वीर शिरोमणि महाराणा प्रताप दिवस पर कोटि कोटि नमन🙏
👉आइए पढ़ते हैं यश गाथा महानतम मेवाड़ी शासक "महाराणा प्रताप सिंह सिसोदिया" की जिन्हें हम "महाराणा प्रताप" के नाम से जानते हैं।
✍ ● महाराणा प्रताप का आरंभिक जीवन
महाराणा प्रताप का जन्म 9 मई, 1540 ईस्वी को राजस्थान के कुंभलगढ़ दुर्ग में हुआ था। यद्यपि उनकी जयंती हिन्दी तिथि के अनुसार ज्येष्ठ शुक्ल तृतीया को मनाई जाती है। उनके पिता महाराजा उदयसिंह और माता रानी जीवत कंवर थीं। वे साहसी राजा, राणा सांगा के पौत्र थे। महाराणा प्रताप को बचपन में सभी 'कीका' नाम लेकर पुकारा करते थे। ये नाम उन्हें भीलों से मिला था जिनकी संगत में उन्होंने अपने जीवन के शुरुआती दिन बिताए थे। भीलों की बोली में कीका का अर्थ होता है - 'बेटा'। इन्हीं भीलों के साथ रहते हुए महाराणा प्रताप ने घुड़सवारी, तलवारबाज़ी, तीरंदाजी एवं युद्ध कला के गुण सीखे। एक तो वैसे ही महाराणा प्रताप मुगलों के प्रपंचो से भली भांति परिचित थे लेकिन जैसे-जैसे समय बीतता गया वैसे-वैसे मातृभूमि को क्रूर इस्लामिक शासकों से स्वतंत्र कराने के लिए महाराणा प्रताप ने कमर कस लिया।
✍ ● कुशल प्रशासक महाराणा प्रताप
राणा उदयसिंह की दूसरी रानी धीरबाई जिसे राज्य के इतिहास में रानी भटियाणी के नाम से जाना जाता है, वह अपने पुत्र कुंवर जगमाल को मेवाड़ का उत्तराधिकारी बनाना चाहती थी | महाराणा प्रताप केे उत्तराधिकारी होने पर इसकेे विरोध स्वरूप जगमाल अकबर केे खेमे में चला गया। ऐतिहासिक उल्लेखों के अनुसार महाराणा प्रताप का प्रथम राज्याभिषेक 28 फरवरी, 1572 में गोगुन्दा में हुआ था, लेकिन विधि विधानस्वरूप राणा प्रताप का राज्याभिषेक जुलाई 1572 ई. में ही कुुंभलगढ़़ दुुर्ग में हुआ, दुसरे राज्याभिषेक में जोधपुर का राठौड़ शासक राव चन्द्रसेेन भी उपस्थित थे। महाराणा प्रताप के शासनकाल में सबसे रोचक तथ्य यह है कि अकबर बिना युद्ध के प्रताप को अपने अधीन लाना चाहता था इसलिए अकबर ने प्रताप को समझाने के लिए चार राजदूत नियुक्त किए जिसमें सर्वप्रथम सितम्बर 1572 ई. में जलाल खाँ प्रताप के खेमे में गया, इसी क्रम में राजा मानसिंह (1573 ई. में ), भगवानदास ( सितम्बर 1573 ई. में ) तथा राजा टोडरमल ( दिसम्बर,1573 ई. ) प्रताप को समझाने के लिए पहुँचे। किंतु राणा प्रताप ने चारों को निराश किया, इस तरह राणा प्रताप ने मुगलों की अधीनता स्वीकार करने से साफ़ मना कर दिया जिसके परिणामस्वरूप हल्दी घाटी का ऐतिहासिक युद्ध हुआ।
✍ ● हल्दीघाटी का ऐतिहासिक युद्ध
हल्दीघाटी का युद्ध के परिणाम को इतिहास में सबसे विवादास्पद माना गया है। इसके बारे में हमें उतना ही बताया गया है जितना वामपंथी इतिहासकार बताना चाहते थे, किंतु जब आप असल इतिहास को पढ़ेंगे तो हल्दीघाटी युद्ध का सत्य कुछ और ही प्रतीत होता है।
यह युद्ध १८ जून १५७६ ईस्वी में मेवाड़ की सेना तथा मुगलों के मध्य हुआ था। इस युद्ध में मेवाड़ की सेना का नेतृत्व महाराणा प्रताप ने किया था। मेवाड़ की सेना के साथ भील सेना के सरदार राणा पूंजा भील भी थे। इस युद्ध में महाराणा प्रताप की तरफ से लड़ने वाला एकमात्र मुस्लिम सरदार था- हकीम खाँ, जिसे अकबर ने इस्लाम का वास्ता देकर अपनी तरफ मिलाने का भरसक प्रयास किया। किंतु वो सफल नहीं हो सका। लड़ाई का स्थल राजस्थान के गोगुन्दा के पास हल्दीघाटी में एक संकरा सा पहाड़ी दर्रा था। महाराणा प्रताप ने लगभग 3,000 घुड़सवारों और 400 भील धनुर्धारियों के बल को मैदान में उतारा। उधर