बहुत सारे लोगों की धारणा है कि प्रशांत किशोर भी केजरीवाल सिद्ध होंगे। उनकी भी स्टाइल ऑफ पॉलिटिक्स वही है।
जो मेरी बुद्धि है, उसके अनुसार दोनों में कई मूलभूत अंतर हैं और हो सकता है कि आप लोग हँसें, किंतु केजरीवाल प्रशांत से बेहतर राजनीतिज्ञ हैं।
पहले तो दोनों के उदय में ही कई सारे अंतर हैं। केजरीवाल ने एक बड़ी सरकारी नौकरी को छोड़ा, एटिविस्ट बने, रेमन मैग्सेसे पुरस्कार मिला, फिर भ्रष्टाचार के विरुद्ध अन्ना आंदोलन मे भाग लिया।
उसके बाद ड्रामा ही सही, लेकिन पार्टी बनाने के लिए पब्लिक ओपिनियन लिया, तब जाकर चुनाव लड़े।
उनके मन में कुछ भी रहा हो लेकिन इन कारणों से उनकी तत्कालिक छवि ऐसी बनी कि वे सचमुच राजनीति को बदलना चाहते हैं।
उनकी शिक्षा, उनकी डिग्री को लेकर कभी विवाद नहीं रहा।
मैंने पत्रकारों का उत्तर देते हुए केजरीवाल को कभी उत्तेजित होते हुए नहीं देखा, जबकि उनसे कई सारे कठोर प्रश्न किये जाते रहे।
उनका पहला कार्यकाल कांग्रेस की सहायता से ४९ दिन का ही रहा लेकिन दूसरी बार चुनाव में उन्हें एकतरफा जीत मिली। ऐसा नहीं है कि उन्होंने कार्य नहीं किया। सरकारी विद्यालयों, अस्पतालों की स्थिति सुधरी, मोहल्ला क्लिनिक खुले, बिजली, पानी और बस यात्रा के फ्रीबीज भी मिले जो अब भी मिल रहे हैं। मेडिकल, इंजीनियरिंग की तैयारी करने वाले छात्रों को मुफ्त की कोचिंग की व्यवस्था हुई। बुजुर्गों के चारधाम यात्रा की व्यवस्था भी हुई। इसके कारण वे तीसरी बार भी बड़े बहुमत से जीते।
केजरीवाल अगर पिछड़े तो दो कारणों से। एक तो उनकी विचारधारा स्पष्ट नहीं थी, अपने लाभ के लिए कभी कुछ, कभी कुछ। दूसरी चीज यह रही कि उनका आचरण उन आदर्शों के ठीक उलट रहा जिसका वे चुनाव जीतने के पहले प्रदर्शन किया करते थे।
इसके विपरीत प्रशांत किशोर एक पॉलिटिकल प्रोफेशनल रहे। कभी इनकी मदद की, कभी उनकी मदद की। कोई वैचारिकी नहीं, सामाजिक कार्यों का कोई रिकॉर्ड नहीं। बस चुनाव लड़वाने का अनुभव लेकर स्वयं चुनाव लड़ने की ललक उन्हें चुनावों में खींच लाई।
यह बात अवश्य है कि वे दो–तीन साल से बिहार में जमे हुए हैं लेकिन वर्तमान के तीन महीनों को छोड़ दिया जाय तो वे किसी भी मुद्दे पर नीतीश सरकार के विरुद्ध बहुत आक्रामक नहीं हुए। उनकी यात्राओं का उद्देश्य बस यही था कि उनकी पार्टी को बिहार की राजनीति में सेट कैसे किया जाय।
उन्होंने केजरीवाल से सिर्फ एक चीज उधार लिया है, वह है आरोप की राजनीति। उन्होंने अशोक चौधरी और सम्राट चौधरी पर उनकी डिग्रियों को लेकर आरोप लगाए।
उनके आरोप सही भी हो सकते हैं, किंतु मैंने कल एक साक्षात्कार देखा, जिसमे उनकी शिक्षा को लेकर जब पूछा गया तो वे हत्थे से उखड़ गए और पत्रकार पर ही आरोप लगाने लगे। जो व्यक्ति संसार भर से पारदर्शिता की उम्मीद करता है, सबसे पहले उसे खुद पारदर्शी होना चाहिए।
लोग तो अब यह भी आरोप लगा रहे हैं कि इसलिए ही प्रशांत चुनाव नहीं लड़ रहे कि उन्हें अपनी शिक्षा को सार्वजनिक न करना पड़े।
प्रशांत किशोर जब पत्रकारों से बात करते हैं तो बहुत ही अधिक आक्रामक रहते हैं, उन्हे प्रश्न नहीं करने देते। ऐसा लगता है कि उनका प्रयास यह रहता हो कि वे अपनी सारी बातें तो कह जाएं लेकिन उन्हे किसी कठिन प्रश्न के सामने असहज नहीं होना पड़े।
केजरीवाल ने जब एक्टिव पॉलिटिक्स में एंट्री ली थी तो उनके पक्ष में एक माहौल था लेकिन प्रशांत के रास्ते में खुद केजरीवाल की अवसरवादी छवि खड़ी है, जिससे पार पाना प्रशांत के लिए असम्भव जितना कठिन है।।

