🔹पितृदोष क्या है?
🔹श्राद्ध कर्म क्या है?
🔹श्राद्ध विधान क्या है ?
🔹श्राद्ध में क्या करे?
🔹श्राद्ध में क्या ना करे?
🔹श्राद्ध कब ना करे ?
🔹श्राद्ध तर्पण का महत्व/काल/अधिकारी कौन है ?
🔹श्राद्ध का ज्योतिष आधार क्या है?
🔹श्राद्ध का फल क्या होता है ?
🔹श्राद्ध का संक्षेप वर्णन
श्रद्धया दीयते यत्रः तर्च्छाद्ध परिचक्षते ।।
अर्थात्ः- मृत पित्तरों की आत्मिक शान्ति व उनकी आत्मिक तृप्ति के लिए जो पुत्र अपने प्रिय भोज्य पदार्थ किसी विप्र आदि को श्रद्धापूर्वक भेंट करते है, ब्राह्मण को सेवन कराते है, उसी अनुष्ठान को 'श्राद्ध' कहा जाता है। यही पित्तरों की तृप्ति का एक मात्र साधना (मार्ग) है।
एक अन्य ग्रंथ 'काव्यायन स्मृति' में भी एक जगह आया है- 'श्राद्ध वा पितृयज्ञ स्यात्'
अर्थात्ः- पितृयज्ञ का ही एक अन्य नाम 'श्रद्ध' कर्म है।
जीवन से संबन्धित उपरोक्त कुछ ऐसी समस्याएं है, जिनका समुचित उत्तर दे पाना सहज रूप में संभव नही होता। ऐसे व्यक्तियों को अपने जीवन में द्वन्द्व भरा आचरण निभाना पडता है। यद्यपि इस प्रकार की प्रतिकूल घटनाओं और उन समस्याओं के 'सूत्र' कुछ उनकी जन्म कुंडलियों में देखे जा सकते है। उनके ऐसे दुःख-दुर्भाग्य के सूत्र उनके प्रारब्ध में, उनके पूर्व जीवन से संबंधित रहते है। क्योंकि किसी व्यक्ति की जन्म कुंडली में निर्मित हुई ग्रह स्थितियां एक तरह से उसके प्रार्रब्ध व पूर्व कर्मों को ही प्रकट करने का कार्य करते है। ऐसी समस्त घटनाओं व उनके संयोग के पीछे व्यक्ति के पूर्व जीवन के संचित कर्मों को ही जिम्मेदार माना जाता है। वैदिक जीवन में इसे ही 'पितृदोष' या 'पितृश्राप' के रूप में देखा गया है। जीवन से संबन्धित ऐसी समस्त समस्याओं, जीवन की ऐसी परेशानियों और पीडाओं के लिए हमारे प्राचीन ऋषि- मुनियों और ज्योतिष मर्मज्ञों ने व्यक्ति के पूर्व जीवन के संचित कर्मों, पूर्व जीवन के किसी श्राप से ग्रस्त रहने (पितृश्राप पीडित रहने) को एक प्रमुख कारण के रूप में स्वींकार किया है।
श्राद्ध कर्म क्यूँ करे ?