मुगलों का नेतृत्व आमेर के राजा मान सिंह ने किया था, जिन्होंने लगभग 5,000-10,000 लोगों की सेना की कमान संभाली थी। तीन घंटे से अधिक समय तक चले भयंकर युद्ध के बाद, महाराणा प्रताप ने खुद को जख्मी पाया जबकि उनके कुछ लोगों ने उन्हें समय दिया, वे पहाड़ियों से बच निकलने में सफल रहे। किंतु इस युद्ध में मेवाड़ के हताहतों की संख्या लगभग 1,600 हो गई। मुगल सेना ने 3500-7800 लोगों को खो दिया, जिसमें 350 अन्य घायल हो गए। इसका कोई नतीजा नही निकला जबकि वे(मुगल) गोगुन्दा और आस-पास के क्षेत्रों पर कब्जा करने में सक्षम थे, वे लंबे समय तक उन पर पकड़ बनाने में असमर्थ रहे। जैसे ही साम्राज्य का ध्यान कहीं और स्थानांतरित हुआ, प्रताप और उनकी सेना बाहर आ गई और अपने प्रभुत्व के पश्चिमी क्षेत्रों से मुगल अतिक्रमण हटा लिया।
👉 इतिहासकार विजय प्रकाश लिखते हैं कि इस युद्ध में कोई विजय नहीं हुआ, जबकि हमें पढ़ाया जाता रहा है कि अकबर ने महाराणा प्रताप को परास्त कर दिया। असल बात तो ये है कि अकबर के पास महाराणा प्रताप को हराने का सामर्थ्य ही नहीं था, यही कारण है कि उसने कई बार महाराणा के पास संधि प्रस्ताव भेजा जिसे हर बार महाराणा ने ठुकरा दिया। अगर राजस्थान के स्थानीय ऐतिहासिक स्रोतों पर दृष्टि डाला जाए और उसे मुख्य इतिहास के रूप में प्रमाणित किया जाए तो हमें महाराणा प्रताप से जुड़ी बहुत सी अनसुनी गाथाएं मिलेंगी। प्रोफेसर लक्ष्मण सिंह जी लिखते हैं कि भले ही संख्या बल में कम थे मेवाड़ी सैनिक किंतु इस युद्ध में महाराणा प्रताप सिंह के नेतृत्व में मेवाड़ी विजय हुए। कुछ लोग लिखते हैं कि अकबर की विशाल सेना के सामने मुट्ठीभर राजपूत कितनी देर तक टिक पाते अतः मेवाड़ के सैनिक हार गए। पर ऐसा कुछ नहीं हुआ, ये युद्ध पूरे एक दिन चला ओेैर राजपूतों ने मुग़लों के छक्के छुड़ा दिए और सबसे बड़ी बात यह है कि युद्ध आमने-सामने से लड़ा गया था। जब महाराणा की तलवार गरजने लगी तो मेवाड़ी सेना जोश भरने लगी, उन्होंने मुगलों की सेना को पीछे हटने के लिए विवश कर दिया था और मुगल सेना भागने लग गई।
✍ ● महाराणा प्रताप के अद्भुत साहस का संक्षिप्त विवरण
हल्दीघाटी के युद्ध में महाराणा प्रताप को बहुत सैन्य क्षति पहुंची। साथ ही उनका खजाना भी खाली हो गया था किंतु मुग़लो के विरुद्ध उन्होंने अपनी लड़ाई जारी रखी। 1577 में टकराव के उनके एक प्रयास की विफलता के बाद, महाराणा प्रताप ने छापामार रणनीति का सहारा लिया। एक आधार के रूप में अपने पहाड़ी क्षेत्रों का उपयोग करते हुए, प्रताप जी ने बड़े पैमाने पर मुगल सैनिकों को वहां से हटाना शुरू कर दिया। वह इस बात पर अड़े थे कि मेवाड़ की मुगल सेना को कभी शांति नहीं मिलनी चाहिए। अकबर ने तीन विद्रोह किए और प्रताप को पहाड़ों में छुपाने की असफल कोशिश की ताकि इस दौरान वो मेवाड़ पर कब्ज़ा कर सके।जब महाराणा प्रताप अपनी सेना को एकजुट कर रहे थे एवं खाद्यान्न के अभाव में घास की रोटी खा रहे थे तब वयोवृद्ध मंत्री भामाशाह ने उन्हें वित्तीय सहायता दी, जिसके बलबूते महाराणा प्रताप ने अकबर को मेवाड़ से दूर रखा। हट्टे-कट्टे महाराणा प्रताप युद्ध के समय हमेशा एक भाला अपने साथ रखते थे, जिसका वजन 81 किलो था। वह इस भाले को एक हाथ से नचाते हुए दुश्मन पर टूट पड़ते थे। साथ ही युद्ध के समय दुश्मनों के वार से बचने के लिए महाराणा प्रताप 72 किलो का कवच पहनते थे। स्रोतों के अनुसार महाराणा प्रताप के भाले, कवच, ढाल और दो तलवारों का वजन कुल