सुरसा राक्षसी हनुमान जी को बल और बुद्धि में निपुण जानकर उन्हें आशीर्वाद देती है। हनुमान जी आगे चलते हैं। समुद्री मार्ग में एक राक्षसी मिलती है, जो पक्षियों की परछाई को पकड़कर खाया जाया करती थी ।
निसिचरि एक सिंधु महुं रहई।
करि माया नभु के खग गहई।।
वही व्यवहार उसने हनुमान जी के साथ करना चाहा। हनुमान जी ने उसका संहार किया। और समुद्र पार करके लंका नगरी में प्रवेश किया।
ताहि मारि मारुतसुत बीरा।
बारिधि पार गयउ मतिधीरा।।
वहां एक पर्वत पर चढ़कर उन्होंने देखा लंका नगरी बड़ी सुंदर है।
चमचम चमक रही है
बहुत बड़ा किला है
गिरि पर चढ़ लंका तेहिं देखी।
कहीं न जाइ अति दुर्ग बिषेषी।।
फिर उनके मन में विचार आया, कि मैं इस नगरी की चमक दमक देखने नहीं आया हूं। मेरा उद्देश्य तो यहां भक्ति रूपा माता श्री जानकी जी की खोज करना है। यहां राक्षसों का पहरा है। इसके लिए मुझे कुछ उपाय करना होगा। और हनुमान जी वहां अपना सुक्ष्मरूप बना लेते हैं। मच्छर के समान अपना रूप बनाते हैं ।
मसक समान रुप कपि धरी।।
रात के अंधेरे में हनुमान जी आगे बढ़ते हैं । लंका के मुख्य द्वार पर लंकनि नाम की राक्षसी का पहरा रहता है। वह हनुमान जी को देख लेती है। कहती है तुम कौन हो ?
चोरों की भांति कहां जा रहे हो? मैं चोरों को लंका में प्रवेश नहीं करने देती हूं। जगत में जितने चोर हैं,वह सब मेरा आहार है।
हनुमान जी ने मन में विचार किया, जब चोरों को जाने नहीं देती है, तो असली चोर तो तेरी लंका का मालिक ही है। हनुमान जी ने समय गंवाना उचित नहीं समझा। राक्षसी को कोई उत्तर नहीं दिया। वह फिर कहने लगी।क्या तुम मुझे जानते नहीं हो?
जानेहु नहीं मरमु सठ मोरा।।
हनुमान जी जान रहे थे यह राक्षसी है। ऐसे मानने वाली नहीं है। विनम्रता का व्यवहार इसके आगे काम नहीं आएगा। संत कहते हैं विनम्रता हमारा गुण है। किंतु अपमान सहते रहना यह हमारा दोष है।
हनुमान जी उसे एक मुक्का मारा। उसके मुंह से रक्त की धारा निकलने लगती है। वह विकल होकर गिर जाती है।
मुठिका एक महाकपि हनि।
रुधिर बमत धरनी ढनमनी।।
वह जान जाती है कि ब्रह्मा जी का वरदान पूरा होने वाला है। वह विनय करते हुए हनुमान जी से कहती है मैं तुम्हें जान गई हूं ।ब्रह्मा जी ने मुझे यह वरदान देते समय कहा था ।कि जिस दिन तुम एक वानर की मार से घायल हो जाओ। तुम्हें रक्त निकले। तो समझ लेना कि रावण का अंत होने वाला है। राक्षसों का विनाश होगा।
बिकल होसि तैं कपि के मारे।
तब जानेसु निसिचर संघारे।।
बड़ी अद्भुत बात है,संत का स्पर्श होते ही उस राक्षसी का हृदय परिवर्तन हो गया बुद्धि पलट गई।
जबकि हनुमानजी ने उसे अपना कोई परिचय नहीं दिया था।और न ही लंका में आने का कारण बताया था।जिस रावण की वह जिम्मेदार पहरेदार थी ,लंका की सुरक्षा का भार उसके ऊपर था।
संत के मुक्के से बुद्धि निर्मल हो गई।अब उसने मान लिया कि अपराधी तो रावण है।
वह हनुमान जी को तात कहकर सम्बोधित करने लगी। अपने आप को भाग्यशाली मानने लगी।
तात मोर अति पुन्य बहूता।
देखेऊ नयन राम कर दूता।।
और बिना पूंछे ही सब पता ठिकाना बताने लगी।
कहती हैं इस नगरी को आप अपनी कोशलपुर नगरी ही समझिये,और हृदय में रामजी का स्मरण करते हुए प्रवेश कीजिए।
प्रबिसि नगर कीजे सब काजा।
हृदय राखि कोशलपुर राजा।।
अब हनुमान जी वहां से आगे बढ़ते हैं। हनुमान जी लंका नगरी के हर महल को मंदिर मानते हैं।
असंख्य योद्धाओं को देखते हैं।