पार्वणं चेति विशेयं गोष्ठयां शुद्धयर्थमष्टमम् ।। कर्मागं नवम् प्रोक्तं दैविकं दशम् स्मृतम्। यात्रास्त्रेकादशं प्रोक्तं पुष्टयर्थ द्वादशं स्मृतम्।।
इन श्राद्धों को नित्य श्राद्ध, तर्पण और पंच महायज्ञ आदि के रूप में प्रतिदिन ही 'पित्तर शान्ति' के लिए सम्पन्न किया जाना चाहिए। नैमित्तिक श्राद्ध को 'एकोदिष्ट' श्राद्ध भी कहा गया है। मृत्यु के बाद एक मृतक के लिए यही श्राद्ध सम्पन्न किया जाता है। यह श्राद्ध किसी व्यक्ति के निमित्त ही सम्पन्न होता है। प्रतिवर्ष मृत्यु तिथि पर भी 'एकोदिष्ट श्राद्ध' ही सम्पन्न किया जाता है।
देवता, मनुष्य, पशु-पक्षी, कीट-पतंग सहित सभी प्राणियों को एक न एक दिन मृत्यु को प्राप्त होना ही पडता है और कुछ न कुछ समय के लिए प्रेत योनि में व्ययतीत करना ही पडता है। इसके उपरान्त या तो उन मृतात्माओं को अपने कर्मों के अनुसार नरक आदि लोकों में जाकर यातनाएं सहनी पडती है या फिर कुछ समय उपरान्त वह मृतात्माएं पुनः संसार में आकर पुनर्जन्म धारण कर लेती है। इस पुनर्जन्म या प्रेत योनि के मध्य उन प्रेतात्माओं को कुछ काल तक पित्तर योनि में भी रहता पडता है। अतः मृत्यु को प्राप्त हुए पित्तरों की आत्मिक शान्ति व प्रेत योनि से मुक्ति के उद्देश्य से ही विविध श्राद्ध कर्म सम्पन्न करने पडते है। 'श्राद्ध' का वास्तविक भावार्थ ही है, 'प्रेत' या 'पित्तर' योनि को प्राप्त हुए पितृजनों की आत्मिक शान्ति के निमित्त जो कार्य सम्पन्न किए जाए व उन पितृजनों को श्रद्धापूर्वक भोज्य पदार्थ अर्पित किया जाए, वह सब 'श्राद्ध कर्म' के अन्तर्गत ही आते है। शास्त्रकारों ने मृत्यु बाद दशगात्र और षोडशी सपिण्डन तक मृतक को 'प्रेत' की संज्ञा प्रदान की है। क्योंकि इस अवधि तक मृतात्मा निरन्तर अपने पुत्रजनों के आसपास ही भटकती रहती है। सपिण्डन श्राद्ध के बाद ही उस प्रेतात्मा का भटकना बंद होता है और वह अपने अन्य पित्तरों में सम्मिलित हो पाती है।
श्राद्ध विधान
श्राद्ध विधान हमारे शास्त्रों में तीन सौ पैंसठ दिन तक चलने वाले श्राद्धों का उल्लेख हुआ है। इसके अलावा कुछ अनेक सम्प्रदायों में '96' तरह के श्राद्ध करने की परंपरा भी हजारों वर्षों तक जारी रही है। विष्णु पुराण और याज्ञवल्क्य संहिता जैसे प्राचीन ग्रंथों में पितृपूजा अर्थात् श्राद्ध कर्म पर बहुत विस्तार से प्रकाश डाला गया है। राजा और प्रजा, दोनों के लिए ही विभिन्न अवसरों पर श्राद्ध कर्म द्वारा अपने पित्तरों का प्रसन्न कर उनका आर्शीवाद लेते रहने का विधान बताया गया है। विष्णु पुराण और याज्ञवल्क्य संहिता में लिखा है कि देश में कोई महत्वपूर्ण कार्य सम्पन्न किया जाए या परिवार में ही कोई शुभ, मांगलिक कार्य सम्पन्न किया जाने वाला हो, तो इन सभी अवसरों पर सर्वप्रथम ब्राह्मण भोजन के रूप में पित्तरों के निमित्त