यह समझ में नहीं आता कि न्यायपालिका कब तक विधायिका द्वारा पारित विधेयकों को, विपक्ष के कहने पर, रजिस्टर करती रहेगी?यह बात समझ से परे है कि आखिर न्यायपालिका कब तक विधायिका द्वारा पारित विधेयकों को विपक्ष के इशारे पर अटकाती रहेगी?बार-बार ऐसे मुकदमों को प्राथमिकता कैसे दी जाती है?
ऐसे केस स्वीकृत कैसे हो जाते हैं, वह भी बार-बार? सरकार को एकाध बार, ऐसे केस में अपने वकील न भेज कर यह जताना चाहिए कि ऐसे केस और उसके पक्षधर लोगों को सरकार कैसे देखती है।सरकार का पक्ष रखने न कोई जाए, न जजों की बकलोली पर, उनके नोटिस देने का सरकार कोई संज्ञान ले। यह करना आवश्यक हो चुका है क्योंकि न्यायपालिका के माध्यम से विपक्ष एक समानांतर सदन चला रहा है जहाँ हर संवैधानिक नियमों की पूर्ति के उपरांत भी, अनैतिक रूप से कोर्ट का हस्तक्षेप हो रहा है।