मंदिर मंदिर प्रति करि सोधा।
देखें जंह तंह अगणित जोधा।।
पूरी रात भर लंका में ढूंढते हैं । किंतु कहीं जानकी जी के दर्शन नहीं होते हैं।वह जानते हैं कि माता सीता का जहां निवास होगा उसे भवन मानना तो अपराध होगा। श्री जानकी जी तो जहां होंगी वह मंदिर ही होगा। और पता नहीं वह किस मंदिर में होगी? इसलिए हनुमान जी लंका के हर भवन को मंदिर मानते हैं। तुलसीदास जी का यह प्रसंग हमें यह संदेश देता है। संत कहते है। कि जिस तरह हनुमान जी लंका में माता सीता की खोज में गए। उसी तरह हमारा जन्म भी इस संसार में भक्ति माता की खोज करने के लिए ही हुआ है।इस संसार की चमक-दमक को देखकर हमें यह नहीं भूलना चाहिए ,कि हम केवल इस संसार की चमक दमक को देखने आए हैं ।सुख वैभव को पाने के लिए आये हैं।हमारा मुख्य उद्देश्य तो यहां भक्ति करना है। भगवान को पाना है। और भगवान को पाने के लिए हमें भी उसी तरह अपना अभिमान छोड़कर बिल्कुल छोटा बनना पड़ेगा। जिस तरह हनुमान जी ने यह अनुभव किया कि माता सीता के दर्शन तो छोटा बनकर ही किया जा सकता है। उसी तरह जब तक हम अभिमान रहित नहीं होंगे । भगवान की भक्ति को पाना असंभव है। हनुमान जी ने समुद्र लांघने जैसा इतना महान कार्य किया ।इसके पश्चात भी अपने आप को एक मच्छर के समान बनाया।
मसक समान रूप कपि धरि।।
वह जानते हैं मेरा यहां आने का उद्देश्य अपने आप का प्रदर्शन करना नहीं है । इसलिए हनुमान जी बिल्कुल छोटे बन गए मच्छर के समान बन गए। और यही प्रेरणा हमें हनुमान जी के इस चरित्र से लेना चाहिए कि, संसार में हम हमारे होने का प्रदर्शन ना करें। तन मन धन जो भी विशेषता देकर भगवान ने हमें इस संसार में भेजा है उसका अभिमान न करें।अपने आप को अभिमान रहित करें ।तभी भगवान की भक्ति को प्राप्त कर सकते हैं।
कुतर्क करके, अपनी विद्वत्ता प्रकट करने का प्रयास ना करें। एक संत कह रहे थे। कि एक व्यक्ति ने यह कुतर्क किया। कि हनुमानजी मच्छर के समान बन गए थे तो फिर उस अंगूठी का क्या हुआ होगा। जिसे राम जी ने उन्हें सीता जी को देने के लिए दी थी। संत ने उत्तर दिया भाई जिस तरह हनुमान जी छोटे बन गए थे उसी तरह मुद्रिका को भी छोटी बना लिया होगा ।कुतरकी व्यक्ति कहने लगा नहीं नहीं। आपका यह उत्तर ठीक नहीं है। तब गुरु जी के चेले ने उस व्यक्ति से कहा इधर आओ तुम्हारे प्रश्न का उत्तर में देता हूं। तुम्हें यह तो मालूम है कि हनुमानजी मच्छर के समान बन गए थे। उसने कहा हां यह रामायण में लिखा है। तो गुरु जी के शिष्य ने कहा रामायण में यह भी लिखा है कि लंका में पहाड़ जैसे राक्षस थे ।उस व्यक्ति ने स्वीकार किया हां यह भी सही है। तो गुरु जी के शिष्य ने कहा कि जब लंका में पहाड़ जैसे राक्षस थे। तो स्वाभाविक है वहां के मच्छर कम से कम बिल्ली के बराबर तो रहे होंगे? उस कुतरकी व्यक्ति को लगा बात सही है। उसने मान लिया हां यह बात आपकी सही है । गुरुजी के चेले ने कहा ।बस तो फिर जब वहां के मच्छर बिल्ली के समान रहे होंगे तो अंगूठी रखने की कोई समस्या ही नहीं रही होगी। वह मान गया। चेले की प्रशंसा करने लगा।। तो कहने का अभिप्राय यह है कि इस तरह के कुतर्क करके मिलना कुछ नहीं है। सकारात्मक विचार रखें ।भगवान की कथा प्रसंग को भाव पूर्ण ढंग से श्रवण करें, पढ़ें, मनन करें, विश्वास करें,
अगला प्रशंग अगली पोस्ट में।जय श्री राम जय ,हनुमान।।
Jay shree Ram
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