प्रत्येक हिंदू को यह #Thread अंत तक अवश्य पढ़ना चाहिए। समस्या बड़ी है इसलिए लेख भी बड़ा है। 🧵👇
🔏 लेखक : पंकज सनातनी
'दहेज' यह भारत का शायद अकेला ऐसा शब्द है जिसके मायने हर इंसान के लिए अलग-अलग हो जाते हैं किसी के लिए यह शब्द चेहरे पर खुशी ला देता है तो वहीं किसी के माथे पर शिकन लाने के लिए काफी है। यही एक ऐसा शब्द है जिसके लिए खुशी में हवाई फायरिंग की जाती है तो इसी के लिए किसी की जान भी ली जाती है यानी इस शब्द का कौन और कैसे इस्तेमाल करता है यह कहना मुश्किल है लेकिन जो एक बात सबसे स्पष्ट और साफ है वो यह है कि दहेज को आज लोग सिर्फ और सिर्फ धन यानी पैसों के रूप में देखते हैं। लेकिन कहते हैं कि जब दहेज की शुरुआत हुई थी तब ऐसा नहीं था इसके मायने धीरे-धीरे बदलते गए आज इसने इतना विकराल रूप धारण कर लिया है कि आज इसे रोकने के लिए सख्त से सख्त कानून बनाए गए हैं लेकिन कैसे यह जानने के लिए हमें सबसे पहले जानना होगा कि दहेज की प्रथा आखिर शुरू कैसे हुई थी इसका इतिहास क्या है।
दहेज को हमेशा से हिंदुओं की संस्कृति से जोड़ा जाता है लेकिन क्या यह पूरी तरह सच है चलिए जानते हैं मुस्लिम समाज में शादी के समय मेहर की रकम तय की जाती है, जिसे महिलाओं का 'सिक्योरिटी मनी' माना जाता है। तलाक होने पर मेहर का पैसा पति द्वारा पत्नी को दिया जाता है ताकि वह अपना जीवन का गुजारा कर सके। ईसाई धर्म की बात करें तो इंग्लैंड में 12वीं सदी से ही दहेज सिस्टम चला आ रहा है शुरू-शुरू में शादी के समय दूल्हा और दुल्हन के परिवार लोगों के सामने चर्च के गेट पर एक-दूसरे के साथ Gift Exchange करते थे जिसे Dowry कहा जाता था। लेकिन कुछ सालों बाद यह गिफ्टिंग की परंपरा एक तरफा हो गई और फिर यह गिफ्ट सिर्फ लड़की वाले ही देने लगे।
एक तरफा हिंदू प्राचीन ग्रंथ है जो महिलाओं के बारे में इतने सम्मान के साथ बात करते हैं। सनातन धर्म में माँ सरस्वती ज्ञान की देवी हैं, श्री ब्रह्मा जी नहीं माँ लक्ष्मी धन की देवी हैं, श्री हरि विष्णु नहीं माता पार्वती शक्ति एवं ऊर्जा की देवी हैं, भगवान शिव नहीं।
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हम प्राचीन हिंदू विवाह परंपराओं में स्वयंवर के बारे में भी सुनते आ रहे हैं जहां दुल्हन तय करती थी कि किससे शादी करनी है तब स्वयं वधु का कोई कांसेप्ट नहीं था, दूल्हा यह तय करने के लिए ब्यूटी कांटेस्ट नहीं रख सकता था कि उसे किस दूल्हा से शादी करनी है। रामायण में श्रीराम जी को यह साबित करने के लिए भगवान शिव का धनुष उठाना पड़ा कि वह सीता जी से विवाह करने के लिए काबिल हैं। महाभारत में गांडीवधारी अर्जुन ने भी स्वयं को साबित किया तो अगर हमारी परंपरा में महिलाओं को यही महत्व दिया गया था तो दहेज नाम का यह खतरा हमारे देश में कहां से आया।
अथर्ववेद के अनुसार, उत्तर वैदिक काल में वहत प्रथा प्रचलित था दहेज नहीं जिसमें पिता अपनी बेटी को कुछ उपहार देता था। यह लड़के वालों की मांग के अनुसार नहीं दिया जाता था बल्कि यह पूरी तरह लड़की के परिवार वालों पर निर्भर करता था कि वे अपनी बेटी को क्या देना चाहते हैं। वहीं मध्यकाल में लड़कियों को स्त्री धन देकर विदा किया जाता था लेकिन इस समय भी लड़की के पिता के ऊपर कोई दबाव नहीं होता था।
