रामकथा प्रसंग श्रध्दा का विषय है संशय का नहीं।*
संत कहते हैं *श्रध्दा वान लभते ज्ञानं।*
श्रध्दा वान को ही रामकथा का लाभ मिलता है।
कुछ लोग रामकथा प्रसंग में कुतर्क करते हैं।
जो बिल्कुल उचित नहीं।
कुछ तो कहते हैं तुलसीदास जी से कहीं कहीं पर लिखने में भूल हुई है।
जैसे लक्ष्मण जी से विलाप करते समय रामजी ने कहा ।
*निज जननी के एक कुमारा।*
यहां तो गोस्वामी जी से अवश्य भूल हुई है।
क्या लक्ष्मण जी उनकी माता के अकेले पुत्र थे।?यह तो बिल्कुल ठीक नहीं है।
शत्रुघ्न जी भी तो उनके भाई थे फिर वह एक कैसे हुए?
ऐसे प्रश्न करने वाले लोग शब्दों पर ध्यान नहीं देते हैं।
जबकि श्री तुलसीदास जी ने लिखा है।
रामजी विलाप करते करते प्रलाप करने लगे थे।
विलाप और प्रलाप में अंतर है।
प्रलाप की स्थिति यह होती है कि, बोलने वाले को यह ज्ञात ही नहीं रहता है कि वह क्या बोल रहें हैं।
इसे प्रलाप कहा गया है।
रामजी ने यह शब्द प्रलाप की स्थिति में कहे हैं।
गोस्वामी जी ने लिखा भी है।
देंखे सोरठा क्रमांक *६१लंकाकाणड।।*
*प्रभु प्रलाप सुनि कान।*
*बिकल भए बानर निकर।।*
कुछ लोग कहते हैं हनुमानजी भी पर्वत लेकर जा रहे थे तो रास्ता भटक गए ।
हनुमान जी जैसे ज्ञानी भी रास्ता भटक जाते हैं।
यदि हम भी कभी कभार रास्ता भटक जाएं तो कौनसी बड़ी बात है।
भूल तो सभी से हो सकती है।
इस प्रसंग के संदर्भ में संत कहते हैं। हनुमानजी रास्ता भूले थे तो अयोध्या पहुंचे थे।
और आज हमारी स्थिति यह है कि यदि हम रास्ता भूल जाते हैं तो सीधे लंका में ही पहुंचते हैं।
कुछ लोग कहते हैं।
अमृत वर्षा में वानर भालू ही जीवित क्यों हुए?
अमृत वर्षा तो राक्षसों पर भी हुई थी?
राक्षस क्यों जीवित नहीं हुए?
संत कहते हैं हरि इच्छा।
भगवान की इच्छा।
भगवान ने राक्षसों को मोक्ष प्रदान कर दिया था ।
इसलिए जीवित नहीं हुए।
सीता जी की अग्नि परीक्षा के सम्बन्ध में लोग अनर्गल टिप्पणी करते हैं।जो बिल्कुल उचित नहीं है।श्री सीता जी को रामजी ने अग्नि देव के सुपुर्द किया था।
और अवसर आने पर उसी अग्नि देव से श्री सीता जी को वापस लिया।
इसमें अनुचित क्या है।
एक सज्जन कह रहे थे।
रावण पर विजय प्राप्त करने के पश्चात दशरथ जी रामजी को आशीर्वाद देने आए थे।
क्या यह सम्भव है?
यदि यह सम्भव होता तो मेरे पिताजी भी आ सकते हैं।
मेरे पिताजी तो आजतक लोट के नहीं आए?
यह सब बेकार की बातें हैं।
स्वर्ग जाने के पश्चात क्या कोई लौटकर आ सकता है?