मिलाकर 200 किलोग्राम से अधिक होता था। महाराणा प्रताप के सस्त्र इतिहास के सबसे भारी भरकम सस्त्रों में शामिल हैं। महाराणा प्रताप अपने एक वार से ही घोड़े सहित दुश्मन के दो टुकड़े कर देते थे। महाराणा प्रताप के प्रिय घोड़े का नाम चेतक था, जो हवा की गति से दौड़ता था। चेतक ने कई मौकों पर महाराणा प्रताप की जान बचाई, किंतु हल्दीघाटी के युद्ध के समय दुश्मन को छकाते हुए महाराणा जब संकरी घाटी से निकले तो दुर्भाग्यवश चेतक को वीरगति प्राप्त हो गई। हालांकि कुछ इतिहासकारों का मानना है कि उस समय महाराणा प्रताप चेतक पर नहीं बल्कि मुग़लो को छकाने के लिए उनके एक दूसरे घोड़े पर सवार थे। और यही घोड़ा दुर्घनाग्रस्त हो गया, जिसके बाद अफवाह फैला दी गई कि महाराणा प्रताप घायल होकर भाग गए और यही मिथ्या इतिहास में अंकित कर दिया गया। हल्दीघाटी युद्ध के पश्चात, 1579 से 1585 तक पूर्वी उत्तर प्रदेश, बंगाल, बिहार और गुजरात के मुग़ल अधिकृत प्रदेशों में विद्रोह होने लगे थे और महाराणा भी एक के बाद एक गढ़ जीतते जा रहे थे अतः परिणामस्वरूप अकबर उस विद्रोह को दबाने में उल्झा रहा और मेवाड़ पर से मुगलो का दबाव कम होता गया। इस बात का लाभ उठाकर महाराणा ने 1585ई. में मेवाड़ मुक्ति प्रयत्नों को और भी तेज कर दिया। महाराणा जी की सेना ने मुगल चौकियों पर आक्रमण शुरू कर दिए और तुरंत ही उदयपूर समेत 36 महत्वपूर्ण स्थान पर फिर से महाराणा का अधिकार स्थापित हो गया।
👉 महाराणा प्रताप ने जिस समय सिंहासन ग्रहण किया, उस समय मेवाड़ की जितने बड़े भूमि पर उनका अधिकार था, पूर्ण रूप से उतने ही भूमि भाग पर अब उनकी सत्ता पुनः स्थापित हो गई। बारह वर्ष के संघर्ष के बाद भी अकबर उसमें कोई परिवर्तन न कर सका। और इस तरह महाराणा प्रताप लंबी अवधि के संघर्ष के बाद मेवाड़ को मुक्त करने में सफल रहे और ये समय मेवाड़ के लिए एक स्वर्ण युग साबित हुआ। मेवाड़ पर लगा हुआ अकबर ग्रहण का अंत 1585 ई. में हुआ। उसके बाद महाराणा प्रताप उनके राज्य की सुख-सुविधा में जुट गए, परंतु दुर्भाग्य से उसके ग्यारह वर्ष के बाद ही 19 जनवरी 1597 में अपनी नई राजधानी चावंड में वो भूलोक से स्वर्गलोक की ओर प्रस्थान कर गए। महाराणा प्रताप के अंतिम समय के बारे में अधिक ज्ञात नहीं है किंतु इतिहासकार लिखते हैं कि उन्होंने 1595 के आसपास अपने राजपाट की जिम्मेदारी बेटे अमर सिंह को दे दी जो उन्हीं की भांति एक प्रतापी योद्धा बनकर उभरा।
✍ टिप्पणी :दुर्भाग्यपूर्ण है कि हमें विकृत इतिहास पढ़ाया जाता रहा है। जबकि असलियत में महाराणा प्रताप के विरुद्ध हल्दीघाटी में पराजित होने के बाद स्वयं अकबर ने जून से दिसंबर 1576 तक तीन बार विशाल सेना भेजकर महाराणा पर आक्रमण किए, परंतु महाराणा को खोज नहीं पाया बल्कि महाराणा के जाल में फंसकर पानी भोजन के अभाव में अपनी सेना का विनाश करवा बैठा। उसके बाद अब्दुल रहीम खानम-खाना के नेतृत्व में महाराणा के विरुद्ध सेना भिजवाई किंतु वो भी बैरंग लौटा। इस प्रकार 9 वर्ष तक निरंतर अकबर पूरी शक्ति से महाराणा के विरुद्ध आक्रमण करता रहा, नुकसान उठाता रहा अंत में थक हार कर उसने मेवाड़ की ओर देखना ही छोड़ दिया। और इस तरह महाराणा ने अकबर के मेवाड़ विजय के सपने को चकनाचूर कर दिया।
🙏हम नमन करते हैं महानतम योद्धा महाराणा प्रताप को जिन्होंने मातृभूमि के रक्षार्थ में असंख्य पीड़ा सहन करते हुए अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया किंतु हार नहीं माने।
वन्देमातरम्