अब नित्य दो-तीन हिन्दू बेटियों की बहिष्कृत मतालंबी पुरुषों के साथ संबंध बनाने की घटनाएँ सामने आ रही हैं।
नीतियों को सुदृढ़ करने से इस समस्या का स्थाई समाधान संभव है। एक सोलह वर्षीय कुमारी को लगता कैसा है? आपने कभी जानने का प्रयास किया कि उसके जीवन में क्या दुःख है?
भावनाओं का एक पहाड़ सा टूट पड़ता है जिसे वह माता, पिता या भाई आदि को खुलकर नहीं कह पाती हैं। अपने माता-पिता के शासन से मुक्त होने की प्रबल इच्छा का उदय होता है।
अपनी प्यारी कहलाने वाली बेटी को पीड़ा सहने के लिए छोड़ देते हैं, वह कैसे रो-रोकर अपने दिन-रात काटती है, कभी सोचा है?
कोई स्त्री दूसरी स्त्री का स्थिर सहारा नहीं बन सकती, यदि ऐसा होता तो स्त्री-स्त्री विवाह उचित है।
आप स्वार्थी हैं, क्या समझेंगे? औपचारिकता के लिए कन्या जिमाते हैं और पुण्य कमाने के लोभ से कन्या पूजन करते हैं। वास्तव में कन्याओं का हित करने की भावना का लोप है लोप है लोप है।
स्त्री और पुरुष शरीर में बहुत अंतर होता है। स्त्री शरीर में बैठा जीव कैसा अनुभव करता है, यह सामान्य व्यक्ति नहीं जान सकता है।
अंत में स्त्री 'बेसहारा' स्त्री के समक्ष जो पुरुष अधिक प्रणय-निवेदन करे उसे समर्पित हो जाती हैं। वर्तमान स्थिति का कामशास्त्र में निरूपण है।
वह सुकोमल बच्ची अपने भीतर की अनियंत्रित वासनाओं और बाहर समाज से अकेले जूंझती रहती है। अपने कलेजा का टुकड़ा कहते हैं किंतु उसे अकेले दूर भेज देते हैं।
समाज का सामना करने के लिए वह पुरुष का वरण करती है या स्वयं पुरुष जैसे बन जाती है। कोई मार्गदर्शन देने वाला भी नहीं होता है।
कामांध व्यक्ति को अच्छे और बुरे का भेद नहीं रहता है। कामशास्त्र के आचार्यों ने कहा कि कामोद्वेग होने पर सारा ज्ञान विलोप हो जाता है।
मुख्य बात है कि प्रणय, निवेदन, विनती, अनुनय, विनय का स्वांग करने में विधर्मी पुरुष बहुत तेज़ होते हैं क्योंकि उनका लक्ष्य स्पष्ट होता है।
कामपरस्त व्यक्ति स्त्री के लिए किसी भी स्तर तक झुक जाता है। कामुक स्त्री को भी किसी मर्यादा का भान नहीं रहता है।
इसे साधारण नहीं समझिए, उस एक पुरुष को लक्ष्य करके स्त्री अपनी समस्त वेदनाओं से निवृत्त होने का प्रयास करती है। यदि ऐसा न करें तो वह काम भीतर से जलाता रहता है।
एक अच्छे माता-पिता व शासक वही है जो सभी प्रकार से अपने अधीन व्यक्तियों को तृप्त रखें अन्यथा वे चोरी से सेवन करते हैं।
एक कहावत है- मुसीबत के समय जो व्यक्ति काम आ जाए उससे बड़ा साथी कोई नहीं होता है।
जब स्त्री को सर्वाधिक किसी की आवश्यकता होती है तब वह विधर्मी पुरुष उपस्थित होते हैं क्योंकि अपने उपभोग और मज़हब का कार्य कर रहे होते हैं इसलिए प्राथमिकता मानकर स्त्री के लिए प्रस्तुत रहते हैं।
वे काम-धंधा, नौकरी करते नहीं हैं और करेंगे तो छोड़ देंगे किंतु उस हिन्दू स्त्री को नहीं छोड़ेंगे जबतक उसका भरपूर शोषण न कर लें।
श्रीमद्भगवद्गीता का वचन है— आसक्ति से काम, काम से क्रोध उत्पन्न होता है। क्रोध से सम्मोह हो जाता है। सम्मोह से स्मृतिभ्रष्ट हो जाती है।
