ऋषभदेव एक बार अपने पुत्रों को लेकर घूमते घूमते ब्रह्मावर्त पहुँचे। वहाँ सारे ऋषियों की सभा लगी थी। वहीं पर ऋषभदेव ने अपने पुत्रों को उपदेश दिया। उसे सभी माताओं और पिताओं को सुनना चाहिए। जिससे कि उन्हें ज्ञात हो कि अपने बच्चों को किस प्रकार उपदेश दें। देखो, यहाँ पर कहते हैं...
प्रश्रयप्रणयभरसुयन्त्रितानप्युपशिक्षयन्निति होवाच।। (श्रीमद्भागवत महापुराण ५.४.१९)
ऋषभदेव ने अपने पुत्रों को भरी सभा में उपदेश दिया, अकेले में नहीं। बड़े-बड़े महापुरुष जहाँ पर विराजमान थे, उस सभा में उपदेश दिया। इसका अर्थ क्या हुआ मालूम है? सारी सभा को भी मालूम पड़ जाए कि इनके पिता ने इन्हें क्या उपदेश दिया है। तब, यदि बाद में बेटे कुछ गड़बड़ करें तो दूसरे लोग उन से कह सकते हैं कि ऐसा करना ठीक नहीं है। तुम सब को तो तुम्हारे पिता ने जो उपदेश दिया था उसे हमने भी सुना था। अब देखो, पिता ने उन्हें क्या उपदेश दिया था? यह अध्याय बहुत ही सुन्दर है। यहाँ प्रारम्भ में ही बड़ी ऊँची सर्वश्रेष्ठ सबसे बड़ी बात कही गई है।
नायं देहो देहभाजां नृलोके कष्टान् कामानर्हते विड्भुजां ये।
तपो दिव्यं पुत्रका येन सत्त्वं शुद्ध्येद्यस्माद् ब्रह्मसौख्यं त्वनन्तम्।।
(श्रीमद्भागवत महापुराण ५.५.१)
यह देह केवल भोग करने के लिए नहीं है। यह (देह) तो बाद में कीड़े मकोड़े के लिये भक्ष्य पदार्थ बन जाता है। इसलिए जीवन में कर्म ऐसे करने चाहिए कि मन विशुद्ध हो जाये और अनन्त सुख, जो ब्रह्म सुख कहलाता है वह प्राप्त हो जाए।
इस मानव देह का प्रयोजन काम सुख नहीं, ब्रह्म सुख है। और कहते हैं...
महत्सेवां द्वारमाहुर्विमुक्तेस्तमोद्वारं योषितां संगिसंगम्। (श्रीमद्भागवत महापुराण ५.५.२)
महापुरुषों का संग मोक्ष का द्वार है और स्त्री में आसक्त कामी का संग नरक का द्वार है। वह (संग) पहले तो बड़ा अच्छा लगता है, सुखद लगता है। उसमें सुख दिखता है परन्तु बाद में बहुत कष्ट देता है।
कामी पुरुष हम को काम स्थान पर ले जाते हैं और नाच गान में रमा देते हैं।
एक बार एक आदमी अपने कर्म से स्वर्ग गया, लेकिन रास्तें में उसको नरक दिखाई पड़ा। वहाँ पर खूब नाच गाना चल रहा था। उसने सोचा यह तो बड़ी रोचक जगह है। लिखा तो है कि यह नरक है, लेकिन यहाँ पर सब लोग बड़े मजे से खा पी रहें हैं।
वह स्वर्ग में पहुँचा तो देखा कि वहाँ सब सुनसान था। तब वह भगवान से कहता है, मुझे नरक भेज दीजिए। बोले, अरे! तू नरक में क्यों जाना चाहता है? तो वह बोला, "वहीं अच्छा है।" भगवान ने कहा, "जैसी तुम्हारी इच्छा।" वह आदमी जब वहाँ नरक में गया तो जाते ही अन्दर खींचकर लोगों ने उसे मारना पीटना प्रारम्भ कर दिया। वह चिल्लाने लगा। किसी ने उसकी नहीं सुनी। तब वह कहने लगा, "यह क्या है?" बोले, यह नरक है। नरक? पहले मैं यहाँ से स्वर्ग जा रहा था तब तो यहाँ खूब नाच गाना चल रहा था? बोले, वह तो हमारा विज्ञापन विभाग था। तब तुम अतिथि थे, अब निवासी हो गये हो। मेहमान को तो अच्छी अच्छी चीजें ही दिखाई जाती हैं न?
