जय श्री राम।।
हनुमान जी महाराज विभीषण जी से श्री सीता जी के दर्शन की युक्ति जानकर अशोक वाटिका की ओर चले। अशोक वाटिका में पहुंचकर हनुमान जी ने माता सीता के दर्शन किए । मन ही मन आनंदित हुए।मन ही मन श्री सीता जी को प्रणाम किया।
*देखि मनहि मन कीन्ह प्रणामा।।*
वह दुखी मन से अशोक वृक्ष की ओट में बैठी हुई है ।हनुमान जी को राम जी की कही गई बातें याद आई ।रामजी ने हनुमान जी से कहा था। कि तुम सीता जी के समक्ष एकदम से नहीं जाना।
वह तुम्हें देखकर डर न जाये। क्योंकि वनवास आते समय मैंने माता कौशल्या जी से यह सुना था ।माता कौशल्या ने कहा था कि जानकी तुम्हारे साथ वन में कैसे रह पाएगी ।वन मैं तो भयानक जानवर रहते हैं ।और यह तो तस्वीर में बंदर को देखकर डरती है। रामजी ने हनुमान जी से कहा था। हनुमान संयोग से तुम्हारा रूप भी बन्दर का है।हनुमान जी को याद आ गया कि कहीं ऐसा ना हो ।माता श्री जानकी जी एकदम से मुझे देख कर डर जाए।
राम जी के द्वारा कही गई बात सत्य हो जाए। इसलिए वह उसी अशोक वृक्ष के पत्ते की ओट में जाकर छुप गए।और विचार करने लगे अब क्या किया जाए।?
*तरु पल्लव महुं रहा लुकाई।*
*करइ विचार करों का भाई।।*
उसी समय रावण मंदोदरी आदि रानियों के साथ वहां आता है ।
*तेहि अवसर रावन तंह आवा।।*
माता सीता को धमकाता है। उन्हें अपनी पटरानी बनाने का आग्रह करता है।साम दान भय भेद सब नीतियों से समझाने का प्रयास करता है।
*साम दान भय भेद देखावा।।*
माता श्री सीताजी भूमि से एक
तिनका उठाती है। और उस तिनके की ओट से रावण को उसके प्रश्नों का उत्तर देती है ।
*तृन धरि ओट कहति बैदेही।।*
कहती है रे दुष्ट तुझे शर्म आना चाहिए ।जुगनू होकर अपने आप को सूर्य के समान समझता है।सियार होकर सिंहनी को पाने की आशा रखता है ।तुझे तो डूब कर मर जाना चाहिए ।रे दुष्ट रावण, तुझे राम जी के वाण की खबर नहीं है।
*खल सुधि नहि रघुबीर बान की।।*
श्री सीता जी के द्वारा अपने प्रति ऐसे अपमान भरे शब्द सुनकर रावण सीताजी को मारने के लिए तलवार निकालता है।
हनुमान जी के मन में क्षणभर के लिए यह विचार आया कि प्रकट होकर रावण को उसके इस कृत्य के लिए सजा दी जाए। किंतु तभी देखते हैं कि मंदोदरी आकर न्याय संगत बातें कहकर रावण को ऐसा करने से रोकती है।
*सुनत बचन पुनि मारना धावा।*
*मयतनयां कहि नीति बुझावा।।*
मंदोदरी, रावण को समझाती है।
हनुमान जी यहां अपने आप में विचार करते हैं कि अच्छा ही हुआ कि मैंने रावण को नहीं रोका।
यदि मैं आज श्री सीता जी की रक्षा करता तो एक प्रश्न यह आ जाता कि मैं नहीं होता तो आज श्री सीता जी को कौन बचाता।
मुझमें अहं भाव भी आ सकता था। जबकि प्रभु तो अन्तर्यामी हैं। सबकी रक्षा करना जानते हैं।
अब मुझे कहीं डरने की आवश्यकता नहीं है।
श्री सीता जी की रक्षा के लिए मंदोदरी को भेज दिया ।यदि मुझपे भी कोई संकट आया तो प्रभु अवश्य किसी को मेरी रक्षा के लिए भेजेंगे। हनुमान जी अब निश्चित हो गए।
