सर ढंकने की प्रथा थी या घूंघट करने की,
दोनों में अन्तर है?
क्या इस प्रथा के पीछे अंधविश्वास था या कोई वैज्ञानिक कारण?
अगर वैज्ञानिक कारण था, तो सनातन धर्म को बदनाम क्यों किया गया?
सर ढंके हुए महिला और पुरुष
जिस प्रकार सती प्रथा के वास्तविक रूप को छिपाकर उसको गलत ढंग से प्रस्तुत किया गया था, ठीक उसी प्रकार महिलाओं द्वारा सिर ढकें जाने की आदत को भी गलत तरीके से दिखाया गया और उसे घूंघट प्रथा का नाम दे दिया गया।
जैसा कि आप जानते हैं कि सनातन धर्म सत्य है जो अनंत काल से चलता आ रहा है और अनंत काल तक चलता रहेगा। सत्य के साथ-साथ सनातन धर्म वैज्ञानिक भी है इसीलिए इसे वैदिक धर्म भी कहा जाता है, जहाँ प्रत्येक कार्य के पीछे कुछ ना कुछ वैज्ञानिक कारण अवश्य होता है।
और इस वैज्ञानिक कारण को समझने के लिए अत्यंत सूक्ष्म और तीव्र बुद्धि का होना आवश्यक है जो कि वामपंथी इतिहासकारों और लेखकों के पास नहीं थी। इसीलिए उन्होंने सनातन धर्म को मिथ्या और अंधविश्वास बताने के लिए हर वह प्रयास किया जो वह कर सकते थे।
ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार सती प्रथा को बदनाम किया गया था,
सिर ढंकने की आदत को भी बदनाम किया गया। मैं हर बार आदत इसीलिए बोल रहा हूँ, क्योंकि यह सिर्फ स्त्रियों की ही नहीं अपितु पुरुषों की भी आदत थी!
क्योंकि सिर ढंकने और चेहरा छिपाने,
दोनों ने गहरा अंतर है जिसे वामपंथी इतिहासकार या कहा जाए अंग्रेजी इतिहासकार नहीं समझ पाए। और उन्हें लगा कि सनातन धर्म में स्त्रियों को पुरुष के सामने अपना चेहरा दिखाने तक की भी आज्ञा नहीं है।
परंतु महिलाओं द्वारा अपना चेहरा सिर्फ अंग्रेजी और मुगल आक्रमणकारियों से ही छुपाया जाता था क्योंकि वह उन्हें कुदृष्टि से देखते थे।
यह भी महिलाओं द्वारा अपना मान बचाने के लिए किया गया एक उपाय मात्र था यह कोई धार्मिक आज्ञा नहीं थी।
परंतु देश के, धर्म के सौदागरों ने बिना सोचे समझे विदेशी इतिहास पर ऐसे विश्वास किया,
जैसे वह इतिहास उनके किसी रिश्तेदार ने लिखा है।
सिर ढंकना और घूंघट करना दोनों में गहरा अंतर है इस बात को हमें भी समझना चाहिए!
अगर सामाजिक और धार्मिक दृष्टि से देखा जाए तो अपने से बड़ों के सम्मान में सर ढंका जाता था, और यह कार्य सिर्फ महिलाओं द्वारा ही नहीं अपितु पुरुषों द्वारा भी किया जाता था।
जब भी कोई स्त्री या पुरुष अपने से बड़ों के सामने जाते थे तो अपना सर ढंक लेते थे। जैसे महिलाएं सर पर पल्लू रख लेती थीं और पुरुष सर पर पगड़ी बांध लेते थे। ऐसा सम्मान की दृष्टि से किया जाता था ना कि महिलाओं का शोषण करने हेतु।
मैं फिर वही बात दोहराता हूँ कि सनातन स्त्रियों का सम्मान करना सिखाता है,
ना कि शोषण करना! परंतु धर्म के सौदागरों ने अपने फायदे के लिए सब कुछ गलत ढंग से प्रस्तुत किया और सनातन धर्म को बदनाम किया। ये तो हमारे धर्म की स्त्रियों की महानता है कि उन्होंने आज भी "सर ढंकने" की सभ्यता को अपनाया हुआ है ना कि "चेहरा ढंकने" की प्रथा को!
ऐसी स्त्रियों को शत-शत नमन !
किसी भी परम्परा का सही तरीके से निर्वहन करना सिर्फ महिलाओं द्वारा ही सम्भव है। अगर महिलाओं ने कभी पर्दा किया भी था तो स्वयं की मान मर्यादा को बचाने के लिए किया था,
क्योंकि विदेशी आक्रांता उनको कुदृष्टि से देखते थे।
नहीं तो भारत में ऐसी परम्परा कहीं देखने को नहीं मिलती।
क्या आपने कभी राम दरबार में सीता जी को घूंघट में देखा है!
अब वैज्ञानिक दृष्टिकोण को समझते हैं!
