जब श्री रामजी की आज्ञा से लक्ष्मण जी सुग्रीव जी को लेकर आए तब,
श्री राम जी ने कहा मित्र सुग्रीव। तुमने हमें भुला दिया। तुमने आश्वासन दिया था कि श्री जानकी जी की खोज अति शीघ्र की जाएगी। किंतु तुम्हें इस बात का स्मरण ही नहीं है।
सुग्रीव जी यहां भी अपनी भूल को स्वीकार नहीं कर रहे हैं। गोस्वामी श्री तुलसीदास जी ने कहीं कहीं पर सुग्रीव जी के स्थान पर कपि शब्द का प्रयोग किया है।कपि मतलब बन्दर।
यह हमारा मन भी बन्दर के समान ही है ।जिस तरह बंदर एक स्थान पर अधिक देर टिक नहीं पाता है ।उसी तरह हमारा मन भी बड़ा चंचल है।स्थिर रह ही नहीं पाता है।भूल को स्वीकार ही नहीं करता है। अपनी भूल और अपनी ग़लती का जिम्मेदार किसी और को ठहराता है । सुग्रीव जी की यही दशा है।
सुग्रीव जी कहने लगे प्रभु। मुझे क्षमा करना आपकी माया बड़ी प्रबल है। भूलना और स्मरण रखना यह सब आपकी माया का ही प्रभाव है। आपकी माया ने ही मुझे अपने वचनों को भूलने पर विवश किया है।जब आपकी कृपा होती है तब ही यह आपकी माया पीछा छोढती है।
*अतिशय प्रबल देव तव माया।*
*छूटइ राम करहुं जो दाया।।*
प्रभु श्रीराम जी ने कहा सुग्रीव जी कोई बात नहीं ।किन्तु अब आप प्रयास करो। ताकि श्री सीता जी की खबर अतिशीघ्र मिल जाए ।
*अब सोइ जतनु करहु मन लाईं।*
*जेहि बिधि सीता की सुधि पाई।।*
सुग्रीव जी बोले प्रभु आप चिंता ना करो । मैं आज ही अपनी वानर सेना को श्री सीता जी की खोज में भेजता हूं।
सुग्रीव जी ने आदेश दिया ।और सारी बानर सेना एकत्रित हुई। जामवंत अंगद नल नील और अनेक वानर वीर योद्धा आज्ञा का पालन करने को तैयार हुए। सीता जी की खोज किस तरह करना है कहां-कहां खोजना है यह सब निर्देश सुग्रीव जी ने दिए। और एक महीने की अवधि का सब वानरों को समय दिया गया।
*जनकसुता कहुं खोजहुं जाई।*
*मास दिवस मंह आएहुं भाई।।*
सभी ने सुग्रीव जी की यह बात स्वीकार की। सुग्रीव जी ने इतना भी कहा कि यदि एक महीने में श्री सीता जी का पता न लगा पावो तो लौट कर मत आना। अन्यथा प्राण दण्ड दिया जाएगा।
*अवधि मेटि जो बिनु सुधि पाएं* *आवइ बनिहि सो मोहि मराएं।।*
वानरों ने आज्ञा को स्वीकार किया ।अब सब वानर भगवान श्री राम जी से विदा लेने के लिए आज्ञा लेने के लिए क्रम से भगवान के चरणों में प्रणाम करने जाने लगे ।हनुमान जी सबसे पीछे हैं ।किसी ने हनुमान जी से कहा प्रभु का आशीर्वाद लेने में तो आगे रहो। इसमें पीछे क्यों रह रहे हो ?हनुमान जी ने बड़ा सुंदर उत्तर दिया। कहा कि कहीं-कहीं पर पीछे ही रहना चाहिए। और खासकर उन लोगों के पीछे रहना चाहिए। जो भगवान के चरणों की ओर बढ़ रहे हों। जिन्हें भगवान का आशीर्वाद मिलने वाला हो। मैं उन लोगों के पीछे ही रहता हूं। एक संत जी इसकी व्याख्या इस तरह भी करते हैं कि, हनुमान जी उन लोगों के पीछे रहते हैं ।जो भगवान की ओर बढ़ रहे हों।और तब तक पीछे पड़े रहते हैं ।जब तक कि वह उन्हें भगवान के चरणों तक पहुंचा न दे। भगवान से मिलाकर ही चैन लेते हैं।