एक महात्मा जी ने उस सज्जन को बड़ा सुंदर उत्तर दिया। भाई
इसमें असंभव क्या है।
महाराज दशरथ जी तो जीवित अवस्था में भी कई बार स्वर्ग गए थे ।
देवता और असुरों के संग्राम में कितनी ही बार इंद्र की सहायता की थी।
तुम एक बात बताओ?
क्या जीवित अवस्था में तुम्हारे पिताजी एक दो बार कभी स्वर्ग गए थे?
वह सज्जन बोला नहीं जीवित अवस्था में तो कभी नहीं गए ।बस तो फिर क्यों बहस करते हो। जो जीवित अवस्था में कितनी ही बार स्वर्ग जा चुके थे।
तो उन्हें मृत्युपरांत वहां से वापस आने में क्या परेशानी हो सकती है।
देवराज इंद्र तो महाराज दशरथ जी का मित्र था ।
उन्हें आधे सिंहासन पर बैठाता था।
तुम क्यों इस तरह की बहस करके अपना समय नष्ट करते हो।
रामकथा प्रशंग आनन्द का विषय है प्रेरणा का विषय है।
कुछ सीखने का विषय है।
न कि संसय प्रकट करने का।
अब आगे ।
रावण वध के पश्चात हनुमान जी जामवंत जी विभीषण जी आदि वीर वानरों की उपस्थिति में माता श्री सीता जी को अशोक वाटिका से ससम्मान पालकी में लाया गया।
श्री सीता जी के दर्शन के लिए वानर भालुओं की भीड़ लग गई।
*देखन भालु कीस सब आए।*
*रच्छक कोपि निवारन धाए।।*
रच्छकों द्वारा सबको रोका गया। भगवान श्री राम जी ने आदेश किया कि श्री सीता जी को पालकी से नहीं।
बल्कि पैदल आने दिया जाए।
*सीतहि सखा पयादें आनहु।।*
ताकि सभी वानर भालू उन्हें माता के समान मानकर दर्शन कर सके ।
*देखहुं कपि जननी की नाई।*
*बिहसि कहा रघुनाथ गोंसाई।।*
श्री राम जी की आज्ञा का पालन हुआ ।
सभी ने श्री जानकी जी के दर्शन किए ।
देवताओं ने पुष्प वर्षा की।
यहां पर एक बड़ी अद्भुत बात हुई।
श्री राम जी ने श्री सीता जी को उनके निकट आने से रोक दिया। रामजी द्वारा श्री सीता जी को रोकने का कारण यह था ।
कि सीता हरण से पूर्व श्री राम जी ने श्री सीता जी को अग्नि देव को समर्पित किया था।
*सीता प्रथम अनल मंहु राखी।।*
और यह रहस्य कोई जानता नहीं था ।
भगवान इस रहस्य को रहस्य ही बना रहना देना चाहते थे ।
उन्होंने श्री सीता जी को अग्नि देव को समर्पित किया था।
और उन्हीं अग्नि देव के द्वारा श्री राम जी श्री सीता जी को वापस लेना चाहते थे।
इसलिए आदेश किया कि श्री सीता जी को अग्नि में प्रवेश करना पड़ेगा ।
अग्नि परीक्षा देना होगी।
भगवान ने यहां कुछ कड़वे वचन भी कहे ।
श्री राम जी द्वारा इस तरह कहे गए शब्दों से सब लोग बड़े दुखी हुए।
*तेहि कारन करुणानिधि,कहे कछुक दुर्बाद,*
*सुनत जातुधानी सब,लागीं करै बिषाद।।*
किंतु श्री जानकी जी के हृदय में इसका जरा भी दुख व विषाद नहीं हुआ ।
उन्होंने श्री लक्ष्मण जी से कहा लक्ष्मण तुम धर्म के नेगी हो जाओ ।और अग्नि का प्रबंध करो।
*लछिमन होहु धरम के नेगी।*
*पावक प्रगट करहु तुम्ह बेगी।।*
लक्ष्मण जी बड़े दुखी होकर मन में विचार करने लगे।
कि प्रभु यहां यह क्या लीला कर रहे हैं?
