ब्रह्मजी का श्री विष्णु की नाभि से जन्म लेना एवं शिशु का माँ की नाभि से पहला प्राण ग्रहण करना, जीवन का सम्यक् ज्ञान है नाभि …..
इसी क्रम में महर्षि पतंजलि नाभिकेन्द्र के महत्त्व को प्रकट करते हैं-
नाभिचक्रे कायव्यूहज्ञानम् ।। ३/२९ ॥
शब्दार्थ = नाभिचक्रे = नाभिचक्र में (संयम करने से); कायव्यूहज्ञानम्=
शरीर के व्यूह (उसकी स्थति) का पूरा-पूरा ज्ञान हो जाता है।
भावार्थ = नाभिचक्र पर संयम सम्पन्न करने से शरीर की सम्पूर्ण संरचना का ज्ञान प्राप्त हो जाता है।
सत्य को समझने के लिए गहरे उतरने की जरूरत है। अन्तर्यात्रा विज्ञान के प्रयोगों व प्रक्रियाओं को अधिक प्रगाढ़ व परिपक्व करने की आवश्यकता है।
इनकी गहराई बढ़ने के साथ ही परत-दर-परत, नए-नए सत्यों का सामना होता है। जीवन की, चेतना की नयी-नयी परतें खुलती हैं। नये द्वार, जो स्पष्ट करते हैं कि दृश्य के पीछे अदृश्य सच्चाई कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण है। इसे समझे बिना ज्ञान का ढांचा अधूरा है, अपूर्ण है। इस अधूरेपन व अपूर्णता को लेकर गढ़ी गयी परिभाषाएँ भी अधूरी व अपूर्ण बनी रहेंगी।
आधुनिक चिकित्सा विज्ञान की कई तरह से सराहना की जाती है। इसकी कुछ बातें सराहनीय हैं भी। किंतु इसके ढाँचे में, इसकी सम्पूर्ण व्यवस्था में भारी अपूर्णता है। तथ्य पर विचार करें तो सत्य समझ में आ जाता है, आधुनिक चिकित्सा शास्त्र के विद्यार्थी अपना सारा ज्ञान मृत शरीर के आधार पर अर्जित करते हैं, किंतु अपने इस अर्जित ज्ञान को वह आजमाते जीवित शरीर पर हैं। मृत शरीर जैव ऊर्जा, प्राण ऊर्जा, विद्युत चुम्बकीय ऊर्जा, मनो ऊर्जा एवं भाव ऊर्जा के विविध आरोह-अवरोध से रहित होता है,शरीर में होने वाली बीमारियाँ, मानसिक रोग इन ऊर्जा प्रवाहों की विविधता में होने वाले व्यतिक्रम से पनपते हैं। यदि चिकित्सक में इन सभी के सम्यक् ज्ञान का अभाव है तो उसकी चिकित्सा अपूर्ण ही तो कही जाएगी।
योग विज्ञान में तारे व नक्षत्र जीवन के, ऊर्जा की विविधता के विभिन्न केन्द्र हैं। इनका ज्ञान होने से न केवल जीवन को सही ढंग से जाना जा सकता है, अन्यथा उसका सम्यक् रीति से सदुपयोग भी किया जा सकता है। उदाहरण के लिए जिन्होंने अपनी आँखों में जीवन केन्द्र को सम्पोषित किया है, वे अगर किसी की तरफ देख लें तो ऐसा लगेगा, जैसे आशीष बरस गए हों। ऐसे व्यक्ति के देखने से सामने वाला व्यक्ति आनन्द से भर जाता है। उसकी दृष्टि से जीवनदायी अमृत बरसता है।
बड़ा ही महत्त्वपूर्ण सूत्र है यह नाभि सम्पूर्ण शरीर का केन्द्र है। इसी के द्वारा व्यक्ति को माँ के गर्भ में पोषण मिलता है। गर्भ के नौ महीनों में केवल नाभि केन्द्र द्वारा पोषण पाकर बच्चा जीवित रहता है। अपने गर्भकाल में बच्चा नाभि के माध्यम से जुड़ा रहता है। यही उसके जीवन का स्त्रोत व सेतु होता है। जन्म के बाद नाभि केन्द्र से जुड़ी रज्जु काट दी जाती है। तब बच्चा अपनी माता से अलग होकर अपना स्वतंत्र अस्तित्व पाता है। जन्म के बाद इस नाभिकेन्द्र की महत्ता समाप्त हो जाती हो, ऐसा नहीं है। इसका महत्त्व तो यथावत बना रहता है, परन्तु लोग इसके उपयोग-सदुपयोग की बात भूल जाते हैं।
अन्तर्यात्रा विज्ञान में, योग के साधना क्रम में नाभि केन्द्र पर संयम करके शरीर संरचना का ज्ञान पाया जाता है। शरीर की संरचना जितनी जटिल है, उतनी ही रहस्यपूर्ण । बहुत कोमल व नाजुक होता है मानव शरीर। इसमें लाखों-लाख कोशिकाएँ एवं हजारों नस-नाड़ियाँ होती हैं। इन सभी की बड़ी सम्यक्,विचित्र व स्वचालित व्यवस्था है। आधुनिक युग के वैज्ञानिक समुदाय ने बड़ी जटिल यन्त्र व्यवस्थाओं का निर्माण कर लिया है। किंतु यदि इसकी तुलना शरीर से की जाय तो वे कुछ भी नहीं हैं।
