बीते कुछ दिनों में बहुत कुछ घट गया है। इन घटनाओं ने बहुत कुछ बातें हमारे सामने बिना किसी लुकाव- छिपाव के सामने जस की तस धर दी है। इनसे हम सब कुछ साफ-साफ देख सकते हैं, गर हममें देखने की दृष्टि हो।
भारत के मुखिया के चयन हेतु चुनाव हुए और लगभग सभी की उम्मीदों के विरुद्ध परिणाम आये। कुछ लोग खिन्न मन हतप्रभ रह गए तो कुछ अप्रत्याशित फल प्राप्त होता देख बल्लियों उछल पड़े।
गनीमत रही कि इस बार बेचारी ईवीएम पर कोई लांछन न लगा।
एक चीज तो साफ हुई कि भारत में कोई भी यह दावा नहीं कर सकता कि जो है, बस वही है। दो बार के प्रचंड प्यार ने कदाचित अभिमान में इतनी वृद्धि कर दी थी, जिसने मन में घमंड भर दिया था। या स्वयं को अनवरत दस वर्ष तक खपाते रहने से यह भ्रम हो गया था कि अब तो जनता मुझे भलीभांति जान चुकी है कि मैं जो भी करूँगा, जनता जनार्दन के भले के लिए ही करूँगा, अतः जनता मैं नहीं तो कौन बे, के तर्ज पर मुझे नहीं चुनेगी तो किसे चुनेगी।
गलतियां हुई हैं। ज्यादा नहीं तो छह लोकसभा क्षेत्रों का मुझे व्यक्तिगत अनुभव है कि वहां के सांसद और किसी भी बीजेपी कार्यकर्ता ने तनिक भी प्रयास नहीं किया। पिछले दो चुनावों में उनका बार-बार घर-घर आना याद है, और इस बार बिलकुल ही गायब हो जाना अचंभित करता रहा। वैसे, मैंने एक सांसद के मुख से प्रत्यक्ष सुना कि अरे हमें क्या करना है, मोदी जी के नाम पर वोट तो मुझे ही मिलेंगे। और सच में, वे सांसद महोदय पुनः जीत भी गए, बिना किसी प्रयास के। पर क्या यही तस्वीर पूरे भारत में दिखी?
पिछले लोकसभा और विधानसभा चुनावों में संघ के कार्यकर्ता दिखते थे, इस बार वे भी नहीं दिखे। क्या यह संघ की गलती थी, या पार्टी की? पार्टी ने सच में लगता है कि जीतने का कोई खास प्रयास किया ही नहीं। टॉप नेता भले गर्मी में हाँफते दिखे, पर जमीनी कार्यकर्ता नदारत थे।
राम मंदिर के लिए जब चंदा लिया जा रहा था, 'बालक राम' की प्राणप्रतिष्ठा के समय अक्षत बांटा जा रहा था, तब की भावनाएं शायद ही कोई भूला हो। फिर यह किसकी सोच रही होगी कि इस भावना को वोट में तब्दील न करवाया जाए? आखिर क्या सोचकर राममंदिर निर्माण के नाम पर वोट नहीं मांगे गए?
अयोध्या से भी हार जाना कितनी शर्मनाक बात है।
चलिए, पार्टी की गलती थी। पर जनता!
जनता को क्या कहें? उसे दस वर्ष का काम दिखा नहीं? शौचालय, घर, मुद्रा लोन, गैस वगैरह तो हर नेता अपने मुँह से बोलता ही था, पर क्या सड़क, बिजली वगैरह दिखा ही नहीं किसी को? मोदी से पहले के दस साल में न जाने कितने घोटाले थे, और मोदी के दस साल में कोई सुगबुगाहट भी नहीं। फिर भी यह हाल?
कोई समझाएं कि गर हिन्दू हो तो राम मंदिर, काशी विश्वनाथ कॉरिडोर, कैलाश की सुगम यात्रा, मोदी के हिन्दू परिधान-कर्मकांड-संस्कार देख उसे वोट क्यों नहीं दिया।
कोई समझाए कि अगर प्रगतिवादी हो, विकास चाहते हो तो आँख के सामने होते इंफ्रास्ट्रक्चर विकास, सड़क, रेल, एम्स, आईआईटी, इकोनॉमी देखकर भी वोट क्यों न कर पाए?