हनुमान जी भगवान के ऐसे भक्त हैं कि अनुकूल परिस्थिति में सब को आगे रहने का अवसर देते हैं। और जहां पर स्थिति प्रतिकूल होती है। जहां कठिनाई का सामना करना होता है वहां स्वयं आगे होते हैं। यही हनुमान जी महाराज की विशेषता है। हनुमान जी सबसे अंत में भगवान के चरणों में प्रणाम करने पहुंचे ।
*पाछें पवन तनय सिरु नावा।।*
भगवान श्रीराम ने हनुमान जी को गले लगाया । अपना सेवक समझकर सिर पर हाथ से स्पर्श किया। और अपने हाथ से अंगूठी उतार कर दी।
*परसा सीस सरोरुह पानी।*
*करमुद्रिका दीन्ह जन जानी।।*
अपने हाथ की मुद्रिका देते हुए कहा। जब तुम श्री जानकी जी से मिलो तब उन्हें यह मुद्रिका समर्पित कर देना ।वह जान जाएगी कि मुद्रिका मेरे द्वारा भेजी गई है। और उन्हें तुम्हारे ऊपर कोई संशय भी नहीं होगा। जब तुम श्री जानकी जी से मिलो। तो उन्हें मेरे विरह और बल का बखान करना।
*कहि बल बिरह बेगि तुम्ह आएहु।*
कहना चिंता न करे ।मैं उन्हें अतिशीघ्र बंधन से मुक्त कराऊंगा। उनके बिना में कितना दुखी हूं मेरे इस विरह का भी वर्णन करना।यहां पर लक्ष्मण जी ने राम जी से कहा प्रभु। आप यह जिम्मेदारी श्री हनुमान जी को दे रहे हो। इनसे कह रहे हो कि श्री जानकी जी से मेरे विरह और बल का वर्णन करना। हनुमान जी को तो स्वयं ही अपने बल का ज्ञान नहीं रहता है ।यह तो अपने बल को ही भूले रहते हैं ।फिर तुम्हारे बल को कैसे याद रखेंगे? और फिर एक बात यह भी है आप कह रहे हो कि मेरे विरह का वर्णन करना। हनुमान जी महाराज तो बाल ब्रह्मचारी हैं। इनका तो कभी संजोग ही नहीं बना ।यह विरह को क्या समझेंगे? ।
इन्हें विरह का कोई अनुभव ही नहीं है। तो यह तुम्हारे विरह का वर्णन माता श्री जानकी जी से कैसे करेंगे?
भगवान श्री राम जी ने लक्ष्मण जी को बड़ा सुंदर उत्तर दिया ।कहने लगे लक्ष्मण, पहली बात तो यह है कि जिन्हें अपने बल का ज्ञान नहीं रहता है वही मेरे बल का वर्णन कर सकता है। जिन्हें अपने बल पर घमंड रहता है अभिमान रहता है वह मेरे बल का क्या वर्णन करेगा। वह तो अपने ही बल का बखान किया करता है।और रही बात विरह कि। तो मैं यह जानता हूं ।विरह का वर्णन हनुमान जी अच्छी तरह कर देंगे ।क्योंकि इनके जीवन में इन्हें स्वयं का कोई विरह नहीं है। इसीलिए यह मेरे विरह का वर्णन कर देंगे। जिनका स्वयं का कोई विरह होता है ।यदि उनसे यह बात कहो तो उनका उत्तर यही रहता है ।कि मेरा खुद का ही दुख इतना है मेरा स्वयं का ही बिरह इतना है कि मैं तुम्हारे विरह का वर्णन क्या करूंगा। हनुमान जी का स्वयं का कोई विरह नहीं है।
*विद्यावान गुनी अति चतुर हैं।*
विद्या के भंडार है। यह मेरे संदेश को भलीभांति श्री जानकी जी को सुनाएंगे। इस तरह भगवान ने मुद्रिका देते हुए हनुमान जी और सभी वीर वानरों को विदा किया । सभी वानर नदी तालाब पहाड़ों पर श्री सीता जी को खोजते हुए जा रहें हैं।
चले सकल बन खोजत,
सरिता सर गिरि खोह।
रामकाज लयलीन मन,
बिसरा तन कर छोह।।
इसके आगे का प्रश्गं अगली पोस्ट में जय श्री राम।