जय श्री राम।।
जब सिपाही के रूप में रावण के पास संदेश लेकर अंगद जी को भेजा गया
रावण का बेटा राह में ही खेलते हुए अंगद जी को मिल गया।
पुर पैठत रावन कर बेटा।
खेलत रहा सौ होइ गै भेटा।।
बात बात में दोनों में बात बढ गई और झगड़ा हो गया।
बातहिं बात करष बढि आई।।
रावण के बेटे ने अंगद जी पर लात उठाई, किंतु मार नहीं पाया।
अंगद जी ने उसकी लात को पकड़ कर उसे भूमि पर दे मारा।
भूमि पर गिरते ही वह परलोक सिधार गया।
तेंहि अंगद कहुं लात उठाई।
गहि पद पटकेउ भूमि भवांई।।
राक्षसों ने देखा यह तो भारी योद्धा हैं।
डर के मारे चिल्ला भी नहीं पा रहें हैं ।सब भागे।
निसिचर निकर देखि भट भारी।
जहां तहं चले न सकहिं पुकारी।।
सब कहने लगे वही बंदर फिर आ गया है। जिसने लंका जलाई थी ।
भयउ कोलाहल नगर मझारी।
आवा कपि लंका जेहिं जारी।।
कोई कह रहा है यह बंदर
वह नहीं है ।
यह तो कोई दूसरा ही बंदर है। जब हनुमान जी लंका में गए थे.। तब तो राक्षस सैनिकों ने उन्हें लात मारी थी।
ठहाके लगाए थे। अटपटी बातें कही थी ।
किंतु हनुमान जी राम जी के कार्य को पूरा करने के लिए सब सह गए।
हमारे सनातन धर्म की यह परंपरा रही है।
कि वह साधु कैसा जो बात और लात ना सह सके।
और वह सिपाही कैसा जो कि अपमान सह जाये। प्रतिशोध न लें ।
हनुमान जी साधु थे।
अंगद जी सिपाही हैं।
अब तो वहां के सैनिक अंगद जी को बिना पूछे ही रावण के दरबार का रास्ता बताने लगे।
बिनु पूछें मग देहिं देखाई।
किसी ने कहा इसे वहां का रास्ता क्यों बता रहे हो?
रास्ता बताने वाला बोला ।
कम से कम यहां से तो यह संकट टले, ।
हमारी जान तो बचे।
बाद में जो होगा सो देखा जायगा
और रास्ता बताने वाले का एक उद्देश्य यह भी था।
कि, भाई हम तो जो पहले आया था उसी से समझ गए हैं।
जो नहीं समझ रहा है वह तो रावण है ।
अब आप उसे ही जाकर जो कुछ समझाना है वह समझाओ।
श्री राम जी के चरणों का स्मरण करके अंगद जी रावण की सभा के द्वार पर गए।
अंगद जी सिंह की सी शान की तरह निर्भीक होकर वहां इधर-उधर देखने लगे।
सिंह ठवनि इत उत चितव,
धीर बीर बल पुंज।।
अंगद जी ने एक राक्षस को भेजा कि जाओ, हमारे आने की सूचना रावण को दो।
जब राक्षस ने रावण को जाकर यह समाचार सुनाया तो रावण हंसता हुआ बोला।
जाओ बुलाकर लाओ।
देखते हैं कहां का बंदर है।?
जैसे ही अंगद जी ने रावण के दरबार में प्रवेश किया।
अंगद जी को देखकर रावण के सभी सभासद खड़े हो गए ।रावण को यह देखकर बड़ा क्रौध आया।
उठे सभासद कपि कहुं देखी।
रावन उर भा क्रौध बिसेषी।।
रावण चिल्लाता हुआ बोला।
मूर्खों खड़े क्यों हुए हो? बैठ जाओ।
।सभासदों की बड़ी हालत खराब थी। रावण की तरफ देखते थे तो बैठ जाते थे।
और अंगद जी के तरफ देखते तो वह बेचारे खड़े हो जाते थे।
जब हनुमान जी रावण के दरबार में गए थे ।तो रावण बोलता ही गया था। अरे बंदर तू कौन है ?कहां से आया ?बगीचा क्यों उजाड़ा। आदि अनेक प्रश्न किए थे। हनुमान जी चुपचाप सब सुनते चले गए थे ।
लेकिन जब रावण ने अंगद जी से कहा अरे बंदर तू कौन है?
कह दशकंठ कवन तैं बंदर।
अंगद जी ने तुरंत उत्तर दिया ।
मैं रघुवीर दूत दशकंधर।।
दशकंधर मैं रामजी का दूत हूं। रावण को बोलने ही नहीं दिया। अंगद जी ने कहा रे मूर्ख ।
जब तू किसी दूत का सम्मान करना नहीं जानता। तो मैं तेरा सम्मान क्यों करूं?
मैं तुझे समझाने तेरे भले के लिए राम जी का संदेश लेकर दूत बनकर तेरे दरबार में आया।
तुझे चाहिए था कि मुझे सम्मान पूर्वक बैठने को आसन देता। किंतु तू अभिमान के वश होकर सब कुछ भुला हुआ है।
चलो मैं अपना आसन स्वयं तैयार कर लेता हूं।
ऐसा कहकर अंगद जी ने अपनी पूंछ को बढ़ाकर उसका आसन बना लिया ।
और सबसे ऊंचे आसन पर जाकर अंगद जी बैठ गए।
रावण ने और रावण के सभासदों ने इस आश्चर्य को देखा। सब दंग रह गए।
इसके आगे का प्रसंग अगली पोस्ट में।जय श्री राम।।

