इधर से राम जी की सेना समुद्र के किनारे पहुंच गई। उधर हनुमान जी जब से लंका जला कर आए। रावण को चैन नहीं पड़ रहा है। आंख खोलता है तो जली हुई लंका दिखाई देती है।
और आंखें बंद करता है तो हनुमान जी महाराज की पूंछ दिखाई देती है ।
रावण को बड़ी बेचैनी हो रही है। उधर लंका में राक्षस जिस किसी बंदर को देखते हैं तो उसे देखकर भागते हैं ।
उन्हें लगता है वही बंदर फिर आ गया है।
सब बंदरों में उन्हें हनुमान जी ही दिखाई देते हैं।
लंका नगरी के लोग बड़े भयभीत हैं।
*उहां निसाचर रहहि ससंका।*
*जब ते जारि गयऊ कपि लंका।।*
निसाचरों और दूतों को भयभीत जानकर मंदोदरी रानी रावण को
समझाती है।
है स्वामी, सीता को लौटाए बिना भगवान शंकर और ब्रह्मा जी भी आपका भला नहीं कर सकते हैं। मेरा कहा मान लीजिए ।
और सीता जी को लौटा दीजिए।
*सुनहु नाथ सीता बिनु दीन्हें।*
*हित न तुम्हार संभु अज कीन्हें।*
मंदोदरी की बातें सुनकर रावण हंसता है ।
कहता है स्त्रियों का स्वभाव सचमुच डरपोक होता है ।
मंगल में भी भय उत्पन्न करती हैं
रावण कहता है रानी।
तुम जानती नहीं हो।
मेरा मेघनाथ जैसा पुत्र है। कुंभकरण जैसा भाई है।
और गढ़ लंका का किला है। हमारी लंका सात समुद्र के बीच में बसी हुई है।
इसमें डरने की बात क्या है।
मंदोदरी रानी अपने पति रावण को समझाती है ।
स्वामी ,हनुमान जी जैसे उनके सहायक हैं ।
और लक्ष्मण जी जैसे उनके भाई हैं। वह ऐसे वीर योद्धा हैं।
जो ना समुद्र को देखते हैं ना लंका जैसे किले को देखते हैं। जलती आग में कूदने वाले महावीर योद्धा है।
उनसे बैर मोल मत लीजिए।
अभिमानी रावण मंदोदरी की बातें नहीं मानता है। तब मंदोदरी को बड़ी चिंता होती है।कि विधाता अब स्वामी के विपरीत हो गए हैं।अब तो भगवान ही रक्षक है।
*मंदोदरी हृदय करि चिंता।*
*भयऊ कंत पर विधि विपरीता।*
एक दिन दरबार लगा ।
तभी वहां विभीषण जी आए।
*अवसर जानि बिभिषनु आवा।*
*भ्राता चरन सीसु तेहि नावा।।*
विभीषण जी रावण से प्रार्थना करते हैं।भाई
प्रभु श्री राम जी से बैर त्याग दीजिए ।उन्हें श्री जानकी जी को ससम्मान लौटा दीजिए ।
उन्हें मनुष्य समझने की भूल न करो।
राम जी साक्षात नारायण के अवतार हैं। कालों के काल हैं।
*तात राम नहिं नर भूपाला।*
*भुवनेस्वर कालहू कर काला।।*
विभीषण जी की बातें सुनकर रावण क्रोध में आकर बोला।
मुझे समझा रहे हो मुझे। रावण को समझा रहे हैं।
तेरा क्या बिगड़ा। मेरी लंका जल गई। उस दिन तेरी ही नीति मानी थी।
इसका मतलब तेरी नीति को जो मानता है उसका सब कुछ नष्ट हो जाता है।
इसलिए तुम अब उन्हीं के पास चले जाओ ताकि अब उनके घर में आग लगे।
तेरा घर तो बच गया। तूने ही उस दिन उस बंदर को सजा देने से रोका था।
तूने ही कहा था कि,
*नीति विरोध न मारेंहू दूता।*
तेरी बात मानी उसका परिणाम यह हुआ कि वह लंका जलाकर चला गया।
तेरा बिगड़ा क्या?
तू यह बता उस वानर ने तेरा घर क्यों नहीं जलाया?
