महिला सशक्तिकरण की प्रतीक हैं वीरांगना रानी लक्ष्मीबाई की पुण्यतिथि पर कोटि कोटि नमन
ये होती है नारी, ऐसा होता है महिला सशक्तिकरण जहां महिला खुदको ही नहीं पूरे देश को बचा ले, एक क्रांति तैयार कर दे, लेकिन आज आधुनिकता के नही में चूर ये समाज इतना दुर्बल हो गया है कि रोज सैकड़ों माताएं-बहनें जिहादीयों आतताइयों की शिकार हो रहा हैं....पढिये पूरा लेख ओर समझिये नारीशक्ति /महिलासशक्तिकरण के सही अर्थ को
एक महिला, जो मात्र 25 वर्ष की आयु में अपने पति और पुत्र को खोने के बाद भी अंग्रेजों को युद्ध के लिए ललकारने का सामर्थ्य रखती हो वो निसंदेह हर मानव के लिए प्रेरणास्रोत रहेगी। वो भी उस समय जब 1857 की क्रांति से घायल अंग्रेजों ने भारतीयों पर और अधिक अत्याचार करने शुरू कर दिए थे और बड़े से बड़े राजा भी अंग्रेजों के विरुद्ध जाने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे थे।
ऐसे समय में एक महिला की दहाड़ ने ब्रिटिश साम्राज्य की नींव हिला दी। क्योंकि रानी लक्ष्मीबाई की इस दहाड़ की गूंज झांसी तक सीमित नहीं रही, वो पूरे देश में ना केवल सुनाई दी अपितु उस दहाड़ ने देश के बच्चे-बच्चे को हिम्मत से भर दिया। जिसके परिणाम स्वरूप धीरे-धीरे देश भर के अलग-अलग हिस्सों में होने वाले विद्रोह सामने आने लगे।
झांसी के लिए अपनी भूमि की स्वतंत्रता के लिए, अपनी प्रजा को अत्याचारों से मुक्त कराने के लिए रानी लक्ष्मीबाई के दिल में जो आग धधक रही थी वो 1858 में उन्होंने अपने प्राणों की आहुति दे कर पूरे भारत में फैला दी।
उन्होंने अपनी स्वयं की आहुति से उस यज्ञ अग्नि को प्रज्वलित कर दिया था, जिसकी पूर्ण आहुति 15 अगस्त 1947 को डली। हालांकि, 18 जून 1858 को रानी लक्ष्मीबाई अकेले होने के कारण अपनी झांसी नहीं बचा पाईं लेकिन देश को बचाने की बुनियाद खडी कर गईं, एक मार्ग दिखा गईं।
निडरता का पाठ पढ़ा गईं, अमरत्व की राह दिखा गईं। उनके साहस और पराक्रम का अंदाजा जनरल ह्यूरोज के इस कथन से लगाया जा सकता है कि अगर भारत की एक फीसदी महिलाएं इस लड़की की तरह आजादी की दीवानी हो गईं तो हम सब को यह देश छोड़कर भागना पड़ेगा।
कल्पना कीजिए एक महिला की जिसकी पीठ पर नन्हा बालक हो उसके मुंह में घोड़े की लगाम हो और उसके दोनों हाथों में तलवार!! शायद हां हमारे लिए यह कल्पना करना इतना मुश्किल भी नहीं है क्योंकि हमने उनकी मूर्तियां देखीं हैं उनकी ऐसी तस्वीरें देखी हैं लेकिन ये औरत कोई मूर्ति नही है, कोई तस्वीर नहीं है किसी वीर रस के कवि की कल्पना भी नहीं है, यह वास्तविकता है।
शायद इसलिए वो आज भी जिंदा है और हमेशा रहेगी। हां, वो अमर है और सदियों तक रहेगी। जानते हैं क्यों? क्योंकि वो केवल इस देश के लोगों के दिलों में ही जिंदा नहीं है, वो आज भी जिंदा है अपने दुश्मनों के दिल में अपने विरोधियों के दिलों में उन अंग्रेजों के दिल-ओ-दिमाग में जिनसे उन्होंने लोहा लिया था। हां यह सच है कि अंग्रेज रानी लक्ष्मीबाई से जीत गए थे लेकिन वो जानते थे कि वो इस लड़ाई को जीत कर भी हार गए थे।
वो एक महिला के उस पराक्रम से हार गए थे जो एक ऐसे युद्ध का नेतृत्व निडरता से कर रही थी जिसका परिणाम वो जानती थी। वो एक महिला के उस जज्बे से हार गए थे जो अपने दूध पीते बच्चे को कंधे पर लादकर रणभूमि का बिगुल बजाने का साहस रखती थी।
शायद इसलिए वो उनका सम्मान भी करते थे। उस दौर के कई ब्रिटिश अफसर बेहिचक स्वीकार करते थे कि महारानी लक्ष्मीबाई बहादुरी बुद्धि दृढ़ निश्चय और प्रशासनिक क्षमता का दुर्लभ मेल हैं और उन्हें अपना सबसे खतरनाक शत्रु मानते थे। जिस व्यक्तित्व की प्रशंसा करने के लिए शत्रु भी मजबूर हो जाए तो उस व्यक्तित्व का अंदाजा स्वयं लगाया जा सकता है।
ये होती है नारी, इसे कहते हैं नारीशक्ति... आज जो महिला सशक्तिकरण के नाम पर पुरुषों को बराबरी और फेमस होने के चक्कर में नंगापन फैलाया जा रहा है वो समाज के हित में नहीं अपितु समाज को पूरी तरह बर्बाद करने का कारण बन रहा है। फेमिनिज्म की शिकार खुद लड़कियां ही हो रही हैं जिसके अनेकों उदाहरण समाज की उपस्थित हैं "श्रद्धा मर्डर केस" भी वास्तव में इसी फेमनिस्म का एक उदाहरण मात्र है।
हे भारत को नारियों उठो, जागो और अपने नारी तत्व को पहचानो और समाज को मजबूत आधार दो। नारीशक्ति के बिना एक उत्तम और सुखी समाज को कल्पना भी असंभव है.. नारी सदैव समाज में सबसे ऊपर रही है फिर क्यों पुरुषों की बराबरी के चक्कर में वो नीचे आना चाहती हैं।
हां कुछ जगह विकृति आ गई और नारी का सम्मान नहीं किया जा रहा, लेकिन ऐसा केवल कुछ ही जगहों पर होता है इसे सुधारने को आवश्यकता है...लेकिन उस चक्कर में वामियो के बहकावे में आकर समाज को बर्बाद करना कहां तक उचित है।