प्राचीन भारतीय समाज में नारियों का सम्मान और आदर आदर्श रूप में था। वह माता पत्नी पुत्री बहन आदि के रूप में परिवार में आदृत थी। समाज उसके प्रति श्रद्धा और आस्था रखता था। धर्म शास्त्रों में तो शक्ति रूप में आस्था की विषय वस्तु थी। इन सब के बाद भी प्राचीन भारत में नारियों की स्थिति सदैव सामान नहीं रही। विभिन्न कालों मे उनकी स्थिति परिवर्तनशील थी। संक्षेप में उनकी विभिन्न कालों में स्थिति का विवरण निम्नलिखित रूप से प्रस्तुत किया जा सकता है।
सैधव सभ्यता युगीन नारी:
भारत के प्राचीनतम माने जाने वाली सेंधव सभ्यता में नारियों की स्पष्ट स्थिति जानने के स्रोत उपलब्ध नहीं है। विभिन्न पूरा स्थलों से प्राप्त पूरा अवशेषों के आधार पर विद्वानों ने उनकी स्थिति का आकलन किया है। मोहनजोदड़ो हड़प्पा चन्हूदरो आदि स्थलों से नारियों की मृण्मूर्तियां बहुतायत रूप से प्राप्त हुई हैं। सर जान मार्शल अर्नेस्ट मैके ने इन नारी मूर्तियो के आधार पर यह स्थापित किया कि उस समय मातृ देवी की पूजा का प्रचलन था। कतिपय मूहरो पर नारी के सर्जनात्मक शक्ति को प्रतिको के रूप में भी दर्शाया गया है। इस आधार पर नारी के सुखद पूज्य और गरिमामय स्थिति का अनुमान किया जा सकता है।
ऋग्वैदिक युग की नारी:
विश्व के प्राचीनतम साहित्य ऋग्वेद में नारियों की जो स्थिति दिखती है वह अत्यंत गरिमामय है। पुरुषों की तुलना में वह किसी भी प्रकार से निम्न या अनुन्नत नहीं थी। ऋग्वेद में नववधू को ससुर गृह की साम्राज्ञी कहा गया है। वह पति के साथ मिलकर घर के याज्ञिक कार्यों में सहयोग करती थी। इन्हें शिक्षा का पुरुषों के समान ही अधिकार प्राप्त था। ये वैदिक विचारों का प्रणयन करती थी। ऋग्वेद में ऐसी 20 कवित्रियों का उल्लेख प्राप्त होता है। इसमें प्रमुख है रोमसा, आपला, उर्वशी, विश्ववारा, सिक्ता, घोषा, लोपामुद्रा, निवावरी। इस समय की नारी स्वयं को परम शक्ति संपन्न घोषित करती है। ऋग्वेद में वर्णित अम्भृण ऋषि की कन्या स्वयं को इंद्र वरुण अश्विनी की स्वामी रुद्र के धनुष को तानने वाली और ब्रह्म के वैरियो को मारने वाली कहती है। पति की अनुपस्थिति में भी वह आहुतियां करती थी। विश्ववारा स्वयं आहुति देती थी। पति-पत्नी दोनों गृहपत्य अग्नि की रखवाली करते थे। यद्यपि ऋग्वेद में इसे दायाधिकारी नहीं माना गया है, पर भाई के अभाव में यही पिता के संपत्ति की स्वामी थी। इस काल में स्त्रियों को आदर सम्मान और पुरुषों के बराबर अधिकार प्राप्त था। यह स्त्रियों के लिए स्वर्ण काल जैसा था।
उत्तर वैदिक से छठी शताब्दी ईसा पूर्व तक की स्थिति:
उत्तर वैदिक साहित्य में भी कमोबेश हमें स्त्रियों के लगभग उसी स्थिति के दर्शन हो जाते हैं जैसे ऋग्वेद में थे। तैत्तिरीय ब्राम्हण मे स्त्री और पुरुष दोनों यज्ञ रूपी रथ के जुड़े हुए दो बैल बताए गए हैं। यज्ञ में उनकी अनिवार्यता अब भी थी। वयस्क आयु में ही विवाह किए जाते थे। पत्नी शब्द ही उसकी पुरुष से समकक्षता को स्पष्ट करता है। शतपथ ब्राह्मण में कहा गया है कि बिना पत्नी के मनुष्य अपूर्ण होता है। उनकी स्थिति में अत्यंत गिरावट की भी सूचना प्राप्त होती है। मैत्रायणी और तैत्तिरीय संहिता में इनका वर्गीकरण जूए और मदिरा के साथ हुआ है। लेकिन अथर्ववेद से ज्ञात है कि वह सार्वजनिक सम्मेलनों में भाग लेती थी। यास्क के अनुसार वह अपने वाद के लिए न्यायालय में जाती थी। उनका यज्ञोपवित संस्कार होता था। वह ब्रह्मवादिनी के रूप में जीवन भर ब्रह्मचर्य रख कर शिक्षा ग्रहण करती थी। इस काल में भी मैत्री गार्गी जैसे विदुषियों के उल्लेख मिलते हैं। शिक्षा के बाद गृहस्थ जीवन जीने वाली स्त्री साधोवधु कहीं जाती थी। सूत्रों के आते आते स्त्रियों पर अनेक वर्जनाए धोप दी गई। उनकी स्थिति आवला असहाय और परतंत्रता की हो गई, लेकिन ऐसी स्थिति के लिए यह काल अभी प्रारंभिक काल कहा जा सकता है।
महाकाव्यो में नारी:
