रावण ने अपने छोटे भाई विभीषण को लात मार कर लंका से निकाल दिया ।
संत इस प्रसंग की कुछ अलग तरह से भी व्याख्या करते हैं।
कि रावण के द्वारा विभीषण को लात मार के लंका से भगा देना इसका भी एक कारण था ।
क्योंकि रावण ज्ञानी था।
वह जानता था कि मेरी मृत्यु तो भगवान के हाथ ही होना है।
मैं तो उनके हाथों से मरूंगा ही। किंतु यह विभीषण तो राम जी का भक्त है। राम जी के भक्त हनुमान ने इसे मंत्र भी दिए हैं ।
इसके पश्चात भी यह अभी तक यहीं लंका में पड़ा है ।
राम जी की शरण में जा क्यों नहीं रहा है। ?
रावण नीतिज्ञ था ।
राम जी से शत्रुता कर रहा था।
जानता था मुक्त होने के दो ही उपाय हैं।
या तो भगवान की भक्ति करो।
या फिर उनके हाथों मारे जाओ।
तामसी शरीर है। भक्ति में अब कर नहीं सकता।
मुक्ति का बस यही रास्ता है।
भगवान से बैर करके इनके हाथों मारा जाऊं।
राम जी को अपना शत्रु मान रहा था।
इस लिए वह विभीषण से इस तरह कह नहीं सकता था ।
कि, तुम रामजी के शरणागत हो जाओ। तब उसने यही रास्ता निकाला कि इसे यहां से भगा दिया जाए।
इसलिए रावण ने विभीषण को लात मार कर लंका से निकाला।
विभीषण जी जब समुद्री मार्ग से राम जी की शरण में आ रहे थे। तो मन में बड़े प्रसन्न हो रहे थे। विचार कर रहे थे। आज मैं भगवान के चरणों का दर्शन करूंगा।
*देखिहऊं जाइ चरन जलजाता।*
*अरुन मृदुल सेवक सुख दाता।।*
मन में शंका भी हो रही है। क्या भगवान श्री राम मुझे स्वीकार करेंगे या नहीं?
फिर पुनः उनके मन में हनुमान जी के द्वारा कही गई बातों का स्मरण आता है।
कि राम जी बड़े दयालु है। शरणागत पर तो उनका विशेष प्रेम रहता है।
गोस्वामी श्री तुलसीदास जी लिखते है ।कि यह मन बड़ा चंचल है। अनेक अनेक कल्पनाएं करता रहता है। विभीषण जी भी कल्पना कर रहे हैं।
कि हनुमान जी ने तो सुग्रीव जी को भी राम जी से मिलाया था ।और राम जी ने बाली का वध करके सुग्रीव जी को सिंहासन पर बैठाया है ।
तो क्या भगवान मेरे प्रति भी ऐसा ही व्यवहार करेंगे?
क्योंकि राम जी से मिलने का मार्ग तो मुझे भी हनुमान जी ने ही बताया है।
तो क्या प्रभु रावण को मारकर मुझे लंका का राजा बनाएंगे ? विभीषण जी भक्त हैं।
तुरंत मन की गति पर नियंत्रण करते हैं। मन ही मन सोचते हैं। मैं भी कैसी कुतर्क भरी कल्पना कर रहा हूं । मुझे ऐसा नहीं सोचना चाहिेए।मेरा स्थान तो राम जी के चरणों में होना
चाहिए। मेरा स्थान उनके पद चरण ही हैं।
तुरंत अपने मन पर काबू करते हैं
विभीषण जी लंका के उस पार से इस पार आते हैं ।
सुग्रीव जी को जब यह समाचार मिलता है। कि लंका की और से कोई चला आ रहा है।और वह रावण का भाई विभीषण हैं। सुग्रीव जी राम जी के पास जाकर कहते हैं। प्रभु यह दशानन का भाई है। शत्रु का भाई है।
दशानन का भाई है। जब इसका भाई अपने दसों मुखो से दस तरह की बात करता है। तो क्या यह दो तरह की बात नहीं करेगा।?
आपसे मिलने आ रहा है।पता नही इसका यहां आने का क्या उद्देश्य है।?
*कह सुग्रीव सुनहु रघुराई।*
*आवा मिलन दशानन भाई।।*
श्री राम जी ने सुग्रीव जी से कहा मित्र इस सम्बन्ध में आपकी
क्या राय है?
तुलसीदास जी राम जी और सुग्रीव जी की इस वार्ता को
विशेष शब्दों से सम्बोधित करते है।
*कहइ कपीस सुनहु नरनाहा।।*
कपीस मतलब बंदरो का राजा और नरनाहा मतलब मनुष्यों का राजा।
सुग्रीव जी कहते हैं प्रभु, इस विषय को हल्के में मत लीजिए।
इसे राजनीतिक दृष्टिकोण से देखिए।मैं भी बंदरो का राजा हूं और आप तो राजा हो ही।
इसलिए आप राजनीतिक दृष्टिकोण से देखिए। क्या इसे शरण देना उचित रहेगा।?
राक्षसों की माया समझ में नहीं आती है। पता नहीं यह किस उद्देश्य से यहां आया है?
इसे शरण देना ठीक नहीं है।
यह हमारा भेद लेने आया है ।
भगवान सब कुछ जानते हैं। मन ही मन मुस्कुराते हैं ।मन ही मन विचार करते हैं कि सुग्रीव जी मुझे डरा रहे हैं। क्या इन्हें पता नहीं है। कि यदि यह दशानन का भाई है। तो मैं सहस्त्रानन का भाई हूं। मेरे भाई लक्ष्मण जीसहत्रावतार है। मैं इससे क्यों डरुगां।
और इसका तो बड़ा भाई दशानन है। मेरा तो छोटा भाई सहसानन है। हजार सिर वाला है।
सुग्रीव जी को इतना तो विचार करना चाहिए।
राम जी सुग्रीव जी से कहते हैं हां ठीक है। देखा जाएगा । किंतु सुग्रीव जी एक बात यह भी है कि शरणागत को आश्रय देना तो मेरा स्वभाव है।
*मम पन सरनागत भयहारी।।*
यदि यह शरणागत होने की इच्छा से यहां आया है। तो मैं इसे आश्रय दूंगा। सुग्रीव जी कहते हैं प्रभु यह निशाचर कुल का है। राक्षस प्रवृत्ति का है ।
मेरा मत यह है कि यह हमारा भेद लेने आया है। इसलिए इसे बांध लेना चाहिए।
*भेद हमार लेन सठ आवा।*
*राखिअ बांधि मोहि अस भावा।।*
राम जी कहते हैं ,मित्र तुम्हारा विचार उत्तम है। नीति तो तुमने सही विचारी है।
किंतु मेरा प्रण तो शरणागतों की रक्षा करना है।उनके संताप का हरण करना है।
*सखा नीति तुम्ह नीकि विचारी।*
*मम पन शरणागत भय हारी।।*
सुग्रीव जी राम जी की बात पर विश्वास ही नहीं कर रहे हैं।
भगवान को ही ज्ञानोपदेश कर रहे हैं। विभीषण जी को बांधने के लिए रस्सी तलास रहें हैं।
*इससे आगे का प्रशगं अगली पोस्ट में जय श्री राम।।*