श्राद्ध कर्म अवश्य सम्पन्न करना चाहिए। इससे पित्तरों का आर्शीवाद तो मिलता ही है, वह शुभ एंव मांगलिक कार्य भी निर्विघ्न सम्पन्न हो जाता है। इसके साथ ही उन शुभ कार्यों की शुभता भी सदैव बनी रहती है। उत्सव, त्यौहार व मांगलिक शुभ कार्यो के समय ही नही, बल्कि इनके अतिरिक्त परिवार में नये शिशु के आगमन या उनके नामकरण संस्कार के अवसर पर, घर में मुण्डन संस्कार, यज्ञोपवीत संस्कार आदि सम्पन्न किए जाने के अवसर जैसे सभी शुभ अवसरों पर भी पित्तरों की स्मृति स्वरूप 'श्राद्ध कर्म' सम्पन्न कर लेना प्रत्येक दम्पत्ति का आवश्यक कर्त्तव्य एंव कर्म माना गया है। इससे पित्तरों का आर्शीवाद सदैव बना रहता है। जिस दिन बच्चों की वर्षगांठ मनाई जाए या विवाह जैसा मांगलिक कार्य सम्पन्न होने जा रहा हो, घर में किसी विशिष्ट अतिथि का आगवन हो, आकाश में कोई विशेष घटना दिखाई पडे, तो भी इन सबसे पहले पितृपूजा रूप में श्राद्ध कर्म सम्पन्न कर लेना अति शुभ रहता है। इनसे पित्तर और प्रेत योनि को प्राप्ति हुई आत्माएं अशांत नहीं होती। इन अवसरों के अतिरिक्त भी जब रात और दिन बराबर हो, जिस दिन सूर्य देव उत्तरायण छोडकर दक्षिणायन अर्थात् दक्षिणायान छोडकर उत्तरायन की ओर गति कर रहे हो, जिस दिन सूर्य ग्रहण या चन्द्र ग्रहण पडे, या फिर अंतरिक्ष में कोई विशेष घटना घटित होने वाली हो, जिस दिन सूर्य किसी नयी राशि में प्रवेश कर रहे हो, ऐसे सभी अवसरों पर भी सर्वप्रथम पितृ शान्ति के निमित्त श्राद्ध कर्म सम्पन्न कर लेना अति शुभ माना गया है। श्राद्ध कर्म करने का विधान अन्य अवसरों के लिए भी बताया गया है। जैसे जब किसी व्यक्ति को कोई बुरा स्वप्न दिखाई पडे या स्वप्न के दौरान उसे कोई मृत व्यक्ति अथवा अपने मृत पिता-माता या कोई अन्य सगा-संबन्धी दिखाई दे, तो भी उन्हें पित्तरों की आत्मिक शान्ति के लिए श्राद्ध कर्म सम्पन्न कर लेना उत्तम रहता है। श्राद्ध करने का विधान कई अन्य अवसरों के लिए भी रखा गया है। जैसे जब घर में नया अनाज भरा जाए या परिवार में नया अन्न खाना शुरू किया जाए, संक्रान्ति तिथि का दिन हो शुरू हो, वर्षारम्भ में जब सूर्य आर्द्रा नक्षत्र में प्रवेश करने वाले हो, मार्गशीर्ष, पौष, माघ और फाल्गुन मास की कृष्णपक्ष की अष्टमी तिथि, गुरूवार, मंगलवार, रिक्ता तिथि, गजच्छाया, संवत्सर के दिन, वैशाख शुक्ल तृतीय, श्रावण मास कृष्णपक्ष की एकादशी, माघ मास की अमावस्या, कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि आदि के दिन भी श्राद्ध कर्म सम्पन्न करने की प्राचीन परंपरा व विशेष महत्वता रही है। इन सभी अवसरों पर सम्पन्न किए जाने वाले श्राद्ध कर्मों की अपनी-अपनी विशेषताएं एंव अपने-अपने महत्व माने गये है। ऐसे अवसरों पर काम्य श्राद्ध करने का विशेष महत्व माना गया है।
श्राद्ध में क्या करें ?
