Good night #शुभ_रात्रि
शरीर की तरह मन के सम्बन्धों में भी लोग प्रायः भूल करते हैं। शरीर को सन्तुष्ट करने या सजाने संवारने को महत्व देकर लोग उसे स्वस्थ, निरोगी एवं सशक्त बनाने की बात भूल जाते हैं। मन के बारे में भी ऐसा ही होता है। लोग मन को महत्व देकर 'मनमानी' करने में लग जाते हैं-मनोबल बढ़ाने और मन को स्वच्छ एवं सुसंस्कृत बनाने की बात पर ध्यान नहीं जाता। इस भूल के कारण जीवन में कदम-कदम पर विडम्बनाओं में फंसना पड़ता है। तन्दुरुस्ती के साथ मन की दुरुस्ती का भी ध्यान रखना अनिवार्य है। स्वस्थ शरीर में मन विकृत हो तो उद्दण्डता, अहंकार प्रदर्शन, परपीड़ा जैसे निकृष्ट कार्य होने लगते हैं। गुण्डे बदमाशों से लेकर राक्षसों तक के पतन के पीछे यही एक तथ्य कार्य करता है। अपराध जगत में जो कुछ हो रहा है, उसे अस्वच्छ मन के उपद्रव कहा जा सकता है।
मन को जीवन का केन्द्र बिन्दु कहना असंगत नहीं है। मनुष्य की क्रियाओं, आचरणों का प्रारम्भ मन से ही होता है। मन तरह-तरह के संकल्प, कल्पनाएं करता है। जिस ओर उसका रुझान हो जाता है उसी ओर मनुष्य की सारी गतिविधियां चल पड़ती हैं। जैसी कल्पना हो उसी के अनुरूप प्रयास पुरुषार्थ एवं उसी के अनुसार फल सामने आने लगते हैं। इसी लिए शास्त्रकारों ने मन की महत्ता कदम-कदम पर बतलाई है। गीताकर ने मन को ही मनुष्य के बन्धन और मोक्ष का मूल कारण कहा है-
'मन एव मनुष्याणां कारणं बन्ध मोक्षयो'
यह कोई अतिशयोक्ति नहीं। एक व्यक्ति अपने थोड़े से स्वार्थ के लिए किसी के प्राण तक लेने में भी नहीं झिझकता- तो दूसरी ओर राजा शिवि की तरह परहित में स्वयं अपने अंग काट-काटकर देना स्वीकार कर लेता है। एक व्यक्ति परपीड़ा के लिए बड़े से बड़ा खतरा उठाना स्वीकार करता है तो दूसरा परोपकार के लिए बड़े से बड़ा बलिदान करने में जरा भी नहीं हिचकिचाता। यह सब भले बुरे प्रसंग मन के ही चमत्कार कहे जा सकते हैं।
मन जिधर रस लेने लगे उसमें लौकिक लाभ या हानि का बहुत महत्व नहीं रह जाता। प्रिय लगने वाले प्रसंग के लिए सब कुछ खो देने और बड़े से बड़े कष्ट सहने को भी मनुष्य सहज की तैयार हो जाता है। मन यदि अच्छी दिशा में मुड़ जाय, आत्म सुधार, आत्म-निर्माण और आत्मविकास में रुचि लेने लगे तो जीवन में एक चमत्कार ही प्रस्तुत हो सकता है। सामान्य श्रेणी का नगण्य स्थिति का मनुष्य भी महापुरुषों की श्रेणी में आसानी से पहुंच सकता है। सारी कठिनाई मन को अनुपयुक्त दिशा से उपयुक्त दिशा में मोड़ने की ही है। इस समस्या के हल होने पर मनुष्य सच्चे अर्थों में मनुष्य बनता हुआ देवत्व के लक्ष्य तक सुविधापूर्वक पहुंच सकता है।
शरीर के प्रति कर्तव्य पालन करने की तरह मन के प्रति भी हमें अपने उत्तरदायित्वों को पूर्ण करना चाहिए। कुविचारों और दुर्भावनाओं से मन गन्दा, मलिन और पतित होता है, अपनी सभी विशेषता और श्रेष्ठताओं को खो देता है। इस स्थिति से सतर्क रहने और बचने की आवश्यकता को अनुभव करना हमारा पवित्र कर्तव्य है। मन को सही दिशा देते रहने के लिए स्वाध्याय की वैसी ही आवश्यकता है जैसे शरीर को भोजन देने की। आत्म निर्माण करने वाली जीवन समस्याओं को सही ढंग से सुलझाने वाली उत्कृष्ट विचारधारा की पुस्तकें पूरे ध्यान, मनन और चिन्तन के साथ पढ़ते रहना ही स्वाध्याय है। यदि सुलझे हुए विचारों के जीवन विद्या के ज्ञाता कोई सम्भ्रान्त सज्जन उपलब्ध हो सकते हों तो उनका सत्संग भी उपयोगी सिद्ध हो सकता है। यों धर्म और अध्यात्म के नाम पर आलस, कर्तव्य त्याग, निराशा, भाग्यवाद, परावलम्बन आदि भ्रान्तियों को बढ़ाने वाले प्रवचनकर्त्ता गली कूचों में मक्खी, मच्छरों की तरह सत्संग की दुकानें लगाये बैठे हैं, उनमें जाने की अपेक्षा न जाना अधिक उत्तम है। इसी प्रकार स्वाध्याय के नाम पर जीवन निर्माण की ज्वलन्त समस्याओं को सुलझाने में कोई सहायता न देने वाली, किन्हीं देवी देवताओं के गुणानुवाद गाने वाली पुस्तकों का पाठ करते रहने से कोई वास्तविक प्रयोजन सिद्ध नहीं होता।
मानव जीवन की महत्ता को हम समझें, इस स्वर्ण अवसर के सदुपयोग की बात सोच, अपनी गुत्थियों में से अधिकांश की जिम्मेदारी अपनी समझें और उन्हें सुलझाने के लिए अपने गुण, कर्म, स्वभाव में आवश्यक हेर फेर करने के लिए सदा कटिबद्ध रहें। इस प्रकार की उपलब्धि आत्म निर्माण की प्रेरणा देने वाले सत्साहित्य से, प्रबुद्ध मस्तिष्क के सत्पुरुषों की संगति से एवं आत्म निरीक्षण एवं आत्म चिन्तन से किसी भी व्यक्ति को सहज ही हो सकती है।
मन का स्वभाव बालक जैसा होता है, उमंग से भरकर वह कुछ न कुछ करना- बोलना चाहता है। यदि दिशा न दी जाय तो उसकी क्रिया-शीलता तोड़ फोड़ एवं गाली-गलौज के रूप में भी सामने आ सकती है। बालक को उसकी क्रियाशीलता के अनुसार कार्य मिलता रहे तो वह स्वयं भी सन्तोष पाता है तथा दूसरों को भी सुख देता है। मन के लिए उसकी कल्पना शक्ति के अनुसार सद्विचारों एवं सद्भावनाओं का क्षेत्र खोल दिया जाय तो वह सन्तुष्ट भी रहता है तथा हितकारी भी सिद्ध होता है। स्नेह, कृतज्ञता, सौहार्द्र, सहयोग, करुणा, उदारता जैसे भावों को उभारते रहा जाय- नीति निष्ठा, सक्रियता, श्रम, ईमानदारी, सेवा, सहायता आदि के विचारों को बार-बार दुहराया जाय तो मन में कुविचारों और दुर्भावनाओं को जगह ही न मिलेगी।
. *🚩जय सियाराम🚩*
. *🚩जय हनुमान🚩*