विभीषण जी बोले ऐसा न कहें अग्रज। लंका जलने का दुःख मुझे भी है।
रावण क्रौध करते हुए बोला मैं सब जानता हूं।
तूने उसके प्राण बचाए उसने तेरा घर जलाने से बचा दिया।
तूने उसकी सहायता की। उसने तेरा भवन नहीं जलाया। मैं जानता हूं। तुम दोनों की पहले से ही कोई मिलीभगत है। तभी तो तुमने उसका पक्ष लिया था।तुम जिसे भी मंत्र देते हो उसे पराजय को स्वीकार करना होता है ।इससे अच्छा है कि तुम्हारा यह मंत्र अब तुम जाकर मेरे शत्रु को दो।
ताकि उसका विनाश हो जाए। विभीषण जी रावण के चरणों में पड़ते है प्रार्थना करते है। भाई मेरा दुलार रख लीजिए।
जिससे कि तुम्हारा अहित नहीं होगा।
*तात चरन गहि मांग ऊं*
*राखहु मोर दुलार।*
*सीता देहु राम कहुं,*
*अहित न होइ तुम्हार।।*
रावण विभीषण जी को लात मारता है ।कहता है तू जिसका पक्ष ले रहा है अब उसी की शरण में चला जा।सारा ज्ञान उन्हें सुनाना।
*मम पुर बसि तपसिन्ह पर प्रीती।*
*सब मिलु जाइ तिन्हहि कहीं नीति*
ऐसा कहकर चरणों से मारता है।
*अस कहि कीन्हेसि चरन प्रहारा।।*
विभीषण जी रावण से विनय प्रार्थना करते है । रावण उनकी एक भी बात मानने को तैयार नहीं हैं। विभीषण जी कहते हैं।भाई अब मैं जा रहा हूं। मैंने तुम्हें समझाया है। किंतु विनाश काल में तुम्हारी बुद्धि विपरीत हो गई है।
लंका का विनाश होने पर अब मुझे दोष मत देना ।विभीषण जी राम जी के शरणागत होने के लिए लंका से रामादल की और चल देते हैं।
हनुमान जी महाराज बुद्धिमातं वरिष्ठंम हैं।
रामचरितमानस का यह प्रसंग बड़ी सुंदर प्रेरणा देता है कि,
किसी कार्य को पूर्ण करने के लिए चारों नीतियों का प्रयोग करना चाहिए
जिस तरह की हनुमान जी ने चारों नीतियों का प्रयोग किया ।
पहले साम नीति का प्रयोग किया ।रावण से विनय प्रार्थना करते हुए हाथ जोड़कर कहा।
विनती करहुं जोर करि रावण। हाथ जोड़कर समझाया ।
रावण नहीं माना ।
फिर हनुमान जी ने दाम नीति का प्रयोग किया ।
कुछ ले देकर लालच देकर समझाया।
कि यदि इस तरह मान जाए तो भी ठीक है।
हनुमान जी ने कहा ।
*लंका अचल राज तुम करहूं ।*
*राम चरण पंकज उर धरेहु।।*
निश्चिंत होकर लंका में राज्य करना। तुम्हें कोई कुछ नहीं कहेगा।
केवल राम जी के शरणागत हो जाओ। राम जी के चरणों को हृदय में धारण कर लो ।
*रामचरण पंकज उर धरेहु ।*
रावण नहीं माना ।
फिर हनुमान जी महाराज ने दंड नीति का प्रयोग किया।
रावण को धमकाया।
सुन रावण तू क्या समझता है।
श्री राम जी कोई साधारण मनुष्य है
अरे दुष्ट रावण सुन।श्री राम जी से विमुख होने पर तुझे एक तो क्या? हजार शंकर और हजार ब्रह्मा भी तेरी सहायता नहीं करेंगे तुझे दंड मिलेगा।और मृत्यु दंड मिलेगा।
इसलिए समझा रहा हूं। अभी भी भगवान के शरणागत हो जा ।रावण पर हनुमान जी की इस दंड नीति का भी कोई प्रभाव नहीं पड़ा।
तब हनुमान जी महाराज ने भेद नीति का प्रयोग किया ।
और भेद नीति का अर्थ है फूट डाल देना।
फूट डालकर अपना काम बनाना
और हनुमान जी ने वही किया।
सारी लंका जला डाली। और विभीषण जी का घर छोड़ दिया। बस यहीं से रावण के हृदय में भेद उत्पन्न हो गया।
हनुमान जी की यह नीति काम कर गई ।
रावण ने श्री राम जी के भक्त विभीषण को लात मार कर लंका से भगा दिया ।
और अपने लिए मौत को बुला लिया
*विभीषण जी राम जी के पास आ रहे हैं।🏹🚩 यह प्रसंग अगले पोस्ट में जय श्री राम।।*