लगभग 300 ईसा पूर्व में ग्रीक लेखक मेगास्थनीज ने अपनी किताब इंडिका में भारत की शादियों में दहेज की प्रथा की बात कही थी। उन्होंने लिखा था कि भारत में लड़की को इस पैमाने पर नहीं चुना जाता है कि वह कितना दहेज लेकर आ रही है बल्कि उसकी खूबसूरती और कला को ध्यान में रखकर ही रिश्ता किया जाता है, इस बात पर जोर नहीं दिया जाता है कि शादी में दहेज दिया जा रहा है या नहीं।
इसके 1200 साल बाद यानी 1035 एडी में पर्शियन लेखक अल बूनी ने अपनी किताब चैप्टर ऑन मैट्रीमोनी इन इंडिया में लिखा है कि भारत में शादी के समय कोई दहेज तय नहीं किया जाता। दूल्हा अपनी होने वाली पत्नी को शादी से पहले तोहफे देता है जिससे वह वापस नहीं मांगते, अगर महिला को शादी नहीं करनी होती है तो वह तोहफा लौटा देती है। इसका मतलब है कि भारत में 11वीं शताब्दी के पहले दहेज प्रथा जैसी किसी रीति का अस्तित्व नहीं था। अब अंग्रेज भारत देश में आए तो उन्होंने मॉडर्नाइजेशन की आड़ में कई ऐसे नियम बना दिए जिससे उन्हें तो फायदा हुआ लेकिन हमारा देश और हमारी संस्कृति काफी पीछे छूट गई।
ब्रिटिश सरकार के ऐसे ही कई नियम के अनुसार बेटी के माता-पिता की जायदाद में कोई हिस्सा नहीं था अर्थात बेटी माता-पिता की संपत्ति की उत्तराधिकारी नहीं हो सकती थी। जिसका मतलब था कि एक महिला को अपने माता-पिता से मिलने वाली सारी संपत्ति पर उसके पति का अधिकार होगा और जैसे ही पत्नी की संपत्ति पर पति के अधिकार का यह सिस्टम बना शादियां एक व्यापारिक सौदा बन गई। जहां से पैसा कमाना आसान हो गया तथा परिवार में आने वाली दुल्हन को धन के स्त्रोत के रूप में देखा जाने लगा। पुरुष प्रधान समाज लालची हो गया पति और ससुराल वाले दुल्हन और उसके माता-पिता से अधिक दहेज की मांग करने लगे। एक लड़का परिवार के लिए एक्स्ट्रा सोर्स ऑफ इनकम बन गया और लड़की सिर्फ एक फाइनेंशियल बर्डन। जिसके बाद से महिलाओं पर अत्याचार शुरू हो गए उन्हें प्रताड़ित किया जाने लगा।
सन 1961 में भारत में दहेज निषेध अधिनियम कानून (𝐃𝐨𝐰𝐫𝐲 𝐏𝐫𝐨𝐡𝐢𝐛𝐢𝐭𝐢𝐨𝐧 𝐀𝐜𝐭) लाया गया ताकि ऐसे मामलों में कमी लाई जाए। इसके अनुसार दहेज की मांग करने वालों पर 5 साल की कड़ी सजा और ₹15000 तक का जुर्माना हो सकता है। इसके अलावा 𝐈𝐏𝐂 𝐒𝐞𝐜𝐭𝐢𝐨𝐧 𝟒𝟗𝟖𝐀 के अनुसार लड़की को दहेज के लिए प्रताड़ित करने पर सजा या जुर्माना दोनों हो सकता है। यदि शादी के 7 साल के अंदर विवाहिता की 𝐔𝐧𝐮𝐬𝐮𝐚𝐥 𝐃𝐞𝐚𝐭𝐡 होती है तो उसकी मौत का जिम्मेदार ससुराल वालों को ठहराया जाएगा और इसकी गहनतापूर्वक जांच की जाएगी। दहेज प्रताड़ना साबित होने पर परिवार को 𝐈𝐏𝐂 𝐒𝐞𝐜𝐭𝐢𝐨𝐧 𝟑𝟎𝟒𝐁 के तहत 7 साल की सजा या फिर उम्र कैद हो सकती है। 𝐈𝐏𝐂 𝐒𝐞𝐜𝐭𝐢𝐨𝐧 𝟒𝟎𝟔 के अंतर्गत पति या ससुराल वाले यदि लड़की को स्त्री धन सोपने से मना करते हैं तो उन्हें 3 वर्ष की सजा हो सकती है या सजा और जुर्माना दोनों हो सकता है।
लेकिन इसके बावजूद दहेज पर आज तक पूरी तरह से रोक नहीं लगाया जा सका। कुछ समय पहले वर्ल्ड बैंक द्वारा भारत में दहेज देने और लेने पर किए गए रिसर्च के कुछ चौकाने वाले फैक्ट सामने आए हैं। वर्ल्ड बैंक के रिसर्चर ने 1960 से 2008 तक रूरल इंडिया में हुई 40000 शादियों पर रिसर्च करके एक रिपोर्ट तैयार की थी। इस रिपोर्ट के अनुसार 1961 में दहेज प्रथा को गैर-कानूनी घोषित करने के बावजूद 95% शादियों में दहेज लिया गया। यह रिपोर्ट भारत के 17 राज्य में रहने वाली भारत की 96% आबादी पर स्टडी करके रिपोर्ट तैयार की गई थी।
