एक बार गुरु वशिष्ट जी
जहां सुखों के धाम श्री राम जी विराजमान थे वहां आए।
*एक बार बशिस्ट मुनि आए।*
*जहां राम सुखधाम सुहाए।।*
भगवान श्री राम जी ने गुरुदेव का आदर किया ।
चरण वंदना की चरणों को धोए चरणों में प्रणाम किया।
गुरुदेव का तिलक किया।
पूजन किया आरती उतारी।
गुरु वशिष्ट जी ने राम जी को आशीर्वाद दिया।
फिर बसिष्ठ जी ने कहा राम जी।
सब कुछ हो गया या और कुछ सेष है?
राम जी ने कहा हां गुरुदेव सब कुछ हो गया।
गुरुदेव ने कहा कि अब कक्ष में चलो।
मुझे आपसे कुछ बातें करनी है।
श्री राम जी गुरुदेव को कक्ष में ले आए।
वशिष्ठ जी ने कहा कि दरवाजा बंद कर दो।
गुरु जी की आज्ञा मानकर श्री राम जी ने दरवाजा भी बंद कर दिया।
गुरु वशिष्ट जी ने कहा कि राम तुम आसन पर बैठो।
राम जी ने कहा गुरुदेव आप मेरे गुरु हो।
आसन तो आपके लिए है।
आसन पर तो आप विराजमान होइए।
वशिष्ठ जी ने कहा राम जी।
अब तक बहुत हो चुका है।
तुमने मुझे बहुत आसान पर बिठाया है।
मेरी बहुत सेवा की है। बहुत चरण दबाएं हैं।
किंतु आज यह दृश्य मंच का दृश्य नहीं है।
आज का यह दृश्य परदे के पीछे का दृश्य है।
इसे केवल मैं और तुम जान रहे हैं।
इसलिए मेरी बात आज ध्यान से सुनो।
मैं तुम्हें अपने मन की बातें बताना चाहता हूं।
आपकी महिमा को वेद भी नहीं जानते हैं।
फिर मैं किस प्रकार कह सकता हूं।
किंतु मैं अपने मन की बातें तो कह ही सकता हूं।
मैं तुम्हारे कुल का गुरु रहा हूं।
मैं तुम्हारे कुल के अनेक राजाओं का पुरोहित रहा।
महाराज दशरथ का पुरोहित भी मैं ही रहा।
वेद पुराणों ने इस पुरोहित कर्म को बड़ा घोर कर्म बताया है।
पुरोहित का यह पैसा बहुत नीचा है मंदा है।
वेद पुराण इसकी निंदा करते हैं।
*उपरोहित्य कर्म अति मंदा।*
*बेद पुरान सुमृति कर निंदा।।*
यह पुरोहित कर्म ठीक नहीं है।
मैं भी इस कर्म को करना नहीं चाहता था।
*जब न लेऊं मैं तब बिधि मोही।।*
किंतु जब ब्रह्मा जी ने मुझसे कहा कि, है पुत्र।
तुमको आगे चलकर इस कर्म को करने का बहुत लाभ होगा।
स्वयं परमात्मा इस कुल में रामजी के रुप में अवतार लेंगे।
तब मैंने हृदय में विचार किया कि,
जिसके लिए योग यज्ञ व्रत दान किए जाते हैं।
उसे मैं केवल इसी कर्म से पा जाऊंगा।
तब तो इसके समान दूसरा कोई धर्म नहीं है।
*तब मैं हृदय बिचारा,जोग जग्य ब्रत दानजा कहुं करिअ सो पैहऊं,धर्म न एहि सम आन।।*
तब मैंने यह पुरोहित कर्म स्वीकार कर लिया।
की चलो यह कर्म करते हुए यदि भगवान के दर्शन हो जाते हैं तो यह तो अति उत्तम है।
अयोध्या में मैं अपने पुरोहित धर्म का निर्वाह करता रहा।
और एक दिन तुम्हारा जन्म हुआ।
सारे नगर में उत्सव मनाया गया।
सब जगह आपकी जय जयकार होने लगी।
नर नारी आपके दर्शन करके अपने नेत्रों को सफल करते रहे।
क्या मैं यह नहीं जानता था कि तुम भगवान हो?
