रामायण लगभग कई हज़ारो वर्ष पहले प्रारंभ हुई, सरयू नदी के किनारे कोशल देश का विकास हो रहा था। इसकी सुंदर राजधानी अयोध्या जिसे साकेत के नाम से भी जाना जाता है का निर्माण विवस्वान मनु ने करवाया था, किंतु सूर्यवंशी राजवंश के संस्थापक शासक इक्ष्वाकु ने इसे विकसित और समृद्ध बनाया था। सूर्यवंश के राजा परोपकारी शासक थे और कोशल देश की जनता प्रसन्न, संतुष्ट और सदाचारी थी। कोशल राज्य का संरक्षण एक शक्तिशाली सेना द्वारा किया जाता था, जिसके आस-पास भी किसी शत्रु का आना असंभव था। सूर्यवंशी राजा अत्यंत शक्तिशाली थे, उन्होंने इस पृथ्वी पर हजारों वर्षों तक शासन किया। प्राचीन संस्कृत साहित्य में सम्राट् इक्ष्वाकु के एक सौ अट्ठाईस उत्तराधिकारियों के नाम अभिलिखित हैं, जिनमें से सत्यवादी राजा हरिश्चंद्र 33वें, राजा सगर 40वें और राजा भगीरथ 44वें प्रख्यात शासक थे। राजा दशरथ इस राजवंश के 63वें सुप्रसिद्ध सम्राट् थे, जो कि एक महान् और शक्तिशाली राजा थे। वे परोपकारी शासक थे और उनके राज्य में कार्य के आधार पर बँटे सभी चार वर्णों के लोग सुखी एवं समृद्ध थे। ऐसे बुद्धिमान एवं पराक्रमी राजा दशरथ के पुत्र के रूप में मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम का जन्म हुआ था।
2. राजा दशरथ का कल्याणकारी राज्य
अयोध्या में पुत्रकामेष्टि यज्ञ का आयोजन सूर्यवंशी राजकुल के 63वें प्रख्यात शासक राजा दशरथ थे। उन्होंने राजधानी अयोध्या से कोशल देश पर शासन किया था। पराक्रम और बुद्धि के असाधारण गुणों से संपन्न राजा दशरथ ने अयोध्या को उसी प्रकार धनवान एवं समृद्ध बनाया, जिस प्रकार देवराज इंद्र ने अमरावती का विकास किया था। अयोध्या में अत्यंत सुंदर घर और ऊँची-ऊँची अटारियों, ध्वजों और स्तंभोंवाले सुसज्जित प्रासाद थे। वहाँ के लोग सुखी एवं संपन्न थे।राजा दशरथ ने वेदों में पारंगत एवं ज्ञानी प्रख्यात विद्वानों और प्रसिद्ध ऋषियों को अयोध्या में निवास करने के लिए प्रोत्साहित किया। कार्य-संचालन हेतु राजा दशरथ की सहायता उनके आठ बुद्धिमान मंत्री किया करते थे, जो निष्ठावान, सत्यवादी और राज्य के मामलों में राजा दशरथ की सहायता करने और उन्हें परामर्श देने के लिए सदैव तत्पर रहते थे। उनके नाम धृष्टि, जयंत, विजय, सुराष्ट्र, राष्ट्रवर्धन, अकोप, धर्मपाल और सुमंत्र थे। महान् ऋषि वसिष्ठ और वामदेव के अतिरिक्त जाबालि, कश्यप और गौतम ऋषि भी महाराज को मंत्रणा देते थे। मुनि वसिष्ठ राजा दशरथ के पुरोहित थे।
जनवरी 5115 ई.पू. अश्वमेध यज्ञ व पुत्रकामेष्टि यज्ञ के आरंभ के समय की पूर्ण कहानी