महाकाव्यो में नारी के अच्छे और बुरे दोनों स्थितियों के दर्शन होते हैं। उनकी स्वतंत्रता और स्वच्छंदता में कोई विशेष प्रतिबंध नहीं लगा था। रामायण में सीता और महाभारत में द्रौपदी कुंती माद्री का विवरण इसका उदाहरण है। सामाजिक और धार्मिक गतिविधियों में उनका योगदान था। महाभारत के अनुसार उनकी अनुपस्थिति में सारे कार्य अपूर्ण हैं। रामायण में आया है कि अश्वमेध में राम को सीता की अनुपस्थिति से स्वर्ण प्रतिमा रखनी पड़ी। इस युग में नारी पूजा पूर्णतया प्रतिष्ठित थी। शिक्षा के क्षेत्र में भी नारिया अग्रणी थी। कुंती द्रौपदी उत्तरा कैकेयी ही आदि उच्च शिक्षित महिलाएं थी। इन सब के बाद भी नारी वस्तु हो गई थी इसे धनादि के साथ जूए में हारा जीता जाता था।
छठी शताब्दी ईसा पूर्व से मौर्य काल तक:
बौद्ध ग्रन्थो में नारियों की स्थिति के दर्शन होते थे। संयुक्त निकाय में कहा गया है कि गुणवती कन्या को पुत्र से भी अच्छा समझना चाहिए। शिक्षा के क्षेत्र में इनका सहयोग महत्वपूर्ण था। विद्या धर्म और दर्शन के प्रति उनकी अगाध रुचि थी। थेरी गाथा में 32 ब्रह्माचारिणी 18 विवाहित भिक्षुणीयो का वर्णन है। नारियां बौद्ध आगमों की शिक्षिका के रूप में विख्यात थी। शुभा सुमेधा खेमा अनोपम सुभद्रा भद्रकुण्केशा ऐसी नारियां थी जिनकी विद्वता दूर-दूर तक विख्यात थी। जैन साहित्य भी ऐसी नरियों के वर्णन से भरे हैं। कौशांबी नरेश की पुत्री जयन्ता ज्ञान और दर्शन में पारंगत थी। पाणिनि सूचित करते हैं की नारियां शिक्षिका के रूप में भी जीवन चलाती थी। यह उपाध्याया कही जाती थी। महिला शिक्षा शालाओं का उल्लेख पणिनि ने किया है। इस काल में स्त्रियों को कुछ हीन समझा जाता था। बुद्ध ने बड़ी कठिनता से उन्हें संघ में प्रवेश की आज्ञा दी।
मौर्य उत्तर एवं गुप्त काल तक:
मौर्य के बाद और गुप्तों के कल तक स्थिति में परिवर्तन हो चुका था। अधिकांश स्मृतियों में उनकी स्थिति अत्यंत निम्नतर हो गई थी। इसा पूर्व दूसरी सती तक उपनयन वेद अध्ययन आदि संस्कार उनके लिए वर्जित कर दिए गए। मनु के शब्दों में पति ही कन्या का आचार्य विवाह, उनका उपनयन पति सेवा ही उनका आश्रम और गृह के कार्य ही उनके धार्मिक अनुष्ठान है उन्हें शूद्रों की कोटि में खड़ा कर दिया गया। इस संबंध में सभी स्मृतिकार एकमत है स्मृतियों मे उनकी आलोचना की गई। उन्हें स्वतंत्रता के योग्य नहीं माना गया। मनु ने लिखा। लेकिन व्यवहार में उनका आदर भी था। मनु ने ही लिखा है कि "यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमंते तत्र देवता" अर्थात जहां नारियो की पूजा होती है वहां देवता विचरण करते हैं। पतंजलि ने भी शिक्षिकाओं का वर्णन किया है। पुराणों में हमें दोनों स्थितियों के दर्शन होते हैं। पुराणों में भुवना अपर्णा एकवर्णा एक पाटला मेना धारिणी आदि अनेक ब्रह्मवादिनी और विदुषी नारियों का वर्णन है। ललित कलाओं में भी ये पारंगत थी। लेकिन नारियों से संबंधित अधिकांश कुरीतिया भी इस कल तक उत्पन्न हो चुकी थी, जैसे बाल विवाह, विधवा, दासी, नारी परतंत्रता आदि अभिजात वर्ग में पर्दा प्रथा प्रारंभ हो गया। भृच्छकटिकम ललितविस्तार आदि में उदाहरण मिलते हैं। उनको संपत्ति के अधिकार तो थे लेकिन पुरुषों के बाद ही इनके दायाधिकार की गणना की जाती थी।
गुप्तोत्तर काल में नारी600 ईसा पूर्व से 1200 ईसा पूर्व तक:
पूर्व मध्यकाल में नारियों की स्थिति रूढियो में फस गई थी। सती प्रथा, पर्दा प्रथा, बाल विवाह आदि कुरीतियों ने समाज को आच्छादित कर दिया। टीकाकरण मेघातिथि विज्ञानेश्वर विश्वरूप अपरार्क ने नारी के लिए गृह शिक्षा की ही व्यवस्था रखी। अभिजात वर्ग से ही उच्च शिक्षित महिलाएं उदित होती थी। पुत्रियां दुख समझी जाने लगी। कथा सरित्सागर के अनुसार पुत्र सुख का प्रतीक और पुत्रियां दुख का मूल है। यधपि कुछ विदुषी और राजशास्त्र में प्रवीण नारियों के उदाहरण भी प्राप्त है। रेखा रोहा माधवी अवंती सुंदरी मंडनमिश्र की पत्नी प्रभावती गुप्ता राजश्री नैनिका दिद्दा सुगंध अक्का देवी भैला देवी जैसी कवित्रियों और शासिकाओं के वर्णन मिलते हैं। इस युग में वेश्यावृत्ति का भी प्रसार हुआ संपत्ति के अधिकार स्मृतियों के समान ही रहे।