दिवंगत पूर्वजों की मृत्यु तिथि पर ससत्कार अपने घर या अपनी कुल देवी अथवा कुल देवता के स्थान पर, ब्रह्म देव (ब्राह्मण) को आमन्त्रित करके उन्हें सुस्वादु भोजन कराएं। भोजन कराने के बाद ब्रह्मदेव को वस्त्र, दक्षिणा आदि दान देकर उनका आर्शीवाद ग्रहण करना चाहिए। ब्राह्मण भोजन से पूर्व पितृ तर्पण और पितृ श्राद्ध कर्म सम्पन्न करने का विधान है। इस पितृ श्राद्ध में ब्राह्मण भोजन से पूर्व पांच अलग-अलग पत्तलों के ऊपर पंचबलि निकाल कर उन्हें क्रमशः गाए, कौए, कुत्ते, चीटियों और अतिथि को खिलाना चाहिए। ब्रह्म भोज में गऊग्रास भी आवश्यक रूप में निकालना चाहिए। पंचबलि के बाद अग्नि में भोज्य सामग्री, सूखे आंवले, मुनक्का आदि की तीन आहूतियां प्रदान करके अग्निदेव को भोग लगाना चाहिए। इससे अग्निदेव प्रसन्न होते है। श्राद्ध के अन्न को अग्निदेव ही सूक्ष्म रूप में पित्तरों तक पहुंचाने का माध्यम बनते है। श्राद्ध कर्म में एक हाथ से पिंडदान करें और आहुतियां प्रदान करें, जबकि तर्पण के समय अपने दोनों हाथों से जलांजलि बनाकर तर्पण करना चाहिए। तर्पण के समय अपना मुंह दक्षिण की तरफ रखे। कुश तथा काले तिल के साथ जल को दोनों हाथों में भरकर और आकाश की ओर ऊपर उठाकर जलांजलि दी जानी चाहिए। यही तर्पण है। ऐसी जलांजलि कई बार प्रदान की जाती है अर्थात् अंजलि में जल भरकर उसे बार-बार जल में गिराना चाहिए। पित्तरों का निवास आकाश तथा दिशा दक्षिण की ओर माना गया है। अतः श्राद्ध और तर्पण में पित्तरों के निमित्त सम्पूर्ण कार्य आकाश की ओर मुंह करके ही सम्पन्न किए जाने चाहिए। श्राद्ध कर्म केवल अपरान्ह काल में ही सम्पन्न करने चाहिए।
श्राद्ध में क्या न करें ?
पद्म पुराण और मनु स्मृति के अनुसार श्राद्ध सम्पन्न करते समय दिखावा, प्रदर्शन बिलकुल नहीं करना चाहिए। ऐसा करने से श्राद्ध का फल नही मिलता। अतः श्राद्ध कर्म सदैव पूर्ण एकान्त स्थान या नदी तट पर बैठकर, गुप्त रूप से ही सम्पन्न कराना चाहिए। श्राद्ध के दिन घर में दही नहीं बिलोना चाहिए और न ही उस दिन घर में चक्की चलानी चाहिए। श्राद्ध के दिन अपने बाल भी नहीं काटवाने चाहिए। श्राद्ध में तीन वस्तुएं अति पवित्र मानी गई है। दुहिता पुत्र, तिपकाल (दिन का आठंवा भाग) और काले तिल। अतः श्राद्ध के समय इनका प्रयोग अवश्य करना चाहिए। श्राद्ध और पितृपूजा में 'कुश' का भी विशेष महत्व रहता है। श्राद्ध, तर्पण और पिंडदान करते समय तुलसी का प्रयोग करने से पित्तर अति प्रसन्न होते है। श्राद्ध के निमित्त सन्मार्गी एंव सात्विक ब्राह्मण को ही अपने घर भोजन के लिए आमन्त्रित करना चाहिए। भोजन के समय 'पितृ सूक्त' का पाठ करना चाहिए। श्राद्ध पक्ष में पूरे पक्ष के दौरान ही अपने भोजन करने से पूर्व गौग्रास के रूप में गाय को रोटी अवश्य निकालनी चाहिए।
श्राद्ध कब न करें ?