राजा दशरथ अपने पास संसार के सभी वैभव होते हुए भी पुत्र-प्राप्ति के लिए सदा चिंतित रहते थे, पहले उनकी एक पुत्री थी, जिसे बहुत समय पहले उन्होंने अपने मित्र राजा रोमपद को गोद दे दिया था। उन दिनों लोग वरदान पाने और संतान प्राप्ति के लिए अश्वमेध यज्ञ का अनुष्ठान किया करते थे। पुत्र-प्राप्ति की चिंता करते-करते एक दिन राजा दशरथ के मन में अश्वमेध यज्ञ का अनुष्ठान करने का विचार आया। उन्होंने इस बारे में सुमंत्र और वसिष्ठ सहित अपने पुरोहितों व ऋषियों से परामर्श किया। उनके सुझावों को स्वीकार कर राजा दशरथ पुत्रकामेष्टि यज्ञ करवाने के लिए ऋषि ऋष्यश्रृंग से प्रार्थना करने के लिए गए। इन्होंने राजा दशरथ की पुत्री शांता से विवाह किया था, जिसे अंगदेश के राजा रोमपद को गोद दे दिया गया था। राजा दशरथ के अनुरोध करने पर ऋषि ऋष्यश्रृंग अपने परिवार के साथ अयोध्या में कुछ समय तक रहे। ऋषि ने राजा दशरथ को अश्वमेध यज्ञ के लिए सरयू नदी के उत्तरी किनारे पर यज्ञभूमि का निर्माण करने का सुझाव दिया। उन्होंने यह परामर्श भी दिया कि यज्ञसंबंधी अश्व को भू-मंडल भ्रमण के लिए तत्काल छोड़ दिया जाए। राजा दशरथ ने मुनि वसिष्ठ को बुलाया और धार्मिक ग्रंथों के अनुसार बिना किसी बाधा के यज्ञ पूरा करने का अनुरोध किया। उन्होंने जाबालि, कश्यप और वामदेव जैसे अन्य महान् मुनियों को भी आमंत्रित किया और उनसे परामर्श किया। उन सभी ऋषियों ने ऋष्यश्रृंग ऋषि की सलाह का समर्थन किया। तदनुसार यज्ञ के अश्व को एक मुख्य पुरोहित के साथ 400 बहादुर सैनिकों की देख रेख में छोड़ दिया गया। इस अश्व को पृथ्वी का एक चक्कर पूरा करके वापस आना था।
(वाल्मीकि रामायण 1/12/1,2)-
बसन्ते समनुप्राप्ते राज्ञो यष्टुं मनोऽभवत् ॥
ततः प्रणम्य शिरसा तं विप्रं देववर्णिनम्।
यज्ञाय वरयामास सन्तानार्थं कुलस्य च ॥
अर्थात् वसंत ऋतु के प्रारंभ के शुभ समय में राजा दशरथ ने यज्ञ आरंभ करने का विचार किया। तत्पश्चात् उन्होंने देवकांतिवाले विप्र ऋष्यश्रृंग को मस्तक झुकाकर प्रणाम किया और वंश-परंपरा की रक्षा हेतु पुत्र-प्राप्ति के निमित्त यज्ञ कराने की प्रार्थना की। यह वसंत ऋतु अर्थात् चैत्र मास का आरंभ था। प्राचीन समय से हिंदुओं द्वारा अपनाए गए चंद्रसौर कलेंडर के अनुसार वर्ष का प्रारंभ चैत्र मास से होता था। जिसके अनुसार 10 जनवरी, 5116 वर्ष ई.पू. को पूर्ण चंद्रमा चित्रा नक्षत्र (Alpha Vir Spica) कन्या राशि (Virgo) में था, जिस कारण से इस महीने को चैत्र मास का नाम भी दिया गया। चैत्र मास का प्रारंभ पंद्रह दिन बाद चैत्र अमावस्या के बाद चैत्र शुक्ल पक्ष के प्रारंभ से माना जाता था। ऋग्वेद के संदर्भों के आकाशीय दृश्य यह सिद्ध करते हैं कि लगभग 6000 वर्ष ई.पू. से वर्ष (संवत्सर) का प्रारंभ प्राचीन भारत में चैत्र मास से माना जाने लगा थे
