मेघनाथ हनुमान जी को बंदी बनाकर रावण के दरबार में लाता है। भगवान की बड़ी अद्भुत लीला है ।जो की महाबली हनुमान जी भगवान के कार्य के लिए स्वयं को बंधन में बंधा लेते हैं।
लंका में जब राक्षसों ने हनुमान जी को बंधन में बंधा देखा। तो उनके लिए बड़ा तमाशा हो गया ।और इस तमाशे को देखने के लिए सारी राक्षस जाति इकट्ठी हो गई।
कपि बंधन सुनि निसिचर धाए।
कौतुक लागि सभां सब आए।।
हनुमान जी रावण के दरबार में प्रवेश करते हैं। और देखते हैं, कि रावण के दरबार में सारे देवता, दिकपाल सिर झुकाए खड़े हैं ।
कर जोरे सुर दिसिप बिनीता।।
हनुमान जी को यह सब देख कर बड़ा आश्चर्य होता है । हनुमान जी सब देवता और दिकपालों को मन ही मन प्रणाम करते हैं। रावण हनुमान जी को देखकर ठहाके लगाकर हंसता है , फिर पुत्र की मृत्यु का स्मरण करके रावण के हृदय में विषाद उत्पन्न होता है।
कपिहि बिलोकि दसानन
बिहसा कहि दुर्बाद,
सुत बध सुरति कीन्ह पुनि,
उपजा हृदय विषाद।।
रावण कहता है अरे मूर्ख
बंदर तू कौन है।तूने किस के बल पर बगीचा उजाड़ा है?
कह लंकेश कवन तैं कीसा।
केहि कें बल घालेहि बन खीसा।।
क्या तूने मेरा नाम और यस नहि सुना?मैं तुझे निःशंक देख रहा हूं?
की धौं श्रवन सुनेहि नहिं मोही।
देखऊं अति असंक सठ तोही।।
किस अपराध के कारण तूने राक्षसों को मारा है? क्या तुझे अपने प्राण जाने का डर नहीं है।?
मारे निसिचर केंहि अपराधा।
कहु सठ तोहि न प्रान कइ बाधा।
क्या तुझे मुझ से डर नहीं लगता है? क्या तू लंकापति रावण को नहीं जानता है ? तूने लंका में आकर ऐसा दुस्साहस किसलिए किया है? ।
हनुमान जी बड़ी विनम्रता से कहते हैं रावण। जो जगत के स्वामी है। जिनका बल पाकर माया जगत की रचना करती है।
सुनु रावन ब्रह्मांड निकाया।
पाइ जासु बल बिरचति माया।।
जिन्होंने खर दूषण त्रिसरा जैसे राक्षसों को मारा है।
खर-दूषण त्रिसिरा अरु बाली।
बधे सकल अतुलित बलशाली।।
जिनकी एक भौहें टेढ़ी करने से सृष्टि में प्रलय आ जाता है ।और जिनकी नारी का तुम हरण करके लाए हो। मैं उन्हीं भगवान श्री रामचंद्र जी का दूत हूं।
जाके बल लवलेश तें,
जितेहु चराचर झारि,
तासु दूत मैं जा करि,
हरि आनेहु प्रिय नारि।।
हनुमान जी सभी में अपने प्रभु श्री रामजी का ही स्वरुप देखते हैं। इसीलिए रावण को भी प्रभु कहकर सम्बोधित करते हुए कहते हैं।
प्रभु मुझे भूख लगी थी।और वृक्षों को तोड़ना तो मेरा वानरी स्वभाव है।
खायऊं फल प्रभु लागी भूखा।
कपि सुभाव में तोरेऊं रूखा।।
तुम्हारे राक्षसों को तो मैंने इसलिए मारा ,क्योंकि उन्होंने मुझे मारा था।
जिन्होंने मुझे मारा उनको मैंने मारा। इस पर तुम्हारे पुत्र ने मुझे बांध लिया।
जिन्ह मोहि मारा ते मैं मारे।
तेहि पर बांधेऊं तनयं तुम्हारे।।
मुझे बंध जाने में कोई लाज नहिं है।मैं तो अपने प्रभु का कार्य करना चाहता हूं।
मोहि न कछु बांधे कइ लाजा।
कीन्ह चहऊं निज प्रभु कर काजा
हनुमान जी कहते हैं सुन रावण । मैं तुझसे हाथ जोड़कर विनती करता हूं। अभिमान छोड़कर मेरी सीख सुन लो।
प्रभु श्री राम जी से बेर मत कीजिए। श्री जानकी जी को लौटा दीजिए।
तासो बयरु कबहुं नहिं कीजे।
मोरे कहें जानकी दीजै।।
प्रभु शरणागतों पर दया करते हैं।
तुम भी सरण में गये तो तुम्हारे सब अपराध क्षमा कर देंगे।
गएं सरन प्रभु राखिहैं,
तव अपराध बिसारि।।
रामजी के चरणों को हृदय में धारण करके फिर लंका पर अचल राज करो।
रामचरण पंकज उर धरहु।
लंका अचल राज तुम्ह करहूं।।
भगवान श्री राम जी से बैर करने में भलाई नहीं है। मेरा कहना मान लो।मैं जानता हूं। मेरे प्रभु श्री रामजी बड़े दयालु हैं। तुम्हारे अपराध को क्षमा कर देंगे। तुम अभी जाकर उनसे अपनी गलती के लिए क्षमा मांग लो। और श्री जानकी जी को उन्हें सौंप दो। और लंका का तुम अचल राज्य करो ।तुम्हारा कोई कुछ नहीं बिगाड़ने वाला है।
रावण कहने लगा वाह रे मूर्ख बंदर ।तू हमें गुरु ज्ञान दे रहा है। हमें बड़ा ज्ञानी गुरु मिला है। तू बड़ा निशंक है देख नहीं रहा मौत की अधिष्ठात्री देवी तेरे पास में खड़ी है। हनुमान जी ने कहा रावण मैं जानता हूं। मौत की अधिष्ठात्री देवी मेरे पास खड़ी है। किंतु वह देख तुम्हें रही है।
हनुमान जी कहते हैं रावण रामजी से विमुख होने वाले की रक्षा हजारों शंकर हजारों विष्णु भी नहीं कर पाते हैं।
राम जी के शत्रु को कोई शरण नहीं देता है।
शंकर सहस विष्णु अज तोही।
सकहिं न राखि राम कर द्रोही।।
हनुमान जी ने भक्ति ज्ञान वैराग्य से सनी हुई बात रावण के हित के लिए कही। किंतु वह अभिमानी हंसते हुए कहने लगा।
हमें यह बड़ा ज्ञानी गुरु बंदर मिला है।
मिला हमहि कपि गुर बड़ ग्यानी।रावण को बढ़ा क्रोध आता है ।वह राक्षसों को आदेश करता है। कि इस बानर को प्राण दंड दे दो।
बेगि न हरहु मूढ़ कर प्राना।।
हनुमान जी बिल्कुल निडर हैं। वह जानते हैं। जब श्री सीता जी को मारने के लिए रावण ने अपनी कृपाण निकाली थी। तो उस समय मंदोदरी ने आकर उन्हें रोका था। और रावण ने मुझे मारने का आदेश दिया है तो निश्चित रूप से प्रभु यहां भी किसी ना किसी को रोकने के लिए भेजेंगे ।और वही हुआ। विभीषण जी अपने सेनापतियों के साथ दरबार में उपस्थित होते हैं ।
सुनत निसाचर मारन धाए।
सचिवन्ह सहित विभीषण आये।
विभीषण जी रावण से कहते हैं। कि दूत को मारना यह नीति नहीं है।
नीति बिरोध न मारिअ दूता।।
दूत को प्राण दंड देना अपराध है। कोई और दंड दे दीजिए।विभीषण की बात मानकर रावण अपना निर्णय बदलता हुआ कहता है। कि ठीक है बंदर के नाक कान काट दिए जाए।
अंग भंग करि पठ इअ बंदर।।
बिना नाक कान के यह अपने स्वामी के पास जाएगा। जरूर इसके स्वामी यहां आएंगे ।तब मैं देखता हूं कौन कितना बलशाली है। नाक कान काटने का आदेश सुनकर हनुमान जी को मन में लगा ।यह तो ठीक नहीं हो रहा है। मैं प्रभु श्री राम जी के कार्य से यहां आया हूं ।और क्या मैं यहां से अपनी नाक कटा कर अपने स्वामी के पास जाऊंगा।? नहीं नहीं मैं ऐसा नहींन करूंगा ।अपनी नाक कटा कर नहीं जाऊंगा। हनुमान जी के मन में एक युक्ति सूझी। क्योंकि हनुमानजी विद्यावान गुनी अति चातुर। बड़े चतुर है ।युक्ति सुझाकर वह अपनी पूंछ को बार-बार चूमने लगे ।हनुमान जी का आशय यह था। कि रावण का ध्यान पूंछ की ओर चला जाए।ताकि रावण इस पूंछ कौ काटने का आदेश दे दे। पूंछ कट जाए तो कोई बुराई नहीं है ।नाक नहीं कटना चाहिए। इसलिए हनुमान जी बार-बार अपनी पूंछ को चूमने लगे। रावण ने देखा बंदर को अपनी पूंछ बहुत प्यारी है ।
कपि के ममता पूंछ पर
सबहिं कहा समुझाइ।।
इसमें आग लगा दी जाए । रावण ने आदेश किया बंदर की पूंछ में कपड़े लपेटकर तेल में भिगोकर आग लगा दो।
तेल बोरि पट बांधि पुनि,
पावक देहु लगाइ।।
इसके आगे का प्रसंग अगली पोस्ट में जय श्री राम।।🏹🚩