सब वानर वीर समुद्र किनारे अपने-अपने बल का बखान कर रहे हैं। किंतु समुद्र पार करने में सबको संशय हो रहा है।
जामवंत जी ने हनुमान जी की और देखा और कहा। हनुमान तुम क्यों चुप हो?
कहइ रीछपति सुनु हनुमाना।
का चुप साधि रहेहु हनुमाना।।
तुम अपने बल का बखान क्यों नहीं कर रहे हो?
हनुमान जी ने कहा जिसके पास अपना बल है वह अपने बल का बखान कर रहा है। मेरे पास मेरा स्वयं का कोई बल नहीं है ।तो मैं क्या बखान करूं? किसी ने कहा कि आप तो अतुलितबलधामं हो। आप तो बल के भंडार हो। हमने ऐसा सुना है। हनुमान जी ने कहा हां सही सुना है। अतुलित बल धामम मुझे कहते हैं ।किंतु उसके पीछे भी एक रहस्य है। अतुलितबलधामं तो भगवान श्री राम जी है। फिर किसी ने प्रश्न किया? आपको क्या पता है कि भगवान अतुलित बल के धाम है? हनुमान जी ने कहा मुझे पता है ।किसी ने बताया था। इंद्र पुत्र जयंत जब इन के बल की परीक्षा लेने गया था। और जब हार कर इनकी शरण में आया था। तब भगवान ने उससे पूछा था। तुमने श्री सीता जी के पांव में चोंच मारने का दुस्साहस किस प्रयोजन से किया था? तब उसने कहा था कि मैं आपका बल देखना चाह रहा था। भगवान ने उससे पूछा था ।क्या देख लिया मेरा बल? तब उसने कहा था ।हां प्रभु देख लिया मैंने तुम्हारा बल।तुम अतुलितबलधामं हो।
अतुलित बल अतुलित प्रभुताई।।
बस मुझे तभी से मालूम है कि भगवान श्रीराम अतुलितबलधामं है। और मुझे अतुलित बल धामं इसलिए कहते हैं। क्योंकि मैंने श्रीराम जी को अपने हृदय में बिठा रखा है। तो यह जो अतुलित बल है। वह उन्हीं का है । राम जी का है।मेरा कुछ नहीं है। हनुमान जी के इस तर्क से सभी बड़े प्रभावित हुए।
जामवंत जी उन्हें स्मरण करा रहे हैं ।कि किसी तरह हनुमान जी को अपने बल का ज्ञान हो जाए।
कथा सभी जानते हैं कि हनुमान जी को ऋषियो ने अपने बल को भूल जाने का श्राप दिया था। और यह भी कहा था कि जब कोई इन्हें अपने बल का ज्ञान करायेगा तब इन्हें अपने बल की अनुभूति होगी। जामवंत जी इसी प्रयोजन से हनुमान जी को स्मरण
करा रहे हैं। जामवंत जी ने कहा तुम्हारे पिता केसरी भी तो बलवान है ।हनुमान जी ने यह सुनकर भी कोई खास प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की। किंतु जब जामवंत जी ने कहा कि तुम्हारा तो जन्म ही राम जी के कार्य को पूर्ण करने के लिए हुआ है।
राम काज लगि तव अवतारा।।
इतना सुनते ही हनुमान जी को स्मरण हो आया। और उन्होंने अपना विशाल रूप बना लिया।
सुनतहिं भयऊ पर्वताकारा।।
गर्जना करते हुए दहाड़ मारते हुए बोले। मुझे याद आ गया। यह समुद्र को लांघना तो मेरे लिए एक खेल है।
लीलहिं नाघऊं जलनिधि खारा।।
और यदि मैं चाहूं तो रावण को मारकर त्रिकूट पर्वत को ही उखाड़ कर यहां ला सकता हूं।
सहित सहाय रावनहि मारी।
आनऊं इहां त्रिकूट उपारी।।
रामजी को वहां तक जाने की आवश्यकता ही नहीं पड़ेगी। ।जामवंत जी को लगा कि मैंने हनुमान जी को कुछ अधिक ही जगा दिया है। तब जामवंत जी ने कहा हनुमान हमें इतना स्मरण रखना चाहिए। कि हम रामजी की लीला के पात्र हैं। यह लीला तो राम जी की है। हमें केवल उतना ही करना है जितना कि हमें आदेश मिला है। यदि यह सब तुम कर दोगे, तो फिर राम जी क्या करेंगे ?हनुमान जी का क्रोध शांत हुआ। रामचरितमानस के प्रसंग हमें बड़ी प्रेरणा देते हैं।
कि जोश आने पर किस तरह होश से काम लेना चाहिए। हमारे कार्य को किस तरह करना चाहिए। हनुमान जी बलवान है बुद्धिमान है
अतुलितबलधामं है। इसके पश्चात भी जामवंत जी जो वयोवृद्ध हैं ।
हनुमान जी जानते हैं। यह वृध्द है। इनके पास अनुभव है। अनुभव संपन्न है। इन्हीं से पूछना चाहिए कि मुझे क्या करना चाहिए।? इसलिए हनुमान जी जामवंत जी से पूछते हैं कि उन्हें इस कार्य को किस तरह करना चाहिए।कहो मुझे क्या करना है?
जामवंत मैं पूछऊं तोही।
उचित सिखावनु दीजहु मोही।।
जामवंत जी ने हनुमान जी से कहा। कि तुम्हें केवल इतना करना है। कि लंका में जाकर श्री जानकी जी को राम जी का संदेश सुनाना है। और जानकी जी की सुध ले कर वापस आ कर रामजी को सुनाना है।
एतना करहु तात तुम्ह जाई।
सीतहि देखि कहहु सुधि आईं।।
हनुमान जी ने जामवंत जी की बात को स्वीकार किया ।और सभी वीर वानरों से कहा ।तुम यहीं बैठ कर फलाहार करके मेरी प्रतीक्षा करना ।मैं शीघ्र ही श्री जानकी जी के समाचार लेकर आऊंगा।
तब लगि मोहि परिखेहु तुम्ह भाई
सहि दुख कंद मूल फल खाई।।
इस तरह कहकर हनुमान जी ने सब को प्रणाम किया ।
यह कहि नाइ सबन्हि कहुं माथा।
वानर दल कहने लगा। हनुमान जी प्रणाम तो हमें करना चाहिए। क्योंकि संकट को टालने वाले तो आप ही हो। और आप हमें प्रणाम कर रहे हो। हनुमान जी ने कहा नहीं रामजी की लीला में कोई बलवान नहीं है। कोई कमजोर नहीं है ।रामजी ने जिसको जो भूमिका दी है। उस भूमिका को हम सबको निभाना है। मुझे समुद्र के उस पार जाने की भूमिका मिली है। और तुम्हें यहां बैठकर मेरी प्रतीक्षा करने की भूमिका मिली है ।इसलिए निश्चिंत होकर सब अपने-अपने दायित्व को समझिए।
हृदय में राम जी को धारण करके हनुमान जी प्रसन्न होकर चले।
चलेऊ हरषि हियं धरि रघुनाथा।।
इस तरह हनुमान जी ने समुद्र किनारे से लंका के लिए छलांग लगाई।
इसके आगे की कथा अगली पोस्ट में जय श्री राम।।