किंतु राम जी का आदेश था तो उसका पालन करना भी आवश्यक था।
लक्ष्मण जी ने लकड़ी का प्रबंध किया।
*अग्नि प्रकट की गई ।*
अग्नि की तेज लपटें उठने लगी। श्री जानकी जी जरा भी विचलित नहीं हुई।
*पावक प्रबल देखि बैदेही।*
*हृदय हरष नहि भय कछु तेही।।*
और उस जलती हुई अग्नि में प्रवेश कर गई ।
अग्नि देव में वह नकली सीता तो जल गई ।
और असली सीता जी उसमें से प्रकट होकर बाहर आई ।
यह रहस्य कोई नहीं जान पाया सब बड़े हर्षित हुए।
उसी अवसर पर महाराज दशरथ जी आए ।
*तेहि अवसर दशरथ तंह आए।*
*तनय बिलोकि नयन जल छाए।।*
भगवान ने उन्हें प्रणाम किया। पिता की भांति महाराज दशरथ जी ने श्री राम लक्ष्मण दोनों भाइयों का आशीर्वाद दिया।
महाराज दशरथ जी ने भगवान की भक्ति में मन लगाया था। इसलिए मृत्यु के पश्चात मोक्ष नहीं पाया था ।
*ताते उमा मोच्छ नहीं पायो।*
*दशरथ भेद भगति मनि लायो।।*
भगवान शिव माता पार्वती से कह रहें हैं। है भवानी
भगवान के भक्त मोक्ष चाहते भी नहीं है।और
भगवान उन्हें मोक्ष प्रदान करते भी नहीं है।
उन्हें अपनी भक्ति प्रदान करते हैं श्री राम जी ने दशरथ जी के पूर्व जन्म के प्रेम को देखकर अपने स्वरूप का ज्ञान कराया।
दशरथ जी आए थे।
तब श्री राम जी ने प्रणाम किया ।
और जब दशरथ जी को ज्ञान उत्पन्न हुआ ।
तब वह श्री राम जी को प्रणाम करके गये।
इसी अवसर पर देवराज इंद्र आए श्री राम जी ने देवराज इंद्र से कहा कि हमारे कई वीर वानर भालुओं को निशाचरों ने मारे हैं ।
वह पृथ्वी पर पड़े हैं ।
मेरे हित के लिए इन्होंने अपने प्राण त्यागे हैं।
है देवराज इंद्र इन सबको जिला दो।
भगवान के यह वचन सुनकर देवराज इन्द्र ने अमृत की वर्षा की।
जिससे वानर भालूओं को जीवनदान मिला ।
सब प्रसन्न होकर भगवान के पास आए।
अमृत की वर्षा दोनों पर हुई थी। राक्षसों पर भी हुई थी।
किंतु राक्षस मरते समय रामाकार हो गए थे। मुक्त हो गए थे।
भव बंधन से छूट गए थे। इसलिए वह जीवित नहीं हो सके
रामाकार भए तिन्ह के मन।
मुक्त भए छूटे भव बंधन।।
वीर वानर भालू भगवान के भक्त थे ।
यह भगवान की इच्छा से जीवित हुए।
भरत जी की दशा का स्मरण आते ही भगवान को अब एक पल भी एक कल्प के समान लगने लगा।
कहने लगे।
*बीतें अवधि जाऊं जौं जिअत न पांवऊं वीर।।*
अवधि बीतने के पश्चात में भरत जी को जीवित नहीं पा सकूंगा।
भगवान के प्रेम को देखकर सब लोग भगवान के साथ आना चाहते हैं।
भगवान ने भी अपने प्रति अतिसय प्रेम देखकर सभी को पुष्पक विमान में बैठा लिया।
*अतिसय प्रीति देखि रघुराई।*
*लीन्हे सकल विमान चढ़ाई।।*
जय श्री राम।।