आपने देखा होगा कि बहुत से लोग बाएं कंधे से दाएं बाजू की ओर एक कच्चा धागा लपेटे रहते है,इस धागे को "जनेऊ" कहा जाता है।जनेऊ तीन धागों वाला एक सूत्र होता है!जनेऊ को संस्कृत भाषा में ‘यज्ञोपवीत’ (यज्ञ+उपवीत) कहा जाता है और,यह सूत से बना पवित्र धागा होता है. जिसे,व्यक्ति बाएं कंधे के ऊपर तथा दाईं भुजा के नीचे पहनते हैं।
अर्थात इसे गले में इस तरह डाला जाता है कि वह बाएं कंधे के ऊपर रहे।जनेऊ को उपवीत, यज्ञसूत्र, व्रतबन्ध, बलबन्ध, मोनीबन्ध और ब्रह्मसूत्र और "उपनयन संस्कार" भी कहते हैं।
"उपनयन" का शाब्दिक अर्थ है "पास या सन्निकट ले जाना"।
लेकिन किसके पास?
जाहिर सी बात है कि इसका अर्थ ब्रह्म (ईश्वर) और ज्ञान के पास ले जाना होता है।ये हमारे सनातन हिन्दू धर्म के 16 संस्कारों में से एक प्रमुख संस्कार है।और सनातन हिन्दू समाज का हर वर्ग जनेऊ धारण कर सकता है।
क्योंकि, जनेऊ धारण करने के बाद ही द्विज बालक को यज्ञ तथा स्वाध्याय करने का अधिकार प्राप्त होता है।
द्विज का अर्थ होता है "दूसरा जन्म"।सीधे शब्दों में इसका मतलब हुआ.मूढ़ता से ज्ञान की ओर के लिए जन्म।इसीलिए हमारे हिन्दू सनातन धर्म में प्रत्येक हिन्दू को जनेऊ पहनना और उसके नियम का पालन करना अनिवार्य माना जाता है।
लेकिन क्या आप जानते हैं कि जनेऊ में तीन सूत्र ही क्यों होते हैं?
असल में ये तीन सूत्र देवऋण, पितृऋण और ऋषिऋण के लिए होते हैं और, यह सत्व, रज और तम का प्रतीक है।यह गायत्री मंत्र के तीन चरणों का भी प्रतीक है और यह तीन आश्रमों का प्रतिनिधित्व करता है।इसीलिए संन्यास आश्रम में यज्ञोपवीत को उतार दिया जाता है।
इसी तरह यज्ञोपवीत के एक-एक तार में तीन-तीन तार होते हैं तथा, इस तरह कुल तारों की संख्या नौ होती है।जिसमें एक मुख, दो नासिका, दो आंख, दो कान, मल और मूत्र के दो द्वारा मिलाकर कुल नौ होते हैं।साथ ही साथ यज्ञोपवीत में पांच गांठ लगाई जाती है जो ब्रह्म, धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का प्रतीक है एवं यह पांच यज्ञों, पांच ज्ञानेद्रियों और पंच कर्मों का भी प्रतिनिधत्व करता है।यही कारण है कि समाज का हर वर्ग जनेऊ धारण कर सकता है।
जनेऊ की लंबाई 96 अंगुल होती है जिसका तात्पर्य यह हुआ कि जनेऊ धारण करने वाले को 64 कलाओं और 32 विद्याओं को सीखने का प्रयास करना चाहिए।
ध्यान रखने योग्य बात यह है कि चार वेद, चार उपवेद, छह अंग, छह दर्शन, तीन सूत्रग्रंथ, नौ अरण्यक मिलाकर कुल 32 विद्याएं होती है।एवं 64 कलाओं में वास्तु निर्माण, व्यंजन कला, चित्रकारी, साहित्य कला, दस्तकारी, भाषा, यंत्र निर्माण, सिलाई, कढ़ाई, बुनाई, दस्तकारी, आभूषण निर्माण, कृषि ज्ञान आदि आते हैं।
अगर हम जनेऊ के नियम की बात करें तो यज्ञोपवीत को मल-मूत्र विसर्जन के पूर्व दाहिने कान पर चढ़ा लेना चाहिए और हाथ स्वच्छ करके ही उतारना चाहिए।
इसका स्थूल भाव यह है कि
यज्ञोपवीत कमर से ऊंचा हो जाए और अपवित्र न हो।साथ ही इसी बहाने सनातनी हिन्दू को अपने व्रतशीलता के संकल्प का ध्यान बार-बार दिलाया जाए।
और यदि यज्ञोपवीत का कोई तार टूट जाए या 6 माह से अधिक समय हो जाए तो उसे बदल देना चाहिए क्योंकि खंडित यज्ञोपवीत शरीर पर नहीं रखा जाता है।
साथ ही धागे कच्चे और गंदे होने लगें तो उसे पहले ही बदल देना उचित है।
इसके अलावा जन्म-मरण के सूतक के बाद इसे बदल देने की परम्परा है और महिलाओं को हर मास मासिक धर्म के बाद जनेऊ को बदल देना चाहिए।ये तो हो गए हमारे यज्ञोपवीत के आध्यात्मिक कारण!
लेकिन जब हम यज्ञोपवीत के वैज्ञानिक कारण को जानते हैं तो सहसा ही हमें अपने पूर्वजों के ज्ञान एवं अपनी परंपराओं पर गर्व होता है
चिकित्सा विज्ञान के अनुसार दाएं कान की नस अंडकोष और गुप्तेन्द्रियों से जुड़ी होती है एवं मूत्र विसर्जन के समय दाएं कान पर जनेऊ लपेटने से शुक्राणुओं की रक्षा होती है।आधुनिक वैज्ञानिकों अनुसार भी बार-बार बुरे स्वप्न आने की स्थिति में जनेऊ धारण करने से इस समस्या से मुक्ति मिल जाती है।
साथ ही कान में जनेऊ लपेटने से मनुष्य में सूर्य नाड़ी का जाग्रण होता है।सिर्फ इतना ही नहीं बल्कि कान पर जनेऊ लपेटने से पेट संबंधी रोग एवं रक्तचाप की समस्या से भी बचाव होता है।
माना जाता है कि शरीर के पृष्ठभाग में पीठ पर जाने वाली एक प्राकृतिक रेखा है जो विद्युत प्रवाह की तरह काम करती है और यह रेखा दाएं कंधे से लेकर कमर तक स्थित है।इसीलिए जनेऊ धारण करने से विद्युत प्रवाह नियंत्रित रहता है जिससे काम-क्रोध पर नियंत्रण रखने में आसानी होती है।
इस तरह जनेऊ के रूप में हमारे पूर्वजों ने आध्यात्म और वैज्ञानिकता का अदभुत संगम दिया है और, आश्चर्य की बात तो यह है कि जिस समय ये तथाकथित रूप से अतिविकसित पश्च्यात सभ्यता के पूर्वज जंगलों में नंग-धड़ंग रहते थे एवं कंद-मूल खाते थे उस समय भी हमारे पूर्वजों को एक्यूप्रेशर का पूर्ण ज्ञान था और वे परंपराओं के माध्यम से उसे जन-जन तक पहुंचा रहे थे.ताकि, हरेक जन-सामान्य उस ज्ञान का लाभ उठा सके।
जय महाकाल...!!!