प की वापसी की तैयारी थी और इधर मोदी तीसरी बार लौटे हैं। अब डॉलर का खेल कमजोर हो चुका है —
खाड़ी देशों ने पेट्रोडॉलर से पीछे हटना शुरू किया है, चीन फंस चुका है, रूस से युद्ध ने यूरोप की कमर तोड़ दी है।
मोदी का “आपदा में अवसर” वाला मंत्र अब रंग ला रहा है। जब दुनिया मंदी की भविष्यवाणी कर रही है, भारत तेज़ी से बढ़ रहा है। आत्मनिर्भर भारत, लोकल मैन्युफैक्चरिंग, सप्लाई चेन का शिफ्ट —
ये सब अब फल दे रहे हैं।
अमेरिका अब खुद कह रहा है कि उसे दुनिया का चौधरी नहीं बनना, अपना तेल बेचना है, अपने लोगों को रोजगार देना है, और जितना काम अपने देश में हो सके, उतना लाना है —
इसे ही “रिवर्स ग्लोबलाइजेशन” कहा जा रहा है।
और अब असली टैरिफ आने वाला है —
तेरे देश के लोग मेरे देश में काम करेंगे तो मेरे भी तेरे देश में। तेरे स्टूडेंट्स, टूरिस्ट, बिजनेस — सब बराबरी के आधार पर होंगे। यही 21वीं सदी का इकोनॉमिक मॉडल बनने जा रहा है।