स्मृतिभ्रष्ट होने पर बुद्धि का नाश हो जाता है। बुद्धि का नाश होने पर मनुष्य का पतन हो जाता है।
काम की पूर्ति न होने पर व्यक्ति को क्रोध आता है और अधिक क्रोध आने पर मार देते हैं। सामाजिक पतन के मूल में अनियंत्रित काम ही है।
भारत ही नहीं पूरे विश्व में किसी भी देश में सोलह वर्ष पश्चात क्या कोई स्त्री स्वतंत्र रहती हैं? नहीं। सामान्य पुरुषों में भी आत्मनिर्भर होने की पूर्ण क्षमता नहीं होती है और स्त्रियों का आत्मनिर्भर होना असंभव है। यही स्वाभाविक प्रवृत्ति है।
इसलिए स्वास्थ्य और शील की दृष्टि से सोलह वर्ष होने पर विधिपूर्वक स्त्रियों को योग्य वर का वरण कर लेना चाहिए। आज स्त्रियों को अनेकों स्वास्थ्य संबंधी समस्या हो रही हैं जोकि उनकी दिनचर्या को प्रभावित करती हैं। स्त्रियों के अधिकतर रोग रज संबंधित ही होते हैं, इनका अपनोदन आवश्यक है।
आज अंतरजातीय संबंध एक बड़ी समस्या है। जब माता-पिता अपना दायित्व समझते थे तब ऐसा नहीं होता था। जब स्त्री पुरुषों को स्वतंत्र अविवाहित छोड़ दिया जाएगा तब स्वाभाविक है कि व्यभिचार पनपेगा और इधर-उधर अनेकों संबंध बनाएँगे।
इसलिए नामकरण, अन्नप्राशन आदि संस्कारों की भांति विवाह संस्कार भी समय से कर देना चाहिए। इससे अपने कुल तथा समाज का उत्कर्ष होगा और बच्चे-बच्चियाँ भी मानसिक और शारीरिक रूप से प्रबल रहेंगे।
हमारी बात को प्रमाण मानिए स्त्री हट और स्त्री कठोरता के आगे कोई नहीं टिक सकता है। वे संकल्प कर लें तो माता मरें, पिता पैर पड़ें या संसार नष्ट हो जाए कोई संकल्प को भंग करने का सामर्थ्य नहीं रखता है।
यह जिसे वरण कर लें स्वर्ग ही नहीं नरक तक भी उसका साथ नहीं छोड़ती हैं। यह जिसको चाहें बना दें और जिसको चाहें नष्ट कर दें। यह चाहें तो दुष्ट पुरुष के गुणों का अतिक्रमण करके भी महात्मा को जन्म दे दें और चाहें तो समाज को गर्त में पहुँचा दें।
धर्मशास्त्रों ने कहा है कि छोटी-छोटी विकृतियों से भी कन्या को बचाना चाहिए। पुरुष पर सामान्य विकृतियों का कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ता है किंतु स्त्रियों को सूक्ष्म विकृतियाँ भी बड़ी भूल के लिए उन्मत कर देती हैं। यही अंतर है।
अतएव हमारी बेटियों के साथ न्याय होना चाहिए।
वचन और कर्मों के बीच के अंतर को मिटाना चाहिए। हिन्दू की धार्मिक बातें सुनने में बड़ी अच्छी लगती हैं किंतु कर्मों में खोखले जान पड़ रहे हैं। पिता, भाई और समग्र समाज को अपने दायित्व का यथोचित निर्वाह करना चाहिए।
धर्मशास्त्रों को सभी नहीं समझ सकते हैं इसलिए पहले ब्राह्मण धर्मशास्त्रों को जानते हैं और शास्त्रानुसार जीवन होता है। वेदों में और महाभारत ने भी कहा है कि श्रेष्ठ पुरुषों का अनुकरण समाज करता है। इस दृष्टि से जैसा आचरण ब्राह्मण करते हैं वैसा ही समाज करता है।
अंग्रेज़ों की कूटनीति के कारण ब्राह्मणों को वेदादिशास्त्रों से दूर किया गया जिससे वे दिशाहीन हो गए और कालांतर में समाज भी भटक गया जिसकी छाप देश के नेताओं और नीतियों में दिखने लगी।
अतः मातृशक्ति को उलाहना न देकर मूल शोधन करने की आवश्यकता है।