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कागभुसुंडी जी गरुड़ जी से कहते हैं ।
है पक्षी राज गरुड़ जी ।
अवध का प्रभाव जीव तभी जानता है।
जब हाथ में धनुष वाण धारण करने वाले श्री राम जी उसके हृदय में निवास करते हैं।
*अवध प्रभाव जान तब प्राणी।*
*जब उर बसहिं राम धनु पानी।।*
अब मैं अपनी कथा सुनाता हूं जिस कारण से मुझे श्री राम जी के प्रति संसय हुआ था।
*जेहि विधि मोह भयऊं प्रभु मोही सोऊ सब कथा सुनावऊं तोही।।*
मुझे तो भगवान की इस माया ने तब मोहित किया।
जब मेरा जन्म अवधपुरी में ही हुआ था ।
मैं बहुत वर्षों तक अयोध्या पुरी में रहा।
और उस समय अवधपुरी में अकाल पड़ गया।
*जेहिं कलिकाल बरष बहु।*
*बसेऊं अवध बिहगेस परेउ दुकाल बिपति बस तब मैं गयऊं बिदेस।।*
अकाल पड़ने पर सब लोग बीमारी से ग्रसित होकर मरने लगे मेरा भी परिवार नष्ट हो गया।
मेरे मन में यह संसय हुआ।
कि जिस अवधपुरी के रक्षक स्वयं श्री राम जी हैं।
वह भी इस अवधपुरी को अकाल से नहीं बचा पाए।
इस अवधपुरी की रक्षा नहीं कर पाए ।
तो पूरे ब्रह्मांड की रक्षा कैसे कर पाते होंगे।
यह परमात्मा नहीं हो सकते हैं। मेरे मन में यह कुतर्क आया।
यदि मेरे मन में यह सद्विचार आ जाता कि जो कुछ हुआ सब भगवान की माया के कारण ही हुआ है।
अकाल पड़ा इसका भी कोई कारण ही होगा।
प्रभु की माया ही रही होगी।
किन्तु मेरा दुर्भाग्य देखो।
इस अकाल से मैंने भगवान के होने और नहीं होने का निर्णय ले लिया।
फिर मैंने विचार किया।
जाकर देखता हूं ,कि अकाल कहां नहीं पड़ा हुआ है।
मैं घूमते फिरते दुखी मन से उज्जैन आ गया
*गयऊं उजेनी सुनु उरगारी।*
*दीन मलिन दरिद्र दुखारी।।*
उज्जैन नगरी में मैंने आकर देखा।
कि यहां अकाल नहीं पड़ा था। मालवा प्रांत की भूमि थी ।
बहुत उपजाऊ थी।
सब लोग संपन्न थे।
मुझे लगा कि यह नगरी भगवान शंकर की है ।
यहां अकाल पड़ा हुआ नहीं है। भगवान शिव यहां के रक्षक हैं। और भगवान शिव ही परमात्मा है ।मुझे भगवान शिव के प्रति आशक्ति हो गई।
मैं भगवान शिव को अपना इष्ट देव मानने लगा।
भगवान शिव ही इस ब्रह्मांड के नायक है।
यह मेरे मन की धारणा बन गई थी।
सच्चे मन से मैं भगवान शिव का भक्त हो गया था।
भगवान शिव के मन्दिर में
एक ब्राह्मण देवता थे।
वह वेद विधि से भगवान शिव का पूजन किया करते थे।
उनका और कोई दूसरा काम नहीं था।
मैं अपने स्वार्थ बस कपट पूर्वक उनकी सेवा करने लगा।
*तेहि सेवऊं मैं कपट समेता*
नम्रता मेरा गुण नहीं था।
सेवा केवल अपने स्वार्थ के लिए मेरा अभिनय था।
नम्रता केवल दिखावा था।
मन में छल कपट भरा हुआ था।
ब्राह्मण देवता बड़े दयालु थे। उन्होंने मेरी नम्रता देखकर मुझे शरण दी ।
पुत्र की भांति मुझे पड़ाया।
*बाहिज नम्र देखि मोहि साई।*
*बिप्र पढाव पुत्र की नाई।।*
गरुड़ जी ने यहां कागभुशुण्डि जी से प्रश्न किया ।?
