१. बन्धन, उच्चाटन, में 'हूं'
२. विद्वेषण-कार्यों में 'फट्'
३. भूत-प्रेतादि शांति में 'हुं फट्'
४. शुभ कार्यों में 'वषट्'
५. यज्ञादि में 'स्वाहा'
६. पूजन-कार्यों में 'नमः'
७. पुष्टि, पुत्रादि कार्यों में 'स्वाहा'
८. प्रबल वशीकरण में 'स्वधा'
६. परस्पर-विद्वेष कार्यों में 'वषट्'
१०. आकर्षण में 'हूं'
यदि आप किसी भी मंत्र का जाप कर रहे है इष्ट या गुरु मंत्र का आपने क्या ये मंत्र की गति अपने भीतर आभास की है ?
1. यदि बाई नासिका से श्वास चलता है, तो 'सौम्य मंत्र जाग्रत होते हैं।
2. यदि दोनों नासिका-रन्ध्रों से श्वास चलता हो उस समय सभी मंत्र जाग्रत होते हैं।
3. जिस समय जो मंत्र जाग्रत हो, उसी का जप करने से सफलता मिलती है।
4. जिस मंत्र के अन्त में 'स्वाहा' शब्द का प्रयोग होता है वे 'स्त्री संज्ञक' मंत्र कहलाते हैं।
5. जिन मंत्रों के अन्त में 'हुँ' या 'फट्' शब्द का प्रयोग होता है उन्हें 'पुरुष-संज्ञक' मंत्र कहते हैं ।
6. जिन मन्त्रों के अन्त में 'स्वाहा' शब्द का प्रयोग होता है उन्हें 'नपु'सक संज्ञीय' मंत्र कहा जाता है।
7. जिन मंत्रों के अन्त में ओ३म्(Om) का प्रयोग हो उन्हें 'आग्नेय मंत्र' कहा जाता है।
8. पुरुष-संज्ञक मंत्रों का प्रयोग वशीकरण, अभिचार आदि कार्यों में किया जाता है।
9. स्त्री-संज्ञक मंत्र शत्रु व्याधि नाश रोग नाश कार्यों में किया जाता है।
I0. अन्य सभी कार्यों में नपुंशक-संज्ञक मंत्रों का प्रयोग होता है।
1. शांति कार्यों में नमः शब्द, स्तंभन में वषट्, वशीकरण में स्वाहा, उच्चाटन में 'हुँ' तथा मारण- कार्यों में 'फट्' शब्द का प्रयोग करना चाहिए।(यहाँ मारण का अर्थ मृत्यु देना नही अपितु रोगी शरीर को मंत्र पढ़ गंगाजल देकर मुक्ति देने से है) ये शब्द मंत्र के अन्त में लगाने चाहिए ।
2. मंत्रों की भी अलग-अलग जातियाँ हैं। एक वर्ण वाले मंत्र को 'कर्तरी', दो अक्षर वाले मंत्र को 'सूची', तीन अक्षरों वाले को 'मुद्गर, चार को 'मुसल', पंचाक्षरीय मंत्र को 'क्रूर', पडक्षर को 'शृंखला', सप्ताक्षरीय मंत्र को 'क्रकच', अष्टाक्षर को 'शूल', नवाक्षर को 'वज्र', दशाक्षर को 'शक्ति', एकादशाक्षर को 'परशु', द्वादशाक्षर को 'चक्र', त्रयोदशाक्षर को 'कुलिश', चतुर्दशाक्षर को 'नाराच', पंचदशाक्षर को 'भुशुंडी' एवं षोडपाक्षरीय मंत्र को 'पद्म' के नाम से संबोधित किया जाता है।
3. अलग-अलग कार्यों के लिए अलग-अलग जाति के मंत्रजप का विधान है। मंत्र-छेदन में 'कलंरी', भेद-कार्यों में 'सूचो', मंजन कार्यों में 'मुद्गर', क्षोम में 'मुसल', बन्धनादि में 'श्रृंखला', छेदन-कार्यों में 'क्रकम,' घात-कर्म में 'शूल', स्तम्मन भादि सिद्धि में 'वज्र', बन्धन में 'शक्ति', विद्वेषण में 'परशु', सभी प्रकार के कार्यों में 'चक्र', उत्साद में 'कुलिश', मारण-कार्यों में भूषुण्डी शक्ति-कार्यों में 'पद्म' मंत्र का प्रयोग करना चाहिए ।
4. जिस मंत्र के प्रारम्भ में नाम लिया जाता है, उसे 'पल्लव' मंत्र कहते हैं।
5. जिस मंत्र के अन्त में नाम लेने का विधान हो उसे 'योजन' मंत्र कहा जाता है ।(देवता तथा इष्ट नाम)
6. नाम के प्रारम्भ, मध्य या अन्त में मंत्र होने से उसे 'रोध' मंत्र कहा जाता है।
7. नाम के प्रत्येक अक्षर के पीछे जो मंत्र होता है, उसे 'पर' नाम की संज्ञा दी जाती है।
8. नाम के प्रारम्भ में मंत्र तथा अन्त में वही विलोम मंत्र देने से उसे 'सम्पुट' मंत्र कहा जाता है।(ॐ कालिके क्री क्री नमः क्री क्री कालिके ॐ) ऐसे
9. दो अक्षर मंत्र के फिर दो अक्षर नाम के इस प्रकार क्रम करने से उस मंत्र को 'विदर्भ मंत्र' की संज्ञा दी जाती है।
10. मंत्र के बीच में नाम ग्रथित (बांधा) होने पर उस मंत्र को "वेषण' मंत्र कहा जाता है।
11. मारण, उच्चाटन, विद्वेषण आदि कार्यों में 'पल्लव' मंत्र का प्रयोग करना चाहिए ।
12. वशीकरण, शांति, मोहन आदि कार्यों में 'योजन' मंत्र का प्रयोग किया जाता है।