देखो, कामी पुरुषों का संग भी ऐसा ही होता है। पहले वह बड़ा अच्छा लगता है, क्योंकि वह हमें नाच आदि दिखाता है, खिलाता पिलाता है। लेकिन एक बार हम उसके पंजे में आ गए तो बस। देखो, यह जो पुरुष की स्त्री में और स्त्री की पुरुष में आसक्ति है, यही सबसे बड़ी हृदय ग्रंथि है। दूसरी ग्रंथियाँ इतनी कष्टप्रद नहीं होतीं। यह मन आदमी को बहुत नचाता रहता है। तो यहाँ कहते हैं विशेष रूप से राजा और गुरु का यह कर्तव्य बनता है कि अपने पुत्र को, शिष्य को अच्छी शिक्षा दें।
यहाँ पर उन्होंने कहा...
गुरुर्न स स्यात्स्वजनो न स स्यात्पिता न स स्याज्जननी न सा स्यात्।
दैवं न तत्स्यान्न पतिश्च स स्यान्न मोचयेद्यः समुपेतमृत्युम्।।
(श्रीमद्भागवत महापुराण ५.५.१८)
बोले, वह माँ, माँ नहीं है, वह पिता, पिता नहीं है, वह गुरु, गुरु नहीं है, वह स्वजन, स्वजन नहीं है, वह पति, पति नहीं है जो अपने पर आश्रित व्यक्ति को संसार के बन्धन से मुक्त नहीं कराता।
आजकल माता पिता अपने बच्चों को अनेक वस्तुएँ देते हैं, ऊँची शिक्षा, भिन्न भिन्न विद्याएँ (जीवकोपार्जन की) भी देते हैं परन्तु धन का उपयोग धर्म के लिए कैसे करना चाहिए, धर्म का पालन किस प्रकार किया जाए कि वह जीवन को मोक्ष के द्वार पर खड़ा कर दे, यह नहीं सिखाते। ऐसे में यदि बच्चे बिगड़ रहे हों तो किसको दोष दिया जाए? अपने ऊपर ही दोष लेना पड़ता है। यहाँ पर स्पष्ट ही कहा है कि ऋषभदेव पूरी सभा को यह बात समझाकर बता रहें हैं। इसलिए कहते हैं, हर प्रकार से भगवान की भक्ति करनी चाहिए, भावपूर्ण होकर भक्ति करनी चाहिए।
मनोवचोदृक्करणेहितस्य साक्षात्कृतं मे परिबर्हणं हि।
विना पुमान् येन महाविमोहात्कृतान्तपाशान्न विमोक्तुमीशेत्।।
(श्रीमद्भागवत महापुराण ५.५.२७)
अब देखो यहाँ ऋषभदेव अपना ईश्वरत्व प्रकट करते हैं। कहते हैं, जो व्यक्ति मन वचन और कर्म से मेरी भक्ति नहीं करता है, उसे इस संसार से छुड़ाने वाली और कोई शक्ति नहीं है। और किसी प्रकार से यह संभव नहीं है।
अपने पुत्रों को (सभा में) ऐसा सुन्दर उपदेश दे कर वे स्वयं संन्यास की, परमहंस की दीक्षा ले लेते हैं। देखो, संन्यासियों में भी कुटीचक, हंस और परमहंस ऐसे उत्तरोत्तर ऊँचे ऊँचे स्तर होते हैं। ये ऐसे परमहंस अवधूत थे कि इन्होंने अपने पुत्रों को सब के समक्ष उपदेश दे कर पिता के कर्तव्य का निर्वाह कर दिया और बस! वहीं पर सब कुछ त्याग दिया।