#शुभ_रात्रि
ईश्वर के अस्तित्व से इनकार नहीं किया जा सकता। हर वस्तु का कोई निर्माता होता है तो इतने विशाल, इतने व्यवस्थित विश्व का कोई निर्माता न हो ऐसा नहीं हो सकता। वह निर्माता धर्म, विवेक और आदर्श से रहित नहीं है। वह हमें जहां अगणित प्रकार की सुख सुविधाएं देता है वहां हमारे कर्मों के भले बुरे परिणामों की भी व्यवस्था करता है। घट-घट वासी सर्वान्तर्यामी भगवान अपने असंख्य नेत्रों से हमारे गुप्त प्रकट कार्यों और विचारों को भली प्रकार जानते हैं। उनकी प्रसन्नता अप्रसन्नता सत्प्रवृत्तियों और दुष्प्रवृत्तियों पर निर्भर रहती है। दुख और सुख मिलने का आधार भी यही है। कोई कुकर्मी पाप दण्ड से बच नहीं सकता, कोई सुकर्मी सुख-शान्ति का अधिकारी न बने ऐसा भी नहीं हो सकता। निष्पक्ष न्यायाधीश की भांति परमात्मा हमारे हर भले बुरे कर्मों का प्रतिफल उत्पन्न करता है, जिसे यह विश्वास होगा, उसकी असुरता घटेगी और देवत्व विकसित होगा। कर्मों का फल मिलने में देर तो होती है पर अन्धेर की कोई गुंजाइश नहीं। जिसे यह विश्वास होगा वह दुष्ट दुर्जन नहीं बन सकता। उसके लिए सज्जनता और कर्तव्यशीलता का ही एक मात्र मार्ग अपनाने के लिए रह जाता है।
सच्ची आस्तिकता के प्रभाव से जीवन में सहृदयता, करुणा, स्नेह, ममत्व, नम्रता, निर्भयता, दृढ़ता, सत्साहस जैसे उन गुणों का भी विकास होता है, जिनके आधार पर मनुष्य नर श्रेष्ठ बन सकता है | सन्मार्ग पर बढ़ते हुए भी कई बार मार्ग की कठिनाइयों, प्रतिरोधों को देखकर सामान्य व्यक्ति का मनोबल टूटने लगता है, पैर लड़खड़ाने लगते हैं। आस्तिक व्यक्ति को यह भरोसा रहता है कि सत्कर्म में सहायता करने वाली एक सर्व समर्थ सत्ता हमारे समर्थन में है। इसी आधार पर नगण्य सी शक्ति सामर्थ्य वाले व्यक्तियों द्वारा ऐतिहासिक महत्व के महान कार्य सम्पादित किये जा सके हैं।
इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए आस्तिकता की आवश्यकता को युग निर्माण संकल्प में पहला स्थान दिया गया है। उपासना से हमारा आत्मबल बढ़ता है। और कर्तव्य पालन की वह प्रेरणा अनायास ही उत्पन्न होती है। जिसके आधार पर जीवन लक्ष्य की पूर्ति और विश्व शान्ति के दोनों उद्देश्य पूर्ण होते हैं।
आस्तिकता का महत्व भर स्वीकार कर लेना पर्याप्त नहीं है, वह वृत्ति अपने अन्दर अधिकाधिक पुष्ट और प्रखर बने तभी उसका समुचित लाभ उठाया जा सकता है। ईश्वर चिन्तन, पूजा, उपासना आदि का क्रम विवेकपूर्वक बनाने से आस्तिकता की अभिवृद्धि होती रह सकती है। व्यक्तिगत सुख-शान्ति से लेकर सामाजिक प्रगति की ओर अधिक सफलता पूर्वक बढ़ा जा सकता है। व्यक्तिगत, पारिवारिक एवं सामाजिक जीवन में संक्षिप्त ही सही किन्तु नियमित एवं सुव्यवस्थित उपासना, ईश्वर चिन्तन को प्रोत्साहन देना, उस क्रम को तत्परता एवं मनोयोग पूर्वक चलाते रहना इसी दृष्टि से बहुत लाभप्रद हो सकता है।
आस्तिकता का प्रतिफल निश्चित रूप से कर्तव्य पालन है। जो आस्तिक कर्तव्य पालन की उपेक्षा करता है और कुछ पूजा पत्री करके मुफ्त में ही ईश्वर से धन वैभव प्राप्त कर लेने या दुष्कर्मों के फल से छुटकारा पाने की बात सोचता है, उसे भोला बहका हुआ, नासमझ या जरूरत से ज्यादा चालाक कह सकते हैं। आस्तिकता की सबसे पहली प्रतिक्रिया अपने कर्तव्य को ईश्वर का आदेश मानकर उस पर चट्टान की तरह अटल बने रहने की प्रेरणा के रूप में परिलक्षित होती है। मनुष्य की कर्तव्य परायणता का स्तर देखकर उसकी आस्तिकता के स्तर का भी अनुमान निश्चित रूप से लगाया जा सकता है।
संसार में कहीं भी असफलता एवं दुर्गति के कारणों की खोज करने पर एक तथ्य सुनिश्चित रूप से मिलेगा वह यह कि कहीं न कहीं, किसी न किसी के द्वारा निर्धारित कर्तव्यों की उपेक्षा के कारण ही ऐसा हुआ है। इसी प्रकार कर्तव्यों के ठीक-ठीक निर्धारण एवं पालन से ही प्रगति की संभावनाएं साकार हो सकेंगी। व्यक्तिगत रूप से कर्तव्य पालन की प्रवृत्ति जिसमें जितनी अधिक बढ़ेगी, वह व्यक्ति उतना ही अधिक लोकप्रिय एवं सफल बनता चला जायेगा । ऐसे व्यक्तियों को हर जगह स्नेह, सम्मान एवं सहयोग प्राप्त होता रहता है। फलस्वरूप सीमित साधनों तथा स्वल्प सामर्थ्य से भी वे आश्चर्यजनक प्रगति करते देखे जाते हैं।
आत्मिक स्तर पर तो कर्तव्य परायणता का लाभ अनुपम है। यह उक्ति सौ फीसदी सही है कि "ईश्वर का प्यार सदाचारी और कर्तव्यपरायण के लिए सुरक्षित रहता है।" कर्तव्य परायण व्यक्तियों को जो उच्चस्तरीय आत्म संतोष प्राप्त होता है उसकी समता अन्यत्र कठिन है। अपने ईमान और भगवान के सामने कर्तव्य परायण व्यक्ति की प्रतिष्ठा अद्वितीय होती है। फलतः उसके अन्दर से दिव्य संतोष का ऐसा स्रोत झरता रहता है जिसके आगे सारी उपलब्धियां धूमिल पड़ जाती हैं।
. 🚩हर हर महादेव🚩