नाभिकेन्द्र को समझ लेने से शरीर की इस अद्भुत व्यवस्था को जाना जा सकता है। शरीर का हर अंग कुछ इस ढंग से बना है, जो स्वयं में पूर्ण है। उदाहरण के लिए भोजन, जब हमें भूख लगती है, जब हमारा पेट भर जाता है, वैसे ही हमें संकेत मिल जाता है। शरीर भोजन का पाचन करता है, इससे ही रक्त, हड्डी, मांस, मज्जा का निर्माण होता है। यही नहीं, इस प्रक्रिया में जो व्यर्थ के पदार्थ एवं विषाक्तता होती है, उसे शरीर बाहर फेंक कर अपने को स्वच्छ कर लेता है। शरीर की विभिन्न प्रक्रियाओं में एक निरन्तरता है। हर पल न जाने कितनी कोशिकाएँ मरती हैं, अनगिन नयी कोशिकाओं का नव निर्माण होता है। ये सभी कार्य स्वचालित ढंग से, सुव्यवस्थित रीति से किए जाते हैं। मनुष्य यदि जीवन के सहज स्वभाव का अनुसरण करे तो शरीर स्वयं में बहुत ही सुन्दर एवं सुव्यवस्थित रीति से कार्य करता रहता है।
नाभिकेन्द्र के द्वारा शरीर की न केवल स्थूल संरचना को बल्कि सूक्ष्म संरचना को भी जाना जाता है। योग विज्ञान ने शरीर विज्ञान को इसी ढंग से जाना है। योग का शरीरविज्ञान अन्तर्यात्रा विज्ञान से प्रकट हुआ है। वैसे भी मृत व्यक्ति का सच, जीवित व्यक्ति के सच से पर्याप्त भिन्न होता है। योग में अन्तर्जगत के माध्यम से शरीर विज्ञान की प्रक्रियाओं का जाना गया है। योग के द्वारा शरीर विज्ञान को जीवन की जागरूकता और होश के माध्यम से आविष्कृत किया है। यही वजह है कि अनेकों बातें ऐसी हैं, जिनकी बात योग करता है, आधुनिक शरीर विज्ञान उससे सहमत नहीं है क्योंकि; आधुनिक शरीर विज्ञान मृत व्यक्ति की लाश के आधार पर सारे निर्णय लेता है जबकि योग विज्ञान का सीधा सम्बन्ध जीवन से है ।
बात विचार करने की है। विद्युत प्रवाह जिस समय तार से होकर गुजर रहा है, उस समय यदि तार को काटा जाय तो वह अनुभव अलग होगा।
नाभिकेन्द्र पर संयम करके इसे सम्भव बनाया जा सकता है। इस प्रकार के संयम से उस क्षण का भी यथार्थ ज्ञान मिल सकता है जब गर्भ निर्माण की प्रक्रिया आरम्भ हुई। उस क्षण के बाद से शरीर के विकास की निरन्तरता, अंग- अवयवों का निर्माण, ऊर्जा प्रवाहों की विविधता, इसमें आने वाले व्यतिक्रम, व्यतिरेक, फिर इनके समाधान सभी कुछ का ज्ञान सम्भव है। इतना ही क्यों ? नाभिचक्र को यदि सही ढंग से सक्रिय व संचालित कर लिया जाय तो शरीर फिर से प्रकृति से पोषण पा सकता है।
जो जीवन के सत्य को जानते हैं, जिन्हें योगविद्या, अन्तर्यात्रा विज्ञान का अनुभव है, उन्हें यह भी पता है कि नाभिचक्र सबसे पहले जीवन का, जीवात्मा का, जन्मदायिनी माता से परिचय करता है, उससे पोषण की व्यवस्था जुटाता है। यह बात अलग है कि जन्म लेने के बाद हम सभी इसका महत्त्व भूल जाते हैं परन्तु बाद में जो इसका महत्त्व पहचान लेते हैं, जो नाभिचक्र पर संयम की विधि जान लेते हैं, वे पुनः माता से परिचय पा लेते हैं। अबकी बार यह माता जन्मदायिनी नहीं, जीवनदायिनी होती है। इसे स्वयं प्रकृति कहें या आदिमाता अथवा आदिशक्ति, नाभिचक्र के माध्यम से जीवन का पोषण करने लगती है। श्वास को फेफड़ो तक नही नाभि तक लेने से तथा सुखासन में बैठने पर श्वास पर ध्यान लगाने से जीवन बदल जाता है ये ज्ञान शत शाश्वत् सत्य है...