पूर्वजों की मृत्यु के प्रथम वर्ष में श्राद्ध कर्म नहीं करना चाहिए।
पूर्वान्ह में, शुक्ल पक्ष के दौरान, रात्रि के समय और अपने जन्म दिन के असवर पर श्राद्ध कर्म नहीं करना चाहिए।
इसी प्रकार चतुर्दशी तिथि को भी श्राद्ध नही करना चाहिए। इस तिथि को मृत्यु को प्राप्त हुए पित्तरों का श्राद्ध दूसरे दिन अमावस्या तिथि को सम्पन्न करने का शास्त्रीय विधान है।
कूर्म पुराण के अनुसार जो व्यक्ति अग्नि, विष आदि के द्वारा आत्महत्या करके अपनी जान देता है, उसके निमित्त श्राद्ध, तर्पण आदि करने का विधान नही है।
श्राद्ध में तर्पण का महत्व
श्राद्ध कर्म के समय सबसे पहले पित्तरों को तर्पण दिया जाए। तर्पण के निमित्त एक स्वच्छ थाली या बर्तन में थोडा सा स्वच्छ जल भरकर उसमें थोडा सा कच्चा दूध मिलाया जाता है, फिर उसमें थोडे से काले तिल और जौ के दाने डाले जाते है। इसमें पुष्प की पंखुडियां भी डाली जा सकती है। तत्पश्चात् श्राद्धकर्ता को अपने दोनों हाथों से अंजलि बनाकर और दोनों अंगूठों से कुश मूल को पकड कर पूर्वाभिमुख हो थाली के पानी से 'ॐ नमः सूर्याय नमः' मन्त्र का उच्चारण करते हुए देवों को जलांजलि से जल अर्पण करना चाहिए। दक्षिणामुख होकर पित्तरों के निमित्त उनका नाम, गोत्र लेकर क्रमशः तीन-तीन बार जलांजलि प्रदान करनी चाहिए। श्राद्ध तिथि के दिन अगर संभव हो सके तो एक छोटा सा हवन भी सम्पन्न कर लेना चाहिए। अन्यथा कंडे में आग सुलागकर पित्तरों के निमित्त उसमें घी व लौंग युक्त बतासे, जलीय भोजन के साथ आहुतियां डाल लेनी चाहिए। श्राद्ध वाले दिन पांच पत्तलों पर कौआ, कुत्ता, गाय, अतिथि देव और चीटियों के निमित्त पंचबलि भी अवश्य निकालनी चाहिए और उन्हें उनके पात्रों तक अवश्य पहुंचा देना चाहिए। इसके बाद ही ब्राह्मण को भोजन करना एंव उसे वस्त्र एंव दक्षिणा देकर प्रणाम करना चाहिए। ब्रह्मदेव को भी अपने आथित्य सत्कार से प्रसन्न होकर अपने यजमान को सपरिवार सहृदय होकर आर्शीवाद देना चाहिए।
🔹श्राद्ध काल धर्मशास्त्रों में जो पाँच प्रकार के श्राद्ध बताये गये है। इन श्राद्धों को दिन के अलग-अलग समय पर सम्पन्न करने का विधान भी रखा गया है। जैसे पूर्वार्द्ध के समय अन्वष्टका नामक श्राद्ध कर्म सम्पन्न करना चाहिए। यह श्राद्ध मातृ के निमित्त सम्पन्न किया जाता है। जबकि पिता आदि के निमित्त किया जाने वाला एकोदिष्ट नामक श्राद्ध मध्यांह के समय पर सम्पन्न करना चाहिए। प्रातःकाल के समय पर आम्युदयिक नामक श्राद्ध सम्पन्न करना चाहिए। आम्युदयिक नामक यह श्राद्ध वृद्धि श्राद्ध के अन्तर्गत आता है, जो पारिवारिक वृद्धि के निमित्त सम्पन्न किया जाता है। धर्मशास्त्रों में कहा गया है कि पित्तरों के निमित्त जो श्राद्ध सम्पन्न किए जाते है, उनके लिए श्राद्ध का समय मध्यांह काल श्रेष्ठ है, क्योंकि मध्यांह में सूर्यदेव अपनी पूर्ण तेजस्वता पर रहते है। सूरज की सप्त रश्मियों में 'श्रद्ध' नामक एक रश्मि भी मानी गई है। इस रश्मि के माध्यम से ही सूर्य देव श्राद्ध के अन्न से रस को सोखकर उसे पित्तरों तक पहुंचाकर उन्हें तृप्ति प्रदान कराते है। अतः पित्तरों का श्राद्ध मध्यांह काल में करना श्रेष्ठ माना गया है।