कि विद्या पाकर तो तुम बहुत नम्र हो गए होंगे?
क्योंकि विद्या ददाति विनयम।?
कागभुशुण्डि जी ने कहा विद्या पाकर भी मैं विनम्र नहीं हुआ। मेरी स्थिति वही रही।
जिस प्रकार की नाग को दूध पिलाने से उसका जहर बढ़ता है।
*अधम जाति मै विद्या पाएं।*
*भयऊं जथा अहि दूध पिआंए।।*
विद्या पाकर में अहंकारी हो गया।
मेरा अभिमान और बढ़ गया।
अब मैं भगवान शिव का भक्त हो गया था।
मेरा आज्ञान तो देखिए।
भगवान शिव का भक्त हो गया था, यहां तक तो ठीक था।
किंतु अब में विष्णु भक्त लोगों से विद्रोह करने लगा।
उन्हें देखकर उनसे मुझे ईर्ष्या होने लगी।
संत कहते हैं।
परमात्मा सर्वत्र व्याप्त है।
कण-कण में है ।
परमात्मा को जो जिस रूप मे भजता है।
परमात्मा उसे उस रूप में स्वीकार करते है ।
विडंबना समाज की यह है।
कि वह एक दूसरे का खंडन करते हैं।
जबकि सब लोगों को अपने गुरु के बताए हुए मार्ग पर चलना चाहिए।
कोई भगवान शिव को कोई भगवान कृष्ण को कोई भगवान श्री राम जी को ।
जबकि होना यह चाहिए कि गुरु आज्ञा से अपने गुरु के द्वारा सुझाये गये मंत्र और विधि का पालन करते हुए सब अपनी अपनी पूजा पद्धति पर अडिग रहे।
जो जिस भाव से अपने इष्ट को भजता है उसे भजने दो।
उनके गुरु ने जो मार्ग उन्हें बताया है
उनका खंडन नहीं करना चाहिए। आप आपके गुरु के बताए हुए मार्ग के अनुसार मन में विश्वास करते हुए अपने इष्ट प्रभु का सुमिरन भजन कीजिएगा।
किंतु यदि कोई और अन्य साधन से परमात्मा को भजता है तो उसका खंडन नहीं करना चाहिए।
उसकी श्रध्दा को ठेस नहीं पहुंचाना चाहिए।
कागभुशुण्डि जी कहते हैं।
है गरुड़ जी।
मैं भगवान शिव को अपना इष्ट मानने लगा था।
बहुत अच्छी बात थी कोई बुराई नहीं थी।
किंतु बीमारी मुझे यह हो गई कि , विष्णु भगवान को मानने वालों से मैं ईर्ष्या करने लगा था।
विष्णु भक्त मुझे सुहाते नहीं थे।
मेरे गुरु देव बड़े दयालु थे ।
मुझे कई बार समझाया कि देखो।
भगवान विष्णु का विरोध मत करो।
भगवान शिव भी भगवान विष्णु को ही दिन-रात भजते हैं ।
तुम इस तरह लोगों से ईर्ष्या करना छोड़ दो।
यह अच्छी बात नहीं है ।
किंतु मैं तो अहंकारी था।
अपने गुरु के ही के बारे में मन में सोचने लगा।
कि, गुरु जी को कुछ आता जाता नहीं है।
गुरु जी कुछ जानते नहीं है।
मुझे भगवान शिव का भक्त होने का अहंकार हो गया।
गुरुजी से विद्या पाकार में सत्संग प्रवचन करने में बड़ा निपुण हो गया था।
गुरुजी तो वृद्ध हो चुके थे ।
उनकी भाषा शैली इतनी स्पष्ट नहीं रह गई थी।
और मैं बड़े अच्छे ढंग से कथा वाचन करने लगा था।
सभी लोग मेरे प्रवचनों को बड़े आनन्द से सुनते थे ।
अब मेरी दृष्टि में गुरु का कोई मूल्य नहीं था।
एक समय मैं मंदिर में भगवान शिव के मंदिर में ध्यानस्थ अवस्था में बैठा था।
उसी समय गुरु जी का आगमन हुआ।
*अब यह प्रसंग अगली पोस्ट में जय श्री राम।।*🙏🚩