हिंदुओं के आश्विन मास का शुक्ल-पक्ष पूरा का पूरा भक्तिमूलक एवं शक्तिवर्धक पर्व है ।
योगवाशिष्ठ में ब्रह्म को सर्वशक्तिमय माना गया है -
" सर्वशक्तिपरं ब्रह्म "।
चेतन-शरीरों में उस ब्रह्म की चित्त-शक्ति , वायु में स्पंद-शक्ति , पत्थर में जड़-शक्ति , जल में द्रव-शक्ति , अग्नि में तेज-शक्ति , आकाश में शब्द- शक्ति , सृष्टि में सृजन-शक्ति आदि रहती है और कल्प के अंत में सब शक्तियां उसी में समाहित हो जाती हैं।
एक ओर सारी सृष्टि भगवान की अनंत शक्ति का चमत्कार है , तो दूसरी ओर मनुष्य में भी वही भगवत् - शक्ति है , जिस शक्ति का प्रयोग करके मनुष्य परमात्मा तक को प्राप्त कर सकता है। इसलिए हिंदू समाज सदैव शक्ति का उपासक रहा है।
हमारे शास्त्र केवल यह नहीं कहते -
" यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता:। "
अर्थात् जहां नारी की पूजा होती है , वहां देवता निवास करते हैं। बल्कि इससे बढ़कर इसकी उद्घोषणा करते हैं -
" जगदम्बामयं पश्य स्त्रीमात्रं विशेषतः। "
अर्थात् विश्व की समस्त स्त्रियां जगदम्बा (भगवती) का स्वरूप ही तो है। अतः इन्हें देवी की दृष्टि से देखना चाहिए।
शक्ति के रूप में ईश्वर की नारी रूप की परिकल्पना हिंदू संस्कृति की विशेषता रही है। भारतीय वैदिक चिंतन के अनुसार मां आदिशक्ति के बिना समस्त देव - शक्तियां अपूर्ण हैं। शक्ति यानी भय-मुक्ति। नवरात्र में शक्ति की आराधना की जाती है।
साधक प्रतिपदा से नवमी तक मां शक्ति के नौ रूपों क्रमशः शैलपुत्री , ब्रह्मचारिणी , चंद्रघंटा , कूष्मांडा , स्कंदमाता , कात्यायनी , कालरात्रि , महागौरी एवं सिद्धिदात्री की पूजा - आराधना करते हैं। भगवती के इन नौ रूपों के नौ दिनों में पूजन के कारण ही इस अवधि को नवरात्र काल कहा जाता है।
प्रत्येक मानव में बहुत ही सामान्य एवं विशेष शक्तियां होती हैं - जैसे बोलने की शक्ति , देखने की शक्ति , सुनने की शक्ति , चलने की शक्ति , भोजन पचाने की शक्ति आदि । अलग-अलग ये शक्तियां दिखती हैं , पर मूलतः एक ही शक्ति होती है। इसी कारण अनेक शक्ति के रहते हुए भी किसी मनुष्य को अनेक नहीं ," एक " ही माना जाता है। इसी प्रकार मां दुर्गा के कई विविध रूप हैं , लेकिन आदि-शक्ति जगदंबा तो एक ही है।
" दुर्गा सप्तशती " में तीन चरित्रों का वर्णन मिलता है।
प्रथम चरित्र में देवी ने विष्णु जी को जागृत किया , तब उन्होंने मधु-कैटभ राक्षसों का वध किया था। यदि शक्ति सुप्त हो , तो कोई कार्य नहीं होता । उसे जागृत करने जरूरत पड़ती है , तभी वह शक्ति कार्यशील होती है। आज हमारे देश में सज्जनों की दैवी सुप्त - शक्ति को जागृत करने की आवश्यकता है , ताकि आसुरी शक्ति को पहचाना जा सके।
द्वितीय चरित्र में देवताओं की पूंजीभूत शक्ति से प्रादुर्भाव होकर देवी राक्षसराज - महिषासुर का वध करती हैं । इसके माध्यम से सामूहिक शक्ति की महत्ता को प्रतिपादित किया गया है। कहा भी गया है - संघे शक्ति युगे-युगे । वर्तमान समय में दैवी-शक्ति को केवल जागृत करने तक ही सीमित न रह कर , उसे संगठित करने की भी आवश्यकता है , ताकि आसुरी स्वभाववाले दुष्टों का नाश हो सके।
तृतीय चरित्र में सत्वगुणमयी देवी पार्वती के शरीर में प्रकट होकर शुम्भ नामक दैत्य का वध किया था। जब सात्विक एवं शुभ भाव से सत्कार्य के लिए कोई शक्ति अग्रसर होती है , तो अन्य शक्तियां स्वत: उसकी सहायता के लिए अग्रसर होती है।
ईश्वरीय कार्य करने के लिए (विनाशाय च दुष्कृताम् हेतु) दैवी शक्तियां जागृत हो एवं संगठित होकर जब आसुरी शक्ति का मुकाबला करती हैं , तो उस समय अन्य बाकी शक्तियां भी सम्मिलित हो जाती है , जिसके कारण आसुरी शक्ति का विनाश हो जाता है और अंततः दैवी शक्ति की विजय होती है।
(वर्तमान समय में हिंदू समाज को जागृत कर संगठित करने का कार्य राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ कर रहा है।)
जगदंबे मां दुर्गा की स्तुति करते हुए अपने लेख का समापन करता हूं -
या देवी सर्वभूतेषु शक्ति रूपेण संस्थिता ।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ।।
मिथिलेश ओझा की ओर से आपको नमन एवं वंदन।