वैदिक धर्म अर्थात सनातन धर्म की माने तो हमारे शरीर में दस द्वार होते हैं: दो नासिका में,
दो आंख में, दो कान में,
एक मुंह,
दो गुप्तांग और सिर के मध्य होता है दसवां द्वार। इसी को ब्रह्मरन्ध्र कहा जाता है।
शरीर में उपस्थित सात चक्र
इसी दसवें द्वार के माध्यम से ही परमात्मा के साक्षात्कार हो सकते हैं। इसीलिए पूजा करते वक्त या मंदिर में प्रार्थना करते वक्त सिर को ढंकने से मन एकाग्र होता है और परमात्मा में ध्यान लगा रहता है।
ब्रह्मरन्ध्र योग में एक तकनीकी शब्द है, जो मस्तिष्क के सबसे ऊपरी हिस्से में एक छिद्र को कहा जाता है। यदि मृत्यु के समय प्राण वायु इसके माध्यम से गुजरती है, तो इसे ब्रह्म की ओर ले जाने वाला एक माध्यम कहा जा सकता है।
इस तथ्य को कठ उपनिषद में सामने लाया गया है,
और कहा गया है कि: -
शतं चैका च हृदयस्य नाड्य स्तासां मूर्धानमभिनिःसृतैका ।
तयोर्ध्वमायन्नमृतत्वमेति विष्वङ्कन्या उत्क्रमणे भवन्ति ।।16।।
(कठ उपनिषद अध्याय 2, वल्ली 3)
अर्थात: इस हृदय से एक सौ एक नाड़ियाँ हैं। उनमें से एक मूर्धा का भेदन कर के बाहर को निकली हुई है। उसके द्वारा ऊर्ध्व अर्थात ऊपर की ओर जाने वाला पुरुष अमरत्व को प्राप्त होता है। शेष विभिन्न गति युक्त नाड़ियाँ प्राणोंत्सर्ग हेतु होती हैं।
मनुष्य शरीर की तीन नाड़ियाँ
ध्यान बिन्दु उपनिषद में कहा है-
मस्तकेमणिवद्भिन्नं यो जानाति स योगवित्।
तप्तचामीकराकारं तडिल्लेखेव विस्फुरत् ।।46।।
अर्थात: मस्तक में जो मणि के समान प्रकाश है, जो उसे जानते हैं वहीं योगी है। तप्त स्वर्ण के समान विद्युत धारा-सी प्रकाशित वह मणि, अग्नि स्थान से चार अंगुल ऊर्ध्व और मेढ़ स्थान के नीचे है।
दर्शन उपनिषद में कुंडलिनी योग के बारे में बताया गया है। इसमें आत्म ज्ञान को योग का अंतिम लक्ष्य बताया गया है,
तथा परमात्मा के साथ आत्मा को जोड़ना भी योग का उद्देश्य बताया गया है। ब्रह्मरंध्र में प्राण को जीतकर एक निपुण व्यक्ति इसके माध्यम से अमरता प्राप्त कर सकता है।
कहने का तात्पर्य है कि सिर के ऊपरी तले अर्थात ब्रह्मरन्ध्र को शास्त्रों में शरीर का महत्त्वपूर्ण हिस्सा बताया गया है, क्योंकि यह शरीर के प्राणों को नियंत्रित करता है। परंतु पर्यावरण के मामूली परिवर्तन से होने वाले दुष्प्रभाव इसी भाग से शरीर के अंदर आते हैं। इसीलिए सिर के ढंका रहने पर हम नकारात्मक ऊर्जा से बच सकते हैं।
इसके अलावा आकाश में रहने वाली बहुत सारी विद्युतीय तरंगें खुले सिर वाले व्यक्तियों के अंदर जल्दी प्रवेश करती हैं जिसके परिणामस्वरूप क्रोध, सिर दर्द, आंखों की कमजोरी,
आदि कई रोग मनुष्य को घेर लेते हैं। परंतु सिर के ढंके रहने पर हम इन सभी रोगों से बच सकते हैं।
तो यह था वैज्ञानिक कारण! सनातन धर्म पूर्ण रूप से वैज्ञानिक है,
सनातन में सभी जगह विज्ञान विद्यमान है। और यही वजह रही कि कुछ इतिहासकार हमेशा सनातन के विरोध में लिखते आए हैं। जिन्होंने सच को कभी सामने आने ही नहीं दिया।
अगर घूंघट प्रथा की ही बात करें तो सनातन के किसी ग्रंथ में ऐसा उल्लेख नहीं मिलता की चेहरा ढंका हुआ होना चाहिए।
यह प्रथा नीच बलात्कारी मुग़ल आक्रमणकारियों के भय से माँ पद्मिनी के जौहर के पश्चात भूखे भेड़ियों की कुदृष्टि से अपनी सुंदरता को छिपा कर रखने व अपने शील मर्यादा की रक्षा करने हेतु महिलाओं द्वारा किया गया उपाय मात्र था।
यह सनातन भारत की देन नहीं है। सर ढंकना और घूंघट रखना इनमें अंतर है!
सर ढंकने के पीछे वैज्ञानिक, सामाजिक व आध्यात्मिक सभी प्रकार के हित निहित है जिसका पालन स्त्री और पुरुष दोनों श्रद्धा से करें!