मैं भली भांति जानता था कि तुम भगवान हो।
किंतु मैं अपने पुरोहित धर्म में बंधा रहा।
क्योंकि मैं तुम्हारा कुलगुरु था।
मेरा दुर्भाग्य देखो।
कि, सब कुछ जानते हुए भी, मैं तुम्हारे चरणों को पूजने के स्थान पर तुमसे अपने चरण पुजवाता रहा।
तुम्हारा आशीर्वाद लेने के स्थान पर मैं तुम्हें आशीर्वाद देता रहा।
क्योंकि मैं पुरोहित कर्म से बंधा
था।
आज मैं तुमसे यह कहना चाहता हूं कि, मैंने तुम्हारी इस नर लीला में जो भूमिका निभाई है।
मुझे उसका इनाम नहीं दोगे?
आज मैं आपसे मेरे लिए कुछ इनाम मांगना चाहता हूं।
हे नाथ हे श्री राम जी ।
आपसे मैं केवल यह वरदान मांगता हूं।
कि, आपके चरण कमलों में मेरा प्रेम जन्म जन्मांतर तक रहे।
कभी यह प्रेम घटे नहीं।
निरंतर बना रहे।
*नाथ एक बर मांगऊं ,राम कृपा करि देहु,जन्म जन्म प्रभु पद कमल,कबहुं घटे जनि नेहु।।*
गुरु वशिष्ट जी की भगवान के प्रति यह निष्ठा देखकर राम जी बहुत प्रसन्न हुए।
श्री राम जी के मन को यह बातें बड़ी अच्छी लगी।
गुरुदेव वशिष्ठ जी यह कहकर वहां से आ गए।
*अस कहि मुनि वशिष्ठ ग्रह आए।*
*कृपा सिंधु के मन अति भाए।।*
संत बताते हैं कि ,
इस प्रसंग पर एक बार श्री रामकृष्ण परमहंस जी से
किसी सज्जन ने पूछा?
कि यह पुरोहित का कर्म मंदा क्यों माना गया है?
इसके करने में क्या दोष है?
रामकृष्ण परमहंस जी ने उत्तर दिया कि, तुम सब जानते हो कि मैं बीमारी से त्रस्त हूं।
मुझे कैंसर हुआ है।
और इसका कारण यह पुरोहित कर्म ही है।
क्योंकि तुम सब लोग हमारे चरण छूते हो।
हम लोग तुम्हें आशीर्वाद देते हैं खुश रहो ,खुश रहो,।
हमारे पास की खुशी तो तुम्हारे पास चली जाती है।
और बदले में तुम्हारा दुख हमारे ऊपर आ जाता है।
हम हमारा तो भोंगते ही हैं।
साथ-साथ तुम्हारा दुःख भी भोंगते हैं।
बस यही कारण है कि यह कर्म शास्त्र की दृष्टि से मंदा है।
एक संत जी उदाहरण देकर बता रहे थे।
एक बुढ़िया ने अपने बच्चों के सिर पर से पांच पांच सो के नोट पांच सात बार अपने बेटे के सिर पर घुमा कर पंडित जी को दे दिए।
पंडित जी ने पूछा ?
मां जी, आपने इन नोटों को अपने बच्चों के सिर पर घुमा कर मुझे क्यों दिए?
बुढ़िया ने कहा पंडित जी,
मेरे बेटे के सिर पर से घुमाकर इन नोटों को मैंने इसलिए दिए कि,
इसके ऊपर की सारी अलाय बलाय संकट दुःख सब इन नोटों के साथ तुम्हारे पास चलें जांए तुम ले जाओ।
और लोग करते भी ऐसा ही है।
शास्त्र इसलिए इस पुरोहित कर्म को नीचा और मंदा बताते हैं।
इस पुरोहित कर्म में मान सम्मान आदर धन प्राप्ति सब कुछ है।
किन्तु शास्त्र की दृष्टि में यह पुरोहित कर्म उत्तम नहीं है।
पुरोहित घोर कष्ट पाता है।
*उत्तर काण्ड की शेष कथा अगले प्रशंग में जय श्री राम।।*