लोकमान्य तिलक जयंती पर उन्हें शतश: नमन !
अंग्रेजों की सत्ता होते हुए भी भारतभूमि के उद्धार के लिए दिन-रात चिंता करने वाले और अपने तन, मन, धन एवं प्राण राष्ट्रहित में अर्पण करने वाले कुछ नररत्न इस देश में अमर हो गए। उन्हीं में से एक रत्न अर्थात् लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक।
स्वराज्य मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है तथा मैं वह अवश्य प्राप्त करूंगा’, इस सुपरिचित वाक्य के कारण हम उन्हें ‘लोकमान्य’ के नाम से जानते हैं; परंतु तिलक जी की वृत्ति बाल्यावस्था से ही निर्भयी एवं तेजस्वी किस प्रकार थी, यह हम इस कथा से समझ लेते हैं। बाल गंगाधर तिलकजी का जन्म वर्ष १८५६ में रत्नगिरी के चिखली गांव में हुआ था। बाल तिलक के पिताजी गंगाधरशास्त्री संस्कृत के प्रकांड पंडित थे। बाल्यावस्था से ही बाल तिलक अपने पिताजी से संस्कृत सीखने लगे।
बाल तिलक रत्नागिरी के प्राथमिक विद्यालय में पढते थे। गणित का विषय पढाया जा रहा था। गुरुजी ने प्रश्न किया, ‘‘पांच बकरियां एक चरागाह २८ दिन में खाती हैं, तो वही चरागाह २० दिन में कितनी बकरियां खाएंगी ?’’ त्वरित उत्तर मिला ‘‘सात बकरियां’’। प्रश्न पूर्ण होने से पूर्व ही उत्तर किसने दिया, यह गुरुजी देखने लगे। उन्होंने बाल तिलकजी से पूछा ‘‘तुमने उदाहरण बही में हल किया है क्या ?’’ बाल तिलक ने अपनी तर्जनी से मस्तक की ओर इंगित किया। तिलक जी की बुद्धि की तीव्रता का परिचय हमें इस छोटे से प्रसंग से होता है।
बुद्धिमान बाल तिलक उतने ही स्पष्टवक्ता भी थे। एक दिन मध्यांतर के पश्चात गुरुजी ने कक्षा में प्रवेश किया। सभी विद्यार्थी खडे हो गए। कक्षा में सर्वत्र मूंगफली के छिलके फैले हुए थे। कक्षा में आते ही गुरुजी क्रोधित हो गए। गुरुजी ने पूछा ‘‘मूंगफली किसने खाई है ?’’ कक्षा में शांति फैल गई। कोई भी बोलने हेतु सिद्ध नहीं था। यह देखकर गुरुजी का पारा और चढ गया। कोई नहीं बोल रहा है, यह देखकर गुरुजी ने सबको दंड देने का निश्चय किया। गुरुजी ने पटलपर रखी हुई छडी उठाई तथा प्रत्येक विद्यार्थी के हाथोंपर दो-दो छडी मारना प्रारंभ किया। गुरुजी बाल तिलक जी के निकट आए; परंतु उन्होंने अपना हाथ आगे नहीं किया। गुरुजी ने बाल तिलक को हाथ आगे करने के लिए कहा। बाल तिलक ने दृढता से कहा, ‘‘मैंने मूंगफली नहीं खाई है, मैं मार नहीं खाऊंगा।’’ गुरुजी ने प्रश्न किया ‘‘फिर मूंगफली किसने खाई है ?’’ बाल तिलक बोले ‘‘मैं चुगली नहीं करूंगा। चुगली करना अनुचित है।’’ बाल तिलक की इस स्पष्टोक्ति से गुरुजी अस्थिर हो गए तथा क्रोधित भी हुए। उन्होंने बाल तिलक को कक्षा से बाहर निकाल दिया तथा उनके पिताजी गंगाधरशास्त्री से उनकी शिकायत की। दूसरे दिन गंगाधरशास्त्री विद्यालय में आए तथा उन्होंने गुरुजी से कहा, ‘‘मेरे पुत्र ने जो कहा है वह सत्य है। वह बाहर की वस्तुएं नहीं खाता, मैं उसे इसके लिए पैसे नहीं देता।’’ उन्हें अपने पुत्र पर पूर्ण विश्वास था।
तिलकजी की बाल्यावस्था के प्रसंगों से हमें उनकी तेजस्वी वृत्ति का प्रत्यय होता है। इस निर्भय वृत्ति के कारण वे आगे जाकर स्वतंत्रता आंदोलन में बहुमूल्य योगदान दे सके तथा एक असाधारण देशभक्त के रूप में प्रसिद्ध हुए। मित्रों हम में भी इस प्रकार की निर्भयी वृत्ति आनी चाहिए। ऐसी वृत्ति साधना करने से आती है। लोकमान्य तिलकजी की साधना देशभक्ति थी, हिंदू धर्म पर उनका अटूट विश्वास था। मंडाले कारागृह में उन्होंने ‘गीतारहस्य’ नामक महान ग्रंथ की रचना की। आइए हम भी साधनाकर निर्भय तथा बलवान बनकर दुष्टों का अन्याय नष्ट करते हैं।
साभार : हिन्दू जन जागृति
मातृभूमि की जय ⛳🙏