🔹श्राद्ध का अधिकारी पित्तर किसके हाथ से श्राद्ध ग्रहण करते है, यह भी एक महत्वपूर्ण प्रश्न है। शास्त्रानुसार श्राद्ध करने का प्रथम उत्तराधिकार ज्येष्ठ पुत्र का बनता है। यद्यपि पुत्र के अभाव में पुत्री का पुत्र (दोहता) भी नाना-नानी व मामा आदि का श्राद्ध करने का अधिकारी होता है। यद्यपि पुत्री को अपने मां-बाप का श्राद्ध करने का अधिकार नहीं दिया गया है, क्योंकि विवाहोपरान्त पुत्री का कुल, गोत्र आदि सब बदल जाते है। इसके साथ ही विवाहित पुत्री के घर पर भी श्राद्ध करना निषिद्य माना गया है।
श्राद्ध पक्ष का ज्योतषीय आधार
सैद्धान्तिक रूप में श्राद्ध पक्ष ऐसे समय आता है, जब सूर्य विषवत् रेखा को पार कर 23 सितंबर को दक्षिणी गोलार्ध में प्रवेश करते है। 23 सितंबर को सूर्य के दक्षिणी गोलार्ध में प्रवेश करने के साथ ही देवताओं की रात्रि एंव असुरों का दिन प्रारंभ हो जाता है। पौराणिक ग्रंथों में देव एंव असुरों के छह-छह महीने के दिन और रात माने गये है। सूर्य जब 21 मार्च से 23 सिंतबर तक उत्तरी गोलार्ध में भ्रमण करते है, तब देव लोक में (उत्तरी ध्रुव पर) दिन एंव असुर लोक (दक्षिणी ध्रुव पर) में रात्रि का अंधकार पसरा रहता है। सूर्य जब 23 सितंबर से 21 मार्च तक दक्षिणी गोलार्ध में भ्रमण करते है, तब देव लोक में रात्रि एंव असुर लोक में दिन का प्रकाश रहता है। इस प्रकार देव लोक एंव असुर लोक में दिन और रात विपरीत बने रहते है। सूर्य सिद्धान्त में भी कहा गया है कि जब सूर्य सायन मेष से सायन कन्या तक छह राशियों (21 मार्च से 23 सितंबर तक) में रहते है, तब उत्तरी ध्रुव पर रहने वाले देवता लोग उसको एक ही बार उदित हुआ देखते है। अर्थात् तब छह महीने तक वहां एक बार भी सूर्य अस्त नहीं होता और जब सूर्य सायन तुला से सायन मीन तक छह राशियों (23 सितंबर से 21 मार्च तक) में रहता है, तब दक्षिणी ध्रुव पर असुर लोग उसको निरन्तर छः महीने तक उदित हुआ देखते है। गोलार्ध परिवर्तन करते समय सूर्य 23 सितंबर व 21 मार्च को विषवत् रेखा पर होते है। उस समय पूरी पृथ्वी पर दिन और रात बराबर हो जाते है। सूर्य देव तब असुरों को क्षितिज पर उदित होते दिखाई पडते है। 23 सितंबर को सूर्य दक्षिणी गोलार्ध में प्रवेश करते समय देवताओं को अस्त होते हुए एंव असुरों को उदित होते हुए दिखाई पडते है। यह देवताओं का सायंकाल एंव असुरों का प्रातःकाल का समय रहता है। इसी प्रकार 21 मार्च को सूर्य उत्तरी गोलार्ध में प्रवेश करते समय देवताओं को अस्त होते हुए एंव असुरों को उदित होते हुए दिखाई पडते है। यह देवताओं का सायंकाल एंव असुरों का प्रातःकाल का समय रहता है।
श्राद्ध का फल
