साथियों, धुरंधर आज नहीं सदियों पहले से आगाज ले चुका है. ...वर्ष 1942। रंगून (वर्तमान म्यांमार)।
शहर के सबसे समृद्ध इलाकों में एक भारतीय परिवार रहता था। पिता एक स्वर्ण-खदान के मालिक थे। जन्म से ही उस लड़की ने अपार वैभव के सिवा कुछ नहीं देखा था—महँगी कारें, रेशमी परिधान, हीरे-जवाहरात। वही उसका बचपन था। उसका नाम था सरस्वती राजमणि। उसकी आयु मात्र पंद्रह-सोलह वर्ष थी।परंतु भाग्य ने उसके लिए राजमहल नहीं—जंगलों की राह और बारूद की गंध लिखी थी।
उसी दिन भारत की स्वतंत्रता की अंतिम आशा—नेताजी सुभाषचंद्र बोस—रंगून पहुँचे। हज़ारों की भीड़ के सामने उन्होंने गर्जना की—
“तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आज़ादी दूँगा।”
भीड़ में खड़ी युवा राजमणि का रक्त जैसे दहक उठा। उसी क्षण उसने अपना हार, कंगन, झुमके—सब कुछ उतारकर आजाद हिंद फ़ौज के कोष में अर्पित कर दिया।
अगली सुबह उस भव्य हवेली के सामने एक सेना की जीप आकर रुकी। स्वयं नेताजी उतरे। वे आभूषण लौटाने आए थे। उन्हें लगा कि इतनी कम उम्र की लड़की ने आवेग में आकर इतने बहुमूल्य गहने दे दिए होंगे—इतना बड़ा त्याग करने के लिए वह अभी बहुत छोटी है।
परंतु राजमणि ने उनकी आँखों में सीधे देखते हुए जो उत्तर दिया, वह इतिहास बन गया—
“नेताजी, मैंने यह दान भूल से नहीं दिया। यह मेरे देश को अर्पण है। और जो मैं दे चुकी हूँ, उसे वापस नहीं लेती।”
नेताजी विस्मय से उसे देखते रह गए। उसकी आँखों में भय नहीं—केवल इस्पात-सी दृढ़ता थी। वे मुस्कराए। उन्होंने उसे एक नया नाम दिया—“सरस्वती”—और कहा—
“मुझे तुम्हें अपनी टीम में चाहिए। बंदूक के साथ नहीं। तुम्हारा काम उससे भी कठिन होगा।”
यहीं से नेताजी के आदेश पर एक नया अध्याय शुरू हुआ। लड़कियों के लंबे बाल काट दिए गए। ढीली कमीज़-पैंट पहनाई गई। सरस्वती राजमणि बन गई “मणि”। उसकी साथी थी एक और साहसी लड़की—दुर्गा। उनका मिशन था—जासूसी।
कल्पना कीजिए—
जो सोलह वर्ष की लड़की रेशमी गद्दों पर सोई थी, वही अब ब्रिटिश सैन्य मेस में एक “लड़के” के वेश में काम कर रही थी। अधिकारियों के जूते पॉलिश करना, कमरे साफ़ करना, चाय परोसना—यही उनकी दिनचर्या थी। अंग्रेज़ जनरलों को लगता था कि ये स्थानीय लड़के हैं जिन्हें अंग्रेज़ी नहीं आती। इसलिए वे उन्हीं के सामने गुप्त युद्ध-बैठकें करते—मानचित्रों पर चिन्ह लगाते कि आईएनए पर कहाँ बम गिराने हैं, कौन-से मार्गों से रसद जाएगी।
कमरे के एक कोने में जूते पॉलिश करती मणि के कान सतर्क रहते। उसका मस्तिष्क हर तारीख़, हर संकेत दर्ज कर लेता। काम पूरा होने पर वह शौचालय जाती, काग़ज़ के छोटे-छोटे टुकड़ों पर सब लिखती, उन्हें रोटी या जूतों में छिपाती और सूचना नेताजी के शिविर तक पहुँचा देती।
दिन-प्रतिदिन मृत्यु के साथ यह प्राणघातक लुकाछिपी चलती रही।
अँधेरी रात: निर्भीक साहस की कथा
पर जासूस का जीवन हर पल पकड़े जाने के भय में जीना होता है। एक दिन वह दुःस्वप्न सच हो गया। राजमणि की साथी दुर्गा अंग्रेज़ों के हाथ लग गई। समाचार मिला कि उसे सैन्य कारागार में बंद कर दिया गया है और शीघ्र ही उससे सूचना उगलवाने के लिए यातनाएँ दी जाएँगी।
आईएनए का नियम कठोर था—
पकड़े जाने पर स्वयं अंत कर लो, पर जीवित पकड़े मत जाओ।
सबने राजमणि से कहा—“भाग जाओ। वहाँ गईं तो तुम भी मारी जाओगी।”
पर राजमणि बोली—
“मेरी मित्र पकड़ी गई है और मैं भाग जाऊँ? यह मुझसे नहीं होगा।”