वर्ल्ड बैंक रिसर्चस की टीम ने शादी के दौरान लिए गए और दिए गए पैसों सामान और तोहफों की कीमत की जानकारी जुटाई और कुल दहेज का आकलन करने के लिए दोनों परिवारों द्वारा खर्च किए गए पैसों का अंतर निकाला। उन्होंने पाया कि दूल्हे के परिवार द्वारा दुल्हन के परिवार को दिए गए तोहफे की कीमत अगर ₹5000 थी तो दुल्हन के परिवार द्वारा दूल्हे के परिवार को दिए गए तोहफे की कीमत ₹32000 थी। दोनों का अन्तर यानी वास्तविक दहेज ₹27000 था, जो दूल्हे के परिवार द्वारा खर्च की गई रकम से कई गुना ज्यादा थी।
दहेज में परिवार की आय का बड़ा हिस्सा खर्च होता है 2007 में रूरल इंडिया में कुल दहेज वार्षिक आय का 14% था, यानी परिवार की वार्षिक आय का 14% दहेज में ही खर्च हो जाता है। वैसे तो भारत के सभी धर्मों में दहेज प्रथा प्रचलित है लेकिन हाल के वर्षों में ईसाई धर्म और सिक्ख धर्म में दहेज के खर्च में बढ़ोतरी देखी गई जो हिंदू और मुसलमानों की तुलना में काफी ज्यादा थी। साल 2008 में सिख धर्म में औसत दहेज का खर्च 52000 रुपये था और ईसाई धर्म में 48000 रुपये।
दहेज पर जाति का भी प्रभाव दिखता है ऊंची जातियों में दहेज ज्यादा लिया जाता है जबकि SC, ST और OBC में ज्यादा दहेज देना या लेना इतना ज्यादा प्रचलित नहीं है। अगर स्टेटस की बात की जाए तो 1970 के बाद केरल में दहेज में उल्लेखनीय बढ़ोतरी दर्ज की गई और हाल के वर्षों में भी केरल में औसत दहेज दूसरे राज्यों के मुकाबले ज्यादा रहा। दूसरे नंबर पर पंजाब का नाम आता है जहां औसत दहेज में बढ़ोतरी दर्ज की गई उसके बाद हरियाणा और गुजरात में दहेज लेने और देने का प्रचलन है।
जबकि उड़ीसा, पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, महाराष्ट्र में पिछले कुछ सालों में औसत दहेज में कमी आयी है। रिसर्चस के अनुसार वर्ष 1930 से 1975 में दहेज की पेमेंट में दोगुनी वृद्धि हुई है और औसत दहेज तीन गुना ज्यादा बढ़ा है। भले ही दहेज प्रथा की शुरुआत अकेले भारत में नहीं हुई हो मगर आज हमारा देश दहेज से संबंधित अपराधों में नंबर वन है। और इसके लिए हम किसी दूसरे को दोषी नहीं ठहरा सकते।
नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो (NCRB) के आंकड़ों की बात की जाए तो भारत में साल 2020 में दहेज प्रताड़ना के कुल 10364 मामले दर्ज हुए थे। जबकि दहेज की मांग के कारण 6966 लड़कियां मौत के घाट उतार दी गई थीं। हमारे देश को आजाद हुए आज 78 साल हो चुके हैं लेकिन आज भी हम अपने समाज से ना तो दहेज प्रथा जैसी कुरीति को खत्म कर पाए हैं और ना ही उससे उससे संबंधित मुद्राएँ को।
आज भी किसी के घर में अगर बेटी पैदा हुई तो उसकी फैमिली को उसकी पढ़ाई-लिखाई से पहले उसके शादी की चिंता सताने लगती है, आखिर क्यों…? आज अंतरिक्ष के अनंत सफर पर परचम लहरा रहे भारतीय समाज में यह कुप्रथा आज भी मौजूद है। सोचिए और अपनी राय दीजिए यदि हर इंसान एक-एक करके इस कुप्रथा को खत्म करने की शुरुआत स्वयं से करना प्रारम्भ कर दे तभी यह कुप्रथा समाज से और देश से खत्म की जा सकती है।
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✍️ साभार