यज्ञ के अश्व को पृथ्वी का एक पूरा चक्कर लगाकर वापस आने में लगभग 12 महीनों का समय लगा। इसके पश्चात् वसंत ऋतु के पुनः आगमन पर सरयू नदी के उत्तरी तट पर अश्वमेध यज्ञ की प्रक्रिया शुरू की गई। राजा दशरथ अश्वमेध यज्ञ व पुत्रकामेष्टि यज्ञ की प्रक्रिया शुरू करवाने के लिए मुनि वसिष्ठ के पास गए। राजा दशरथ ने मुनि वसिष्ठ को यज्ञ शुरू करने और बिना किसी बाधा के यज्ञ को पूरा करवाने का अनुरोध किया , यज्ञ का प्रारंभ दिनांक 15 जनवरी, 5115 वर्ष ई.पू. को चैत्र मास की शुक्ल पक्ष की प्रथमा के पश्चात् हुआ होगा, जैसा कि रामायण में स्पष्ट रूप से वर्णित है-
पुनः प्राप्ते वसन्ते तु पूर्णः संवत्सरोऽभवत् प्रसवार्थं गतो यष्टुं हयमेधेन वीर्यवान् ।। वा.रा. 1/13/1 ॥
अर्थात् एक वसंत ऋतु के बीतने पर दूसरे वसंत ऋतु का पुनः आगमन हुआ और यज्ञसंबंधी अश्व को मुक्त छोड़े हुए एक वर्ष पूर्ण हो चुका था। उस समय राजा दशरथ संतान प्राप्ति के लिए यज्ञ शुरू करवाने के लिए मुनि वसिष्ठ के पास गये.
श्रीराम, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न का जन्म का सही समय
ऋष्यश्रृंग द्वारा यज्ञ पूर्ण किए जाने के तुरंत बाद यज्ञ की वेदी से एक दिव्याकृति प्रकट हुई और उसने राजा दशरथ को दिव्य खीर से भरी हुई एवं चाँदी के ढक्कन से ढकी स्वर्ण की परात (थाली) भेंट की और उस खीर को अपनी तीनों पत्नियों में बाँटने के लिए कहा। राजा ने देवता के उपहार को बड़ी प्रसन्नता से ग्रहण किया और उस अमृत रूपी खीर का आधा भाग महारानी कौशल्या को दे दिया। फिर बचे हुए आधे का आधा भाग रानी सुमित्रा को अर्पण किया। उन दोनों को देने के बाद जितनी खीर बच रही थी, उसका आधा भाग तो उन्होंने कैकेयी को दे दिया, तत्पश्चात् उस खीर के अवशिष्ट भाग को पुनः रानी सुमित्रा को दे दिया। इस तरह पुत्र-प्राप्ति के लिए प्रतिष्ठित अश्वमेध यज्ञ और पुत्रकामेष्टि यज्ञ संपूर्ण हुए।
12वें मास में चैत्र शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि को पुनर्वसु नक्षत्र एवं कर्क लग्न में कौशल्या देवी ने दिव्य लक्षणों से युक्त एक यशस्वी एवं प्रतिभाशाली पुत्र को जन्म दिया, जिसका नाम 'राम' रखा गया।
बालकांड (1/18/8-10) में महर्षि वाल्मीकि ने श्रीराम के जन्म के समय पर ग्रहों, राशियों एवं नक्षत्रों की स्थितियों का विस्तृत विवरण दिया है'-
ततो यज्ञे समाप्ते तु ऋतूनां षट् समत्ययुः ।
ततश्रच द्वादशे मासे चैत्रे नावमिके तिथौ ॥ वा.रा. 1/18/8 ॥
नक्षत्रेऽदितिदैवत्ये स्वोच्चसंस्थेषु पञ्चसु ।
ग्रहेषु कर्कटे लगने वाक्पताविन्दुना सह ।। वा. रा. 1/18/9 ॥
प्रोद्यमाने जगन्नाथं सर्वलोकनमस्कृतम् ।
कौसल्याजनयद् रामं दिव्यलक्षणसंयुतम् ।। वा. रा. 1/18/10 ॥