शास्त्रकारों ने कहा है कि जो व्यक्ति (श्रद्धाहीन होकर) अपने पितृजनों के निमित्त श्राद्ध कर्म नहीं करता उसके परिवार में वीरों का जन्म नहीं होता और न ही उसके परिवार में कोई निरोग एंव स्वस्थ बना रहता है, जहाँ तक कि उस परिवार के किसी सदस्य को दीर्घायु भी प्राप्त नही हो पाती और न ही उस परिवार से किसी का कल्याण होता है। शास्त्रमत् में गोत्र एंव स्वनाम उच्चारण के साथ श्राद्ध कर्म के रूप में पित्तरों के निमित्त दिया गया अन्न, जल आदि भोजन सामग्री पित्तरों के ग्रहण योग्य बन जाती है और 'हव्य' बनकर निश्चित ही पित्तरों के पास पहुंचता है।
उपरोक्त शास्त्र वचन् पद्यपुराण में निम्नवत् सिद्ध किया गया हैः-
'अग्रिष्वात्तादयस्तेषामाधिपत्ये व्यवकस्थ्ताः।'
अगर मृत्यु पश्चात् सम्पन्न किये जाने वाले अन्त्येष्टि कर्मों द्वारा मृतक किसी देवयोनि को प्राप्त कर चुके है, तो भी श्राद्ध, तर्पण जैसे कर्मों द्वारा श्रद्धा सहित अर्पित किए अन्नादि पदार्थ मृतक पित्तरजनों तक अमृत रूप में निश्चित ही पहुंच जाते है। इस प्रकार मनुष्य योनि को प्राप्त हुए पित्तर श्राद्ध द्वारा प्रदान किए गये पदार्थों को अन्न रूप में, पशु योनि को प्राप्त हुए पित्तर तृण रूप में, नाग आदि नीच योनियों को प्राप्त हुए पित्तर उन्हें वायु रूप में, यक्ष आदि योनि को प्राप्त हुए पित्तर उन्हें पान रूप में, पशु एंव अन्य निम्नतम् योनियों में गये पित्तर श्राद्ध के अन्नादि को अपने अनुरूप भोग अथवा तृप्तिकर पदार्थों के रूप में प्राप्त कर लेते है। संतानजनों द्वारा श्राद्ध कर्म के रूप में प्रदान किए गये भोज्य पदार्थों को ग्रहण करके हमारे पित्तर अति संतुष्ट, तृप्त एंव प्रसन्नता का अनुभव करते है और अपनी संतानों को प्रसन्नतापूर्वक अर्शीवाद प्रदान करते है।
शास्त्रों में इस संबन्ध में निम्न प्रकार कहा गया हैः-
'देवो यदि पिता जातः शुभकर्मानुयोगतः। तस्यान्त्रममृतं भूत्वा देवत्वेऽप्यनुगच्छति।
मर्त्यत्वे ह्यन्त्ररूपेण पशुत्वे च तृणं भवेत्।
श्रद्धान्त्रं वायुरूपेण नागत्वे ऽप्युपतिष्ठति।।
पानं भवति यक्षत्वे नानाभगोकरं तथा।'
- क्षयाद तिथिः- जिस तिथि को कोई व्यक्ति मृत्यु को प्राप्त करता है, उस तिथि पर 'मृतक' पित्तर के निमित्त वार्षिक श्राद्ध कर्म सम्पन्न किया जाना उत्तम है। श्राद्ध कर्म के लिए प्रयुक्त की गई इसी तिथि को 'क्षयाद तिथि' कहा गया है। शास्त्रों के अनुसार इस दिन 'एकोष्टि' श्राद्ध करने का विशेष विधान है। इसमें केवल मृत जीव के निमित्त ही एक पिंड का दान तथा कम से कम एक या तीन ब्राह्मणों को भोजन कराने का नियम है।
2- पितृपक्षः- पितृपक्ष में मुख्य रूप से व्यक्ति की मरण तिथि पर 'पार्वण' नामक श्राद्ध करने का विधान है। इसमें पिता, पितामह तथा प्रतितामह का सपत्नीक तीन चट (पीढियां) में छः व्यक्तियों का श्राद्ध कर्म सम्पन्न किया जाता है। इसी के समान रूप एक जट और लगायी जाती है, जिस पर निकटतम संबन्धियों के निमित्त भी पिंडदान किया जताा है। इनके अलावा विश्वदेव के दो चट लगते है। इस प्रकार नौ चट लगाकर नौ ब्राह्मणों को भोजन कराया जाता है।
