यह ब्रह्मांड कुछ शाश्वत नियमों से संचालित होता है।इसे प्रकृति के नियम कहते है।इनके अपवाद नहीं होते। इन्हीं नियमों के अन्वेषण के आधार पर आधुनिक भौतिक
विज्ञान के चमत्कारिक समझे जाने वाले आविष्कारों का संसार खड़ा है। जिन कार्य,घटनाओं या प्रभाव के कारणों एवं नियमों का हमें ज्ञान होता है, वे सामान्य और तर्कसंगत
लगती हैं; पर जिन नियमों का ज्ञान हमें नहीं होता और हम उन नियमों के अन्तर्गत कुछ घटता हुआ देखते हैं, तो उन घटनाओं के कारणों का हमें ज्ञान नहीं हो पाता और हम
उन्हें चमत्कार मान लेते हैं।
तंत्र-मंत्र टोने-टोटके, गंडे-ताबीज, यंत्र और अनुष्ठान आदि में जो भी शक्ति काम करती है, वह प्रकृति के नियमों से ही करती है। यहां नियमविहीन और अकारण पत्ता
तक नहीं हिलता। उस परमात्मा की यह सृष्टि उसके द्वारा निर्धारित नियमों से बंधी हुई है।अतः यह सोचना भ्रम है कि गंडे-ताबीजों या तंत्र-मंत्र कोई चमत्कार काम करता
है।
वस्तुतः तंत्र-मंत्र, योग, पूजा-अनुष्ठान, यज्ञ, यंत्र, टोने-टोटके, गंडे-ताबीज आदि
में एक वृहद् ऊर्जा-विज्ञान काम करता है; जो ब्रह्मांडीय ऊर्जा संरचना, उसकी उत्पत्ति,क्रिया, उसकी ऊर्जा तरंगों और उनसे निर्मित होने वाली भौतिक ईकाइयों की ऊर्जा संरचना का विज्ञान है। दूसरे शब्दों में यह प्राचीन भारतीय परमाणु विज्ञान और सुपर सोनिक
तरंगों का विज्ञान है। आधुनिक युग में इस विज्ञान को जानने वाले नहीं हैं। पुस्तकों में इस विज्ञान के गूढ़ विवरण रूपकों के रूप में लिखी गयी कथाओं में छिटपुट रूप से
व्यक्त किये गये हैं। कुछ तकनीकियां पुस्तकों में रह गयी हैं; जो आधुनिक विज्ञान के द्वारा परिभाषित नहीं हो पा रही हैं, इसलिये इन्हें अंधविश्वास समझ लिया गया है।
टेलीविजन पर,सोशल मीडिया पर आप सब भी धर्म और आध्यात्म पर अनेकों डिबेट और बहस सुनते हैं---बड़ा अचरच होता है मुझे बड़े बड़े सन्तों और विशेषज्ञों को भी 'सनातन' का अर्थ नही पता है !!!!! कोई कुछ अर्थ बताता है तो कोई कुछ !!!! आज स्पष्ट रूप से आप सब भी 'सनातन' शब्द का अर्थ समझ लीजिए; सनातन धर्म का अर्थ है 'प्रकृति के शाश्वत धर्म या गुण'।सनातन धर्म का अर्थ हिंदुओं या आर्यों के कर्मकांड से सम्बंधित नही है।जब हम इसका यह अर्थ लेते हैं तो भारी भ्रम पैदा हो जाता है।क्योंकि कर्म कांड तो प्रत्येक युग मे संशोधित-परिवर्तित होते रहते हैं।सनातन धर्म के बारे में हमारे ऋषियों ने कहा है-जब भी परमात्मा मूलत्व में श्रिष्टि का भंवर उत्प्न्न होता है;तो इसकी उतपत्ति से लेकर क्रिया तक एक ही प्रकार के ऊर्जा सूत्र कार्य करते हैं।यह श्रिष्टि हजार बार बनेगी तो इन्ही नियमों से बनेगी और इस श्रिष्टि में कहीं भी कोई विकसित प्राणी उत्प्न्न होगा,तो इसी धर्म(गुण) को जानेगा;क्योंकि इसके सिवा अन्य कोई धर्म है ही नही।
मित्रों पहले भी बोल चुका हूं बार बार ! लिखने पर आ जाऊंगा तो ये प्लेटफार्म छोटा पड़ जाएगा,मैंने अपने गुरु को तंत्र से बिजली बनाते हुए देखा है,उड़नतशतरी पर वो काम कर रहे थे।और यहां तो तंत्र के नाम पर सिर्फ भ्रम भ्रम और भ्रम फैलाया जा रहा है।प्रकृति की उत्पत्ति का वैज्ञानिक सिद्धांत क्या है किसी तांत्रिक अथवा गुरु से पूछ कर देखना ! मैं दावा करता हूं उसकी खटिया खड़ी हो जाएगी,पर वो जवाब नही दे पाएगा।फिर से जाते जाते एक कटु सत्य बोल रहा हूं-जो गुरु अपने शिष्य को भीतर से तृप्त न कर पाए ! अपने शिष्य के सन्देहों को तोड़ न पाए ! ऐसे गुरुओं को स्वयं दीक्षा ले कर किसी योग्य गुरु के सानिध्य में अभ्यास करना चाहिए।शिव-शक्ति को समझना कोई मजाक है क्या ! ये कांसेप्ट समझ मे आ गया तो फिर बचता क्या है !
एक और महत्वपूर्ण बात जाते जाते समझ लीजिए-जिसका भी आज्ञा चक्र डिस्टर्ब अथवा कमजोर होगा वो जीवन के किसी भी क्षेत्र में उन्नति नही कर पाएगा-चाहें साधना हो,शिक्षा हो,समाजिक जीवन हो या फिर परिवारिक,ऐसे व्यक्ति भ्रमित जीवन जीते जीते एक दिन अंत को प्राप्त हो जाते हैं।भैरवी चक्र साधना,लिंग योनि पूजा,दश महाविद्या ये सब सुनने में कितना अच्छा लगता है ! है न ! अरे भाई ये बड़ी बड़ी बातें कर के किसको धोखा दे रहे हो ! कुछ हासिल नही होगा जब तक विचार और भाव शुद्ध नही होंगे।क्योंकि सिद्धि अथवा ईश्वरीय कृपा पूर्णतः भाव व शुद्धि पर आधारित हैं।किताबों और ग्रन्थों को पढ़ने से ज्ञान नही मिलता है,हां जानकारी(इन्फॉर्मेशन) अवश्य प्राप्त हो जाएगी।बिना शोध और साधना के ज्ञान को उपलब्ध होना,सत्य को उपलब्ध होना असंभव.