अर्थात् यज्ञ-समाप्ति के पश्चात् छह ऋतुएँ बीत जाने के बाद, 12वें मास में चैत्र शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि को पुनर्वसु नक्षत्र एवं कर्क लग्न में कौशल्या देवी ने दिव्य लक्षणों से युक्त एक अत्यंत प्रतिभाशाली पुत्र को जन्म दिया, जिसका नाम श्रीराम रखा गया। श्रीराम शुभ लक्षणों एवं दैवीय गुणों से युक्त थे। उस समय चंद्रमा पुनर्वसु नक्षत्र में था, सूर्य, शुक्र, मंगल, शनि, बृहस्पति ये पाँच ग्रह अपने-अपने उच्च स्थान में विद्यमान थे अर्थात् ये पाँच ग्रह अपने-अपने उच्च स्थान की राशि मेष, मीन, मकर, तुला, कर्क में क्रमशः विद्यमान थे और बृहस्पति एवं चंद्रमा एक साथ चमक रहे थे।
श्रीराम के जन्म के पश्चात् कैकेयी ने सत्यपराक्रमी भरत को पुष्य नक्षत्र और मीन लग्न में जन्म दिया, अर्थात् जन्म के समय चंद्रमा पुष्य नक्षत्र में था और मीन राशि पूर्व दिशा से क्षितिज में उदय हो रही थी। इसके पश्चात् सुमित्रा के दो पुत्रों लक्ष्मण और शत्रुघ्न का जन्म अश्लेषा नक्षत्र और कर्क लग्न में हुआ अर्थात् चंद्रमा अश्लेषा नक्षत्र के समीप था और कर्क राशि पूर्व में उदय हो रही थी। अन्य ग्रहों की स्थितियाँ वही थीं, जो श्रीराम के जन्म के समय थीं।
पुष्ये जातस्तु भरतो मीनलग्ने प्रसन्नधीः ।
सार्पे जातौ तु सौमित्री कुलीरेऽभ्युदिते रवौ ।। वा.रा. 1/18/15 ॥
अर्थात् सदा प्रसन्नचित्त रहनेवाले भरत का जन्म पुष्य नक्षत्र और मीन लग्न में हुआ था, सुमित्रा के दो पुत्रों, लक्ष्मण और शत्रुघ्न का जन्म अश्लेषा नक्षत्र और कर्क लग्न में हुआ था, अर्थात् चंद्रमा अश्लेषा नक्षत्र में था और कर्क राशि पूर्व में उदय हो रही थी।
दिनांक 11 जनवरी, 5114 वर्ष ई.पू. को 11.30 बजे का लक्ष्मण और शत्रुघ्न के जन्म के समय महर्षि वाल्मीकि द्वारा वर्णित ग्रहों व नक्षत्रों की स्थितियाँ दर्शाता है।
पूर्व दिशा में कर्क राशि का उदय और चंद्रमा अश्लेषा नक्षत्र में थे।
यह माना जाता है कि इसके साथ-साथ सृष्टि के निर्माता ने श्रीराम को उनके महान् कार्यों में सहायता प्रदान करने के लिए अनेक सर्वोच्च शक्तियों और देवताओं को अलग-अलग रूपों में पृथ्वी पर अवतरित होने का आदेश दिया। इसके परिणामस्वरूप, श्रीराम के जन्म के समय अनेक अन्य महान् योद्धाओं का भी जन्म हुआ। सूर्य की ऊर्जा से सुग्रीव का जन्म हुआ, विश्वकर्मा ने नल को जन्म दिया। वरुण ने सुषेन नामक वानर योद्धा को उत्पन्न किया तथा अग्नि ने तेजस्वी नील को जन्म दिया। वानरों में सबसे अधिक बुद्धिमान तथा बलवान हनुमान वायु देवता के औरस पुत्र थे। इन सभी और अन्य बहुत से जन्में हुए महापुरुषों में अनंत शक्तियाँ और क्षमताएँ विद्यमान थीं।