क्या जाति ही सब कुछ है? अरे, क्यों है यह सबसे बड़ी चीज? भारत से, हिंदुत्व से भी बड़ा कैसे कर लिया जाति को?
दलित ने, यादव ने, कुर्मी ने, राजपूत या ब्राह्मण ने, जाट ने या मुसलमान ने भी, आखिर जातिगत राजनीति करके, अपनी जाति से आने वाले नेता को चुनकर अब तक के इतिहास में क्या पा लिया है?
मुसलमानों ने पाकिस्तान बनाकर क्या पा लिया? भारत में किसी मुस्लिम नेता को जिताकर भी क्या प्राप्त कर लिया? जो आदमी कहता है कि एक हाथ में कुरान और एक हाथ में लैपटॉप, वह तुम्हें अच्छा नहीं लगता। अच्छा वो लगता है जो ओसामा जी, अफजल जी कहता है। हद ही है।
दलित को, यादव को, बाकी कथित पिछड़ी जातियों को वो अच्छा नहीं लगता जो कहता है कि वो तुम्हें संविधान प्रदत्त आरक्षण को अक्षुण्य रखेगा, उसमें से धर्म के नाम पर किसी और को आरक्षण नहीं मिलने देगा, तुम्हारा हिस्सा नहीं बंटने देगा। आप उसी से छिटक जाते हैं, और उनकी ओर दौड़ पड़ते हैं जो आपके हिस्से को और छोटा करने के लिए कई बार प्रत्यक्ष प्रयास कर चुके हैं और कुछ जगह सफल भी हुए हैं।
प्रतिनिधित्व देने की बात है तो भारत राष्ट्र के सर्वोच्च पद पर, सेना के सर्वोच्च सेनापति के पद पर दलित को बिठाया, फिर आदिवासी को बिठाया, प्रथम नागरिक बनाया, तब भी जी को सुकून न मिला? देश के द्वितीय नागरिक, उप राष्ट्रपति बनकर भी जाट मन को संतुष्टि न मिली?
कैसा तो तुम्हारा राजपूती खून है जो किसी एक व्यक्ति द्वारा किये गए अपमान पर उबल पड़ता है, और तुम उसी व्यक्ति के विरोधी बन जाते हो जो एक-दो नहीं, दशकों नहीं, पाँच सौ सालों से सतत अपमानित राजराजेश्वर, क्षत्रिय कुलभूषण प्रभु श्रीराम को पूर्णतः सनातन रीति से प्रतिष्ठापित करता है।
क्या तो तुम्हारा ब्राह्मणत्व है जो इतनी सी बात नहीं समझता कि तुम्हारा और समाज का कल्याण कोई राजर्षि ही कर सकता है, उसके खिलाफ जाकर तुम अपने महान पूर्वजों द्वारा प्रदत्त उत्तरदायित्व को ही छलनी कर रहे हो।
कई बार तो लगता है कि इतनी भी जो सीटें आईं हैं, वह बस 'हिंदुओं' और विकास की चाह रखने वाले नागरिकों के कारण आई है। बाकी जातिवादियों ने अपने खेमे चुन लिए, और स्वार्थ क्या था कि मेरी जाति का बंदा संसद में पहुंचेगा। 2014 और 2019 में इन सबने भी बीजेपी को ही वोट दिया था, पर जब लगभग काम निकल ही गया, सड़क, पानी, बिजली, घर, राशन, शौचालय, सिलेंडर, मेडिकल वगैरह मिल ही गया, तो क्यों न अब अपने वाले को चुन लिया जाए। दस साल से एक ही चेहरा देख रहे हैं, थोड़ा बदलाव हो जाये।
पार्टी ने भी, और जनता ने भी, अपने-अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारी ही थी, पर दोनों की ही किस्मत कि वार जोर से हुआ नहीं। अभी भी पैर सलामत है। पर दोनों का अगर यही हाल रहा तो आज नहीं तो कल, अंग भंग तो होना ही है।।
जय जय श्री सीताराम!!
अजीत प्रताप सिंह की कलम से................