श्राद्ध कर्म का संक्षिप्त विवरण मत्स्य पुराण में तीन प्रकार के अर्थात् नित्य, नैमित्तिक और काम्यं, जबकि यमस्मृति में पाँच प्रकार के श्राद्धों का उल्लेख हुआ है।
यथा 'नित्य नैमित्तिकम काम्यं त्रिविध वृद्धि-श्रद्धमथापरं पार्वण चेति विज्ञेय, श्राद्धं पंच विधं बुधैः ।।'
1- नित्य श्राद्धः- नित्य प्रति किये जाने वाले श्राद्ध को 'नित्य श्राद्ध' कहते है।
2- नैमित्तिक श्राद्धः- एकोदिष्ट प्रभृति श्राद्ध को 'नैमित्तिक श्राद्ध' कहते है।
3- काम्य श्राद्ध- वृद्धि काल में अर्थात् पुत्र जन्म, विवाह जैसे मांगलिक अवसर, नये घर की नींच रखते समय में जो श्राद्ध किया जाए उसे 'वृद्धि श्राद्ध' या 'काम्य श्राद्ध' कहा गया है।
4- पार्वण श्राद्ध- अमावस्या तिथि अथवा किसी पर्व-त्यौहार के दिन जो श्राद्ध किया जाए, वह 'पार्वण श्राद्ध' कहलाता है।
बृहस्पति की याज्ञवल्क्य संहिता में भी उपरोक्त पाँच प्रकार के श्राद्धों का उल्लेख हुआ ही है, किन्तु भविष्य पुराण में बारह प्रकार के श्राद्धों को उल्लेख आया है। यथा
'नित्यं नैमित्तिक काम्यं वृद्धि श्राद्ध सपिण्डनम्। पार्वण चेति विज्ञये गोष्टयां शुद्ध यर्थमष्टम् कमर्ण।
" नवम् प्राप्त दैविक दशमं स्मृतम्।
यात्रास्वेकादशं प्रोक्तं पुष्टयर्थ द्वादशं स्मृतम्।।' अर्थात् नित्य, काम्य, वृद्धि, सपिण्डन, पार्वण, गोष्ठी, शुद्धयर्थ श्राद्ध, कर्माग श्राद्ध, दैविक, यात्रार्थ, पुष्टयर्थ, श्रौत स्मार्त श्राद्ध यह बारह प्रकार के श्राद्ध माने गये है।
यह श्राद्ध निम्न प्रकार माने गए है:-
• सपिण्डन श्राद्धः- जिस श्राद्ध में प्रेत पिंड को पितृ पिंड में सम्मिलित किया जाए, उसे सपिण्डन श्राद्ध कहा जाता है। यह श्राद्ध दसगात्र श्राद्ध के नाम से भी जाना जाता है।
• गोष्ठी श्राद्धः- जो श्राद्ध गोशाला आदि में सम्पन्न में किया जाए, वह 'गोष्ठी श्राद्ध' कहे जाते है।
• शुद्धयर्थ श्रद्धः- नव शिशु के आगमन, नामकरण संस्कार आदि के बाद अथवा अशौच के बाद जो शुद्धि निमित्त श्राद्ध रूप में ब्रह्मणों को भोजन कराया जाए, उसे 'शुद्धयर्थ श्राद्ध' कहा गया है।
• कर्माग श्राद्धः- गर्भाधान में सोमरस पान के रूप में सीमान्तान्यन संस्कार या पुंसवन संस्कार सम्पन्न किया जाए और उस समय जो श्राद्ध सम्पन्न होता है, वह 'कर्मांग श्राद्ध' कहलाता है।
• दैविक श्राद्धः- सप्तम्यादि तिथियों में विशिष्ट हविष्य के द्वारा देवताओं के निमित्त जो हविष्य दिया जाता है, वह 'दैविक श्राद्ध' के नाम से जाना जाता है।
• यात्रार्थ श्राद्धः- तीर्थाटन के उपरान्त घर वापिस आकर या तीर्थ में जाकर यात्रा के समय घृत द्वारा जो श्राद्ध किया, वह 'यात्रार्थ श्राद्ध' के नाम से जाना जाता है।
• पुष्टयर्थ श्रद्धः- शारीरिक निरोगता अथवा आर्थिक उन्नति के लिए जो श्राद्ध कुल देवी स्थान, कुलदेव स्थान पर बैठकर सम्पन्न किए जाते है, वह 'पुष्टयर्थ श्राद्ध' के नाम से जाने जाते है।