रात के अँधेरे में, लड़के का भेष धरकर, वह भारी सुरक्षा वाले उस ब्रिटिश क़िले में घुस गई। उसे पहरेदारों की कमज़ोरी मालूम थी। उसने उनके भोजन और चाय में तीव्र अफ़ीम मिला दी। पहरेदार गहरी नींद में ढेर हो गए। वह चाबियाँ चुरा लाई और दुर्गा की कोठरी खोल दी।
जैसे ही दोनों जेल की दीवार चढ़ रही थीं, सायरन बज उठा। सर्चलाइटें घूमने लगीं, गोलियाँ अंधाधुंध चलने लगीं। अँधेरे में दौड़ते हुए अचानक मणि की दाहिनी टाँग में आग-सा धधक उठा—एक गोली मांस चीरती हुई निकल गई। रक्त धरती को भिगोने लगा। पीड़ा से शरीर मरोड़ खा गया।
पर वह रुकी नहीं।
रुकना—दोनों की मृत्यु का अर्थ था।
लहूलुहान अवस्था में वे घने जंगल में जा छिपीं। अंग्रेज़ सैनिक कुत्तों के साथ खोज में जुट गए। बचने के लिए राजमणि और दुर्गा एक विशाल वृक्ष पर चढ़ गईं।
विश्वास करना कठिन है—
वे तीन दिन (72 घंटे) उसी वृक्ष पर रहीं। टाँग में गोली, शरीर में तेज़ ज्वर, न पानी, न भोजन। नीचे ब्रिटिश गश्त। एक भी आहट—और सब समाप्त।
तीन दिन बाद, जब अंग्रेज़ खोज छोड़ गए, दोनों नीचे उतरीं और लँगड़ाती हुई आजाद हिंद फ़ौज के शिविर पहुँचीं।
नेताजी का सलाम
शिविर पहुँची तो वह पीड़ा से लगभग अचेत थी। नेताजी स्वयं उसे देखने आए।
जब डॉक्टर उसकी टाँग से गोली निकाल रहे थे, नेताजी ने उस सोलह वर्ष की योद्धा को सलाम किया और कहा—
“मुझे पता न था कि हमारी सेना के भीतर इतने शक्तिशाली विस्फोटक छिपे हैं।
तुम भारत की पहली महिला जासूस हो।
तुम मेरी रानी झाँसी हो।”
नेताजी उसे जापान के सम्राट द्वारा प्रदत्त अपनी पिस्तौल भेंट करना चाहते थे। पर राजमणि ने केवल एक ही वस्तु चाही—भारत की स्वतंत्रता।
विस्मृति में खोई एक नायिका
1947 में भारत स्वतंत्र हुआ।
पर जिसने अपने देश के लिए अपनी जवानी, अपना रक्त और अपने पिता की समूची संपदा अर्पित कर दी—क्या देश ने उसे याद रखा?
नहीं।
किस type का ...त्ते जैसा देश पैदा किया था महात्मा और चाचा ने?
इतिहास की पुस्तकों में उसका नाम स्थान न पा सका। जो कभी स्वर्णिम शैयाओं पर सोई थी, उसने अपने अंतिम दशक चेन्नै के रॉयपेट्टा में एक जर्जर, एक-कमरे के किराए के मकान में घोर दरिद्रता में बिताए। सरकार ने उसकी स्वतंत्रता सेनानी पेंशन देने में भी विलंब किया।
फिर भी उसने कभी शिकायत नहीं की।
2004 की सुनामी में, जब सब सहायता की गुहार लगा रहे थे, तब इस वृद्धा ने—जिसके पास अपनी दवाइयों तक के पैसे नहीं थे—अपनी संचित पेंशन राहत कोष में दान कर दी।
पत्रकारों ने पूछा—“आपने क्यों दिया? आपके पास तो अपना कुछ भी नहीं।”
वह मुस्कराई और बोली—
“देना मेरे रक्त में है। बचपन में मैंने देश की आज़ादी के लिए सब दे दिया। आज मैंने देश के लोगों के लिए दिया।”
2018 में, 91 वर्ष की आयु में, भारत की यह अग्निधारा-सी पुत्री हृदयाघात से शांतिपूर्वक चल बसी। न राष्ट्रीय शोक, न टीवी पर बड़ी ख़बर।
पर आज, जब हम स्वतंत्र भारत के आकाश की ओर देखते हैं, तो याद रखना चाहिए—
यह आज़ादी एक पंद्रह वर्ष की लड़की ने अपने पैरों के रक्त और पूरे जीवन के बलिदान से चुकाई थी।
उसका नाम था सरस्वती राजमणि।
उसे स्मरण रखें—क्योंकि चाहे इतिहास उसे भूल गया हो, हम कभी उसके ऋण से मुक्त नहीं हो सकते ....??
ना किसी का डर ना किसी का भय ज़ोर से बोलों भारत माता कि जय हिन्द जय वन्दे गौ मातरम्,
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