रावण श्री सीता जी को एक महीने की अवधि देकर चला जाता है। कि एक महीने में मेरा कहा नहीं माना तो मैं तुम्हें मृत्युदंड दूंगा।
*मास दिवस महुं कहा न माना।*
*तों मैं मारबि काढि कृपाना।।*
श्री सीता जी रावण के द्वारा इस तरह भय दिखाकर जाने के पश्चात अपने आप को अग्नि में जलाना चाहती है ।अशोक वृक्ष से आशा करती है। तू ही अपना नाम सत्य कर दे। मुझे कहीं से अग्नि का प्रबंध करा दे। अब मैं जीना नहीं चाहती हूं।
*सुनहु बिनय मम बिटप अशोका।*
*सत्य नाम करु हरु मम सोका।।*
त्रिजटा नाम की एक राक्षसी थी। जिसका राम जी के चरणों में अत्यधिक प्रेम था।
*त्रिजटा नाम राक्षसी एका।*
*रामचरन रति निपुन बिबेका।।*
त्रिजटा से भी आग्रह करती है। त्रिजटा कहती है। रात्रि का समय है ,कहीं से अभी अग्नि नहीं मिलेगी । तुम निश्चिंत हो जाओ डरो नहीं ।मुझे रात्रि को एक स्वप्न आया है।
त्रिजटा सब राक्षसियां को एकत्रित करके सीता जी के समक्ष रात को जो उसे स्वप्न आया था उसका वर्णन करती है।
*सपने बानर लंका जारी।*
*जातुधान सेना सब मारी।।*
रावण नंगा है,गधे पर सवार है।
एक बंदर ने लंका जला दी है।
नगर में रामजी की दुहाई फिर गई है।
यह स्वप्न कुछ ही दिनों में अवश्य सत्य होगा।
*होइहि सत्य गये दिन चारी।।*
त्रिजटा की बातें सुनकर सब राक्षसी डर गई और श्री सीता जी की सेवा करने लगी।
*तासु बचन सुनि ते सब डरी।*
*जनक सुता के चरनिन्ह परी।।*
ऐसा कहकर त्रिजटा भी चली जाती है । माता सीता मन में विचार करती है एक माह बीतने पर यह दुष्ट मुझे मार देगा।
*मास दिवस बीतें मोंहि,*
*मारिहि निशिचर पोच।।*
श्री सीता जी अशोक वृक्ष से अग्नि पाने की आशा रखतीं हैं। दुखी मन से कहतीं हैं कि मैं अब जीना नहीं चाहती जल जाना चाहती हूं।
श्री जानकी जी कोअत्यधिक दुखी देखकर हनुमान जी वृक्ष के ऊपर से माता जानकी जी की गोद में अंगूठी गिराते हैं ।श्री जानकी जी उस अंगूठी को देखकर चकित रह जाती है। पहचान जाती है
*चकित चितव मुदरी पहिचानी।।*
कि यह तो प्रभु श्री राम जी की अंगूठी है।
माया से तो यह अगूंठी बनाई नहीं जा सकती है।
*माया तें असि रचि नहिं जाई।।*
वह इधर-उधर देखती है ।कहती हैं। इस अंगूठी को लाने वाले तुम कौन हो? मनुष्य य प्राणी जो भी हो मेरे सामने प्रकट क्यों नहीं होते हो? हनुमान जी तभी राम कहानी सुनाना प्रारंभ करते हैं।
*रामचंद्र गुण बरने लागा।*
*सुनतहिं सीता कर दुःख भागा।।*
माता जानकी राम कहानी सुनकर मन ही मन आनंदित होती है । कहती हैं भाई। तुम कौन हो? जो राम जी की सुन्दर कहानी सुना रहे हो?।मेरे समक्ष प्रकट क्यों नहीं होते हो? हनुमानजी ने कहा माता रामजी की कहानी सुन्दर है ।इसे सुनाने वाला तो एक बन्दर है।यह तो सामने न आये तो ही ठीक है ।श्री सीता जी कहती हैं तुम जो भी हो मेरे सामने आओ। तभी हनुमान जी अपना सूक्ष्म रूप धरकर माता श्री जानकी जी के समक्ष प्रकट होते हैं ।
*तब हनुमंत निकट चलि गयऊ।*
*इसके आगे की कहानी अगले भाग में